मम्मी मेरा ब्याह करा दे
छोटी सी दुलहनियां ला दे
अंगुली पर मैं उसे नचाऊँ
बात न माने मार लगाऊँ
घोड़ी पर मुझको बिठला दे
मम्मी मेरा ब्याह करा दे
माँ तुझको आराम कराऊँ
हाथ पैर तेरे दबवाऊँ
सेवा में यदि कमी करे तो
झटपट पीहर को पहुँचाऊँ
राजकुँवर सा मुझे सजा दे
मम्मी मेरा ब्याह करा दे
मैं उसको आदेश सुनाऊँ
सब घर का झाड़ू लगवाऊँ
अगर बात माने न मेरी
तब डंडे से मार लगाऊँ
झट रिश्ते की बात चला दे
मम्मी मेरा ब्याह करा दे
छोटी सी दुल्हनियाँ ला दे।
इक्कसवीं सदी के इस दौर में वह रचना बालोपयोगी है ही नहीं जिसमें बच्चों की आवाज़ें न हो। यदि बाल सुलभ, बाल मन दर्शाना ही है तो उसमें कल्पना की ऐसी अतिरंजना न हो जो उसकी सोच को घटिया दर्शाताी हो। बच्चों को और उनकी बातों को बचकाना समझना किसी भी दशा में उचित नहीं है। ये कविता इस लिहाज़ से बच्चों की दुनिया का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हाँ ! यह कहना ज़रूरी होगा कि किसी भी कविता को हम आज के दौर के हिसाब से अप्रासंगिक तो कह सकते हैं लेकिन उसका परिवेश,देशकाल,परिस्थितियाँ और रचनाकार को याद रखना ज़रूरी हो जाता है। बीस के दशक में यानि आज से सौ साल पहले की कविता से हम सूचना, विज्ञान और तकनीकी की उम्मीद करें या उसमें इन पहलूओं को खगालने लगेंगे तो हासिल क्या होने वाला है। हाँ! यह ज़रूरी होगा कि हम सन् दो हजार इक्कीस में भी उन्नीस सौ बीस की कविता को आज के सन्दर्भ में सटीक,प्रासंगिक और ज़रूरी बताने लगेंगे तो यह तार्किक न होगा।
एक बात तो यह है कि ब्याह करा देने में बच्चों की ध्वनियां शामिल हैं। लेकिन ब्याह कर लाने वाली दुल्हनियां के बारे में बच्चे के जो विचार गढ़े गए हैं वे कल्पनाएं नहीं आज के सन्दर्भ में कुकल्पनाएं हैं। यदि बकौल कवि कोई बच्चा ऐसा कह सकता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह जिस घर में पल-बढ़ रहा है वहां बहुत कुछ गड़बड़ है। यह बच्चा अपनी मां को किसी गुलाम की तरह देख कर बड़ा हो रहा है क्या? कहीं ऐसा तो नहीं परिवार में पुरुषवाद हावी है। उस घर में महिलाएं चाहें वह माँ हो या चाची या दादी सब शोषित हैं और इस बच्चे के पिता, चाचा और दादा किसी हिटलर से कम नहीं। कोई बच्चा इतना घटिया और बुरा कैसे हो सकता है? वह सोलहवीं सदी की सोच वाला कैसे हो सकता है कि वह अपनी होने वाली सहधर्मिणी पत्नी को अर्धागिनी को अँगुली पर नचाने की बात करेगा? इससे हास्यास्पद बात क्या होगी कि बात न मानने पर मारने की बात कर रहा है। मानो पत्नी नहीं गुलाम है। पशु है।
हद है। आज तो पशुओं के अधिकारों की बात हो रही है। मानवाधिकार की बात हो रही है। विडम्बना देखिए कि एक परिवार अपने घर में बहू को सदस्य के तौर पर नहीं देख रहा है। सास को आराम करने और बहू से नौकरानी सरीखे के बर्ताव को एक बच्चा तक महसूस कर रहा है! सेवा करना मात्र बहू का दायित्व नहीं है। परिवार भी एक समाज है। समाज सामाजिक संबंधों का जाल है। वहां कुछ नियम होते हैं। लेकिन नियम किसी को सामंत बना दे और किसी को गुलाम ! वाह! बात-बेबात पर पीहर पहुंचाने का स्वर घर से बाहर निकाल देने जैसा प्रतीत हो रहा है। राजे-रजवाड़े का युग गया लेकिन ये कैसा परिवार है जो बच्चों को आज भी राजा बनने के ऐसे सपने दिखा रहा है जो हमारी संवैधानिक व्यवस्था के ही ठीक उलट है। ऐसे कौन से कारण आज तलक जिन्दा क्यों हैं कि मां भी अपने बच्चे को राजा बेटा कहना नहीं भूलती। पूरी की पूरी कविता सामंती सोच के दायरे में दम तोड़ रही है। पूरी कविता की ध्वनि ऐसी दुलहनियां की मांग ही नहीं कर रही है बल्कि उसे स्थापित सा महसूस कराती है। महसूस ही नहीं करा रही है बल्कि साफ संकेत दे रही है कि पहले भी ऐसा चला आ रहा है और नई पीढ़ी में भी ये बदस्तूर चलता रहेगा। ये किस तरह के आदेश की बात कर रही है? आदेश में आज भी राज-रजवाड़े और विदेशी हुकूमत की बू आती है। क्या हम आजाद भारत के सत्तर साल के बाद की कविताई कर रहे हैं? ताड़न के अधिकारी की सोच से कब हमारा साहित्य बाहर आएगा?
मैं कविताओं पर बात नहीं करता। कारण? मेरे अभिन्न मित्र खूब कविताई करते हैं। अक्सर मैं उन्हें बतौर पाठक यह बताने की कोशिश करता हूं कि कविता कैसे समझी जा रही है। कविता की दिशा क्या है। कई मान जाते हैं और कई मुझे ही सीखाने लगते हैं कि भाव को ऐसे समझो। वैसे समझो। लेकिन मैं क्या कोई भी पाठक इतनी तमीज़ तो जानता ही है कि एक कविता का असल धर्म क्या है। यही कारण है कि मैं कविताओं पर बात ही नहीं करता। आप बताइएगा कि क्या वाकई मुझमें बतौर पाठक कविता पर बात करने की तमीज़ नहीं है? पहले तमीज़ सीखकर आऊँ या जैसा समझ में आता है उसे बगैर लाग लपेट कर कहता रहू? बताइएगा जरूर। क्यों बेकार में कवियों-कवयित्रियों को नाराज़ करता फिरूँ?
बेटा अनुभव जब दूसरी कक्षा में पढ़ता था तब उसने मुझसे पूछा था कि पापा मेरी शादी कब होगी। मुझसे ही नहीं, उसने यह बात स्कूल में अपनी अध्यापिका से भी कही। अनुभव ने मुझे बताया कि मैडम ने कहा कि शादी कुछ पढ़ लेