संजीव जायसवाल ‘संजय’ का बाल कहानियों का संग्रह ‘नटखट कहानियाँ’
वरिष्ठ साहित्यकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ कहानी, उपन्यास और व्यंग्य विधा में समान अधिकार रखते हैं। वह दशकों से बाल साहित्य लिख रहे हैं। बच्चे, युवा और प्रौढ़ पाठकों के लिए वह चिर-परिचित नाम हैं। एक हज़ार से अधिक कहानियाँ वह लिख चुके हैं। उनकी साठ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक नटखट कहानियाँ प्रकाशित हुई है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। फ्रि़ज की सैर, अमेरिकन माउस, पूसी-लूसी-डूसी, नई टेक्नोलॉजी, चुन्नू जासूस, अंकीसै-2023 और जे.एंड एफ़़.इंटरनेट कहानियाँ बाल पाठकों को अवश्य लुभाएंगी।
चौबीस बाय उन्नीस से.मी. के आकार की यह किताब काग़ज़ी किफायत की समर्थक है। आवरण पृष्ठ ही नहीं भीतर के पन्ने भी आकर्षक और उम्दा गुणवत्ता के हैं। छपाई शानदार है। इन्द्रधनुषी रंगों का उपयोग किया गया है। हिन्दी पट्टी में अभी भी अमूमन श्याम-श्वेत रंग की ही किताबें चलन में हैं। आम तौर पर बाल साहित्य में पिक्चर बुक ही रंगीन दिखाई देती हैं। वह किताबें बहुत छोटे बच्चों को ध्यान में रखते हुए प्रकाशित की जाती रही हैं। वह बारह, चौदह या अधिक हुआ तो सोलह पन्नों की होती हैं। अलबत्ता, यह हार्डबाउंड में होती तो ज़्यादा बेहतर होता। मौजूदा ढांचा में यह हाथों में झूल रही है।
यह किताब एक लेखक की सात कहानियों को भव्यता के साथ पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रही है। मेरी निजी राय है कि हिंदी प्रकाशकों को मूल्य की चिन्ता न करते हुए इन्द्रधनुषी रंगों को इस्तेमाल करना ही चाहिए। क़ाग़ज़ की गुणवत्ता से किसी भी तरह का समझौता भी नहीं करना चाहिए। इस मामले में इस प्रकाशक की सोच की तारीफ़ की जानी चाहिए। पहली बार किसी किताब में प्रूफ़रीडिंग करने वाला महत्त्वपूर्ण काम को सम्मान देने का उदाहरण देख रहा हूँ। व्योमा मिश्र ने हरसंभव वर्तनी दोष को अत्यल्प कर दिया है।
अब आते हैं किताब में शामिल कहानियों पर। पहली और ज़रूरी बात यह है कि इन कहानियों में निहायत यथार्थ समाज का अक़्स देखने वाले पाठकों को हैरानी हो सकती है। अलबत्ता, बालमन के जानकार और अपने बचपन में लौटने वाले पाठकों को इन कहानियों को पढ़ने में आनंद आएगा। हम अक्सर कहते हैं कि हमारे भीतर एक बच्चा होता है। हमें उस बच्चे को बचाए और बनाए रखना होता है। उन पाठकों को यह कहानियाँ पसंद आएगी। अनुमान और कल्पना की ऐसी उड़ानें इस किताब में है जिसमें चूहा फ्रि़ज में रखे सभी सामान को पहचानता है। जैसे ही फ्रि़ज खुलता है चींची चूहा चुपके से भीतर चला जाता है। वहीं रह जाता है। खा-पीकर वह वहीं सो जाता है ओर एक घण्टे बाद जगता है तो उसे ठण्ड लगने लगती है। यही नहीं वह दूध के भगौने में भी गिर जाता है।
अमेरिकन माउस में चूहों को लगता है कि इंसानों ने कंप्यूटर के माउस के रूप में उनकी बिरादरी के चूहों को कैद कर रखा है। गाहे-बगाहे वह माउस भाइयों का पेट दबाना शुरू कर देते हैं। फिर कहानी में चूहे योजना बनाते हैं कि हमें अपने माउस भाइयों को छुड़ाना चाहिए। वे मिलजुलकर एक कार्टूनिस्ट के घर में चले जाते हैं। लेकिन जैसे ही चुहिया सुंदरी मौसी के भार से माउस क्लिक हो जाता है तो सभी के होश फाख़्ता हो जाते हैं।
कहानी पूसी-लूसी-डूसी में पूसी बिल्ली अपने बच्चों लूसी और डूसी को वॉशिंग मशीन में धोना चाहती है। उसे लगता है कि बच्चों के रोएँ चमक जाएँगे। बच्चे डर जाते हैं। तब पूसी खुद मशीन में घुस जाती है। लूसी ने बटन दबाया तो मशीन घूमने लगी। जल्दी ही पूसी को पता चल गया कि अब कुछ भी हो सकता है। बच्चे जानते ही नहीं थे कि मशीन केसे बन्द होती है।
नई टेक्नोलॉजी कहानी में जंगल का राजा शेर है। उसकी मौत हो जाती है और शेर का बच्चा शावक सिंह को राजा बना दिया जाता है। बाक़ायदा जंगल में मंत्रि-परिषद है जो यह विचार-विमर्श कर निर्णय लेती है। अब कानन-वन में चोरी के मामले बढ़ने लगे। सब परेशान हो जाते हैं। नई तकनीक का सहारा लेकर चोर को पकड़ लिया जाता है। सीसीटीवी कैमरे की सहायता से चोर पकड़ लिया जाता है।
‘चुन्नू जासूस’ में चुन्नू चूहा है। उसे जासूस बनने का शौक चढ़ गया। वह जासूस बन भी गया। वह सफल भी हो गया। बाद में ऐसा कुछ घटता है िकवह अपने सहायकों को इनाम का आधा हिस्सा बाँटकर दूसरे जंगल में जाकर आराम से रहने लगता है।
अंकीसै-2023 यानि अंतरिक्ष की सैर 2023। लेखक ने शीर्षकों से भी कहानियों को समसामयिक बनाने का प्रयास किया है। कानन-वन में कालू भेड़िया और पीलू लोमड़ अंतरिक्ष की सैर कराने के नाम पर जंगलवासियों के लिए सीट बुक करने लगते हैं। हाथी, जिराफ जैसे जानवरों का ेवह सीधे मना कर देते हैं। चीकू खरगोश उनके मंसूबों पर पानी फेर देता है।
जे.एंड एफ़. इंटरनेट यानि जैकॉल और फॉक्स सियार-लोमड़ी के गठजोड़ से बनी कंपनी पर आधारित कहानी है। दोनों वन में इंटरनेट सुविधा चालू करने के नाम पर रुपए ऐंठने का काम करने लगे। भोलू गधे को कुछ गड़बड़ लगती है और वह योजनानुसार काम करते हुए दोनों का भाण्डा फोड़ देता है।
भीतर के अंतिम पन्ने पर बाल पाठकों के लिए एक अंतर पहचानो वाली गतिविधि दी हुई है। रिक्त स्थान के लिए जगह छोड़ी हुई है। दो चित्र आमने-सामने दिए हुए हैं। एक उदाहरण हल किया हुआ है। पाठक नौ नौ अंतर पहचानकर लिख सकते हैं।
यह समय अत्याधुनिक इलस्ट्रेशन तकनीक का है। कंप्यूटर और कई डिजायनिंग एप की वजह से कृत्रिम चित्र बहुत जल्दी बन जाते हैं। मुझे लगता है कि यदि यह चित्र चित्रकार या इलस्ट्रेटर हाथ से बनाते तो वह ज़्यादा प्राकृतिक लगते। यह चित्र साफ तौर पर बनावटी लगते हैं। बहुत छोटे बाल पाठकों को शायद यह अंतर समझ में न आए। लेकिन चित्र प्राकृतिक और हाथ से बने हों तो वह पाठकों को ज़्यादा लुभाते हैं। कुछ पन्नों पर फोंट सफेद हो गए हैं। यह इसलिए हुआ है कि पन्ने पर फैला चित्र गहरे काले या नीले रंग में बना है। फोंट काला पढ़ने में मुफीद रहता है। सारे चवालीस पन्ने चित्रात्मक हैं। चित्रों का प्रतिशत आकार में देखें तो बाल पाठकों का ध्यान रखा गया है। चालीस फीसदी से अधिक चित्र पुस्तक में हैं। ऐसा प्रयोग चुनिंदा किताबों में ही दिखाई देता है।
इस किताब के बहाने मैं उन व्यग्र व्याघ्रों, युवा तुर्क लेखकों और पुरस्कार-सम्मान लेने को आतुर अति उत्साहित साहित्यकारों को अवश्य सलाह दूंगा कि यदि वे बाल साहित्य में अपनी पुस्तकें प्रकाशित कराना ही चाहते हैं तो ज़रूर इस कहानी संग्रह को अवश्य देखें। उलटे-पलटे, निहारें और पढ़ें भी।
संजीव जायसवाल संजय तूफानी लेखन में सिद्धहस्त हैं। एक तो वह किसी एक जगह टिक कर नहीं रहे। वह ग्राम-देहात-शहर और महानगरीय जीवन शैली से रु-ब-रु रहे हैं। सेवानिवृत्ति के बाद वह सुकून से लेखन में रत् हैं। यह बड़ी बात है। उनके पास अनुभव है। दृष्टि है। सूक्षम अवलोकन के वे धनी हैं। यह संग्रह पशु-पक्षियों का मानवीकरण करती हुई उन्हें मनुष्यजनित जीवन शैली प्रदान करता है। दिल्ली प्रेस समूह की बाल पत्रिका चम्पक में ऐसी ही कहानियाँ बदस्तूर प्रकाशित हो रही हैं। आज भी। संजीव जायसवाल सजय ने भी चंपक के लिए खूब लिखा है। यह भी संभव है कि संग्रह की यह कहानियाँ पूर्व प्रकाशित कहानियाँ हों। बहरहाल, जो भी है इस तरह की कहानियों के भी पाठक हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। मुझे इन साहित्यकार की संवादाधारित शैली वाली कहानियाँ अधिक पसंद आती है।
अलबत्ता मुझे किताब को पढ़ते हुए कुछ बातें सूझी हैं। यह कहना उचित होगा कि इन कहानियों के सहारे लंबे समय तक याद की जाने वाली कहानियों के कुछ पदचिह्नों की तलाश हो सके। मसलन, मुझे लगता है कि कहानी का आरम्भ दिलचस्प हो। लेकिन वह इस बात का पता न दे कि यह कहानी पाठक को कहाँ ले जाना चाहती है। यदि कहानी के तीसरे और चौथे वाक्य में ही कहानी यह इंगित कर दे कि पात्र को यह नहीं होना चाहिए या पात्र को ऐसा होना चाहिए तो पाठक अनुमान लगा लेता है कि कहानी यह सुधार पात्र में करती हुई समाप्त हो जाएगी। मेरा मानना है कि जब ध्येय बाल पाठक को पढ़ने का चस्का लगाना है या उसे मनोरंजनपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराना है। तब यह और भी चुनौतीपूर्ण माना जाना चाहिए जब पाठक बहुत ही छोटे बच्चे हों। मेरा मानना है कि लंबे-लंबे वाक्य अभी-अभी पढ़ना शुरु करने वाले पाठकों का मोह भंग कर सकते हैं।
संजीव जायसवाल संजय के पास बहुभाषा का समृद्ध शब्दकोश है। वह चाहते तो अपने बाल पाठकों को सरल और छोटे-छोटे वाक्यों की भाषा उपहार में दे सकते हैं। मसलन प्रस्तुत वाक्यों को देखिएगा। दस नहीं बीस-इक्कीस शब्दों के वाक्य !
‘वह उसे समझाती कि ज़्यादा लालच ठीक नहीं होता है, जो चीज़ आसानी से मिल जाए, उसी पर संतोष करना चाहिए।’
‘सब्ज़ी बनाते समय वह थोड़ा-सा पनीर निकालकर सब्ज़ी में डाल देती और बाक़ी पनीर को वापस फ्रि़ज में रख देती।’
‘चलने-फिरने से शरीर में रक्त का संचार हुआ, जिससे कुछ क्षणांे के लिये तो राहत मिली, लेकिन थोड़ी ही देर में सर्दी से उसके दाँत बजने लगे।’
‘फिर गर्व से बोला,‘‘आज कंप्यूटर हवाई जहाज़ उड़ा रहे हैं, बड़ी-बड़ी मशीने चला रहे हैं, युद्ध का सामान बना रहे हैं।’
‘यह तय हुआ कि यह प्रतिनिधि मंडल शहर जाकर ‘माउस भाइयों’ को उनकी शक्तियों के बारे में बताएगा और उन्हें मनुष्यों से बदला लेने के लिए प्रेरित करेगा।’
‘सुंदरी मौसी के भार के कारण ‘माउस’ क्लिक कर गया और अगले ही पल स्क्रीन पर एक जंगली बिल्ली का चित्र उभर आया।’
‘चूहों की जान तो बच गई थी, लेकिन आज तक उनकी समझ में यह नहीं आया कि ‘अमेरिकन माउस’ ने उनके लिए बिल्ली क्यों बुला ली थी।’
आज जब मैं इस संग्रह पर अपनी बात लिख रहा हूँ तो भारत-पाक के बीच एशिया कप सीरीज का मैच चल रहा है। बारिश हो गई है और भारत ने पहले खेलते हुए 356 रन बनाए हैं। लाइव प्रसारण में एक श्रोता कमेंट में लिख रहा है कि आज विराट कोहली ने पिछली इनिंग का पाक से बदला ले लिया है। सोच रहा हूँ कि खेल में हार-जीत हिस्सा है। यह बदला लेने का भाव कहाँ से आया गया? इसी तरह हमारी कहानियों में बदला लेने की भावना वाली कहानियाँ पाठकों को कहाँ ले जाती है? कहीं पहुँचाती है? बदला लेने का भाव क्या संवेदना से भरा हुआ माना जा सकता है?
कहानियाँ मुंबईया फिल्म नहीं होतीं। अनुमान, कल्पना और फंतासी का उपयोग करते हुए कहानीकार कहानी बुनता है। उसे एक आकार देता है। कई बार कई कहानियाँ शानदार बुनावट से आरंभ होती हैं। आगे बढ़ती हुई अपनी गति खो देती हैं। पाठक वय वर्ग कोई भी हो। कहानी में ‘संयोग’ से सब कुछ ठीक नहीं होना चाहिए। आरंभ, मध्य और अंत में एक सिलसिला तो बनना ही चाहिए।
कहानी विधा की बात करूँ तो हर कहानी का अंत सुखांत हो। कहानी का पात्र जो पाना चाहता है उसे अंत में मिल जाए। कहानी के पात्र की आदत बदल जाए। यह जरूरी क्यों हो? कहानी के अंत में पात्र से यह कहलवाने की ज़रूरत ही क्या है कि आइंदा मैं ऐसा नहीं करूंगा। मैं प्रण लेता हूँ।
बचपन से चंदामामा, नंदन, चंपक पढ़ रहा हूँ। कई बाल पत्रिकाएँ काल के गाल में समा गईं। अब तो अपने ही घर में अनुभव आठवीं में और मृगांक छठी में पढ़ रहा है। बावजूद इतना समय बीत जाने के बाद भी हिंदी साहित्य में खासकर कहानियों में कुछ बातें, मान्यताएँ, सोच और परिपाटी नहीं बदली। यह दुःखद है। एक बात जो मुझे अक्सर कचोटती है। वह है गाँव-शहर की तुलना करना। हम यह कब समझेंगे कि गाँव शहर नहीं हो सकता और शहर गाँव नहीं हो सकता। गाँव में शहर की कई सारी बातें शामिल हो सकती हैं। सुविधाएँ पहुँच सकती हैं। गाँव सुविधासम्पन्न हो सकता है। लेकिन गाँव में कुछ ऐसा होता है जो उसे कभी शहर नहीं बनने देता। वह शहर भी क्यों बने? उस पर कहानियों का यह ढर्रा कि गाँव के लोग सीधे-साधे होते हैं। उन्हें कोई भी ठग लेता है। शहर का कोई गाँव में आता है और वहाँ की सूरत बदल देता है। गाँव से कोई शहर जाता है और पढ़-लिखकर लौटता है। फिर वह गाँव की बदहाली दूर कर देता है। आज भी ऐसी कहानियां लिखी जाती है तो हैरानी नहीं दुःख होता है।
आज भी कई शिक्षक बच्चों को पढ़ने-लिखने की नसीहतें देते हैं। अच्छी बात है। लेकिन जब कोई शिक्षक यह कहता है कि पढ़ाई कर लो नहीं तो भेड़-बकरियाँ चराते रह जाओगे। उसे तो समाचार वाचिका बनना था वह घसियारिन क्यों बनती? यह कामों का श्रम का अपमान है।
समाज में बहुत तेज़ी से सिर के बदल सिर काट लेने की भावना बढ़ती जा रही है। यह किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम पाठकों को भी इसी भावना से ओत-प्रोत या इस भावना का प्रबल समर्थन करने वाली सोच आधारित कहानियाँ तो नहीं परोस रहे? यदि समाज में असामाजिक लोग हैं और वे चालबाज़ियों से, कुटिलता से, दबंगई से आम नागरिकों को ठगते हैं तो विधिसम्मत कार्रवाई की जानी चाहिए। कानूनन अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए। लेकिन समाज के कुछ लोग ही गैरकानूनी काम कर रहे लोगों का नामोनिशान मिटाने का जिम्मा अपने हाथों में ले लें तो क्या जय-जयकार की जानी चाहिए?
बाल साहित्य में कहानियों के नाम पर कुछ भी परोस देने की प्रवृत्ति समय के साथ न्यूनता की ओर बढ़नी चाहिए थी। लेकिन हिन्दी पट्टी के जाने-माने साहित्यकार अभी भी पंचतंत्रीय फार्मूला से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। उन बेसिर-पैर की कथाओं की बाढ़ में स्वच्छ, निर्मल, सरल और मनोरंजनपूर्ण कहानियाँ बह जाती हैं। प्रकाश में आ ही नहीं पाती।
कोई भी पशु-पक्षियों के मानवीकरण की मुखालफ़त नहीं करेगा। बाल पाठकों के समक्ष यदि पशु-पक्षियों के माध्यम से बोधपरक,मनोरंजनात्मक और विचारवान कथ्य सामने आता है तो इसमें बुराई क्या है? क़तई कोई बुराई नहीं है। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि मनुष्य गधे का तिरस्कार करे। क्या मैं यह लिख सकता हूँ कि मेरी बात को पढ़ने और समझने वाले गधे हैं और वे गधे ही रहेंगे! क्या गधे का गधा ही नहीं रहना चाहिए? फिर ऐसा कौन-सा जानवर है जो चूहे से शेर बन गया हो? हर जीव-जन्तु की अपनी खासियतें हैं। जैव-विविधता के संतुलन के लिए उनका जीवित रहना ज़रूरी है। इसी सोच के तहत प्रकृति ने उन्हें बचे और बने रहने के लिए अलग-अलग स्वभाव प्रदान किया है। हम मनुष्यों ने कब और कैसे तय कर लिया कि गधा मूर्ख होता है? सियार, लोमड़ी और भेड़िए धूर्त होते हैं ! हम क्यों मांसाहारी जीवों को घास पर ज़िन्दा रख सकते हैं? शेर जंगल का राजा होता है? जंगली कुत्तों का दल, लकड़बग्घे, दरियाई घोड़ा तक कई बार शेर को छका देते हैं। जंगली भैंस, बारहसिंगा भी कई बार शेर के पेट में सींग चुभो कर चित्त कर चुके हैं। तो फिर काहे हम शेर को राजा बनाने पर तुले हुए हैं?
आज जब दुनिया एक गाँव हो गई है। मानवाधिकार की बातें तेजी से स्वीकार्य हो रही हैं। युद्ध की भर्त्सना करने वाले देशों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस संसार में प्रत्येक जीव को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है। ऐसे में सभ्य समाज की बात हो या अराजक लोगों की अतार्किकता ! क्या किसी भी समाज को अनैतिक कार्य करने वाले की ठुकाई करने का अधिकार है? उसका मुंह काला कर जुलूस निकालने का अधिकार है? मणिपुर में महिलाओं को नग्न कर प्रदर्शन कर रही भीड़ की सोच को स्वीकारा जा सकता है? नहीं न? तो फिर साहित्यकार कहानियों में कैसा समाज स्थापित करना चाहते हैं?
यह कौन स्वीकार नहीं करना चाहेगा कि साहित्य का एक बड़ा और ज़रूरी मक़सद है पाठकों का मनोरंजन करना। स्वस्थ मनोरंजन करना। लेकिन मनोरंजन करने का यह ध्येय कदापि नहीं होना चाहिए कि कहानियों के ज़रिए हम किसी धर्म, जाति, वर्ग, पेशा, पद, जीव या कर्म का उपहास उड़ाएं। खिल्ली उड़ाएं। साहित्य में विपुल ताकत होती है। कथा-कहानियों के जरिए संवेदनशीलता बढ़ाना जरूरी मक़सद होना चाहिए। किसी भी दशा में हमें पाठकों को क्रूरता का समर्थन करने वाले भाव से भरी कहानियाँ नहीं देनी चाहिए। क्रूर बनाने के भाव की स्वीकार्यता तो क़तई स्वीकार नहीं की जा सकती। यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या समाज में क्रूरता नहीं है? हाँ है। यदि निहायत ही ज़रूरी है क्रूरता का उल्लेख करना तो दाल में नमक की मात्रा हो। इसी क्रूर समाज में दया, सहयोग, प्रेम, संवेदनशीलता, सामूहिकता, कल्याण, सकारात्मकता और आशावादी मूल्य भी तो हैं ! नहीं हैं क्या? आप ज़रूर सोचेंगे। यकीनन। मुझे भरोसा है। पूरा भरोसा है।
पुस्तक: नटखट कहानियाँ (बाल साहित्य)
विधा: कहानी
लेखक: संजीव जायसवाल ‘संजय’
मूल्य: 250 रुपए
पेज संख्या: 44
विशेष: बहुरंगीय
आवरण: शहाब ख़ान
प्रकाशन वर्ष: 2023
प्रकाशक: अद्विक प्रकाशन, दिल्ली
लेखक से सम्पर्क: 7318213943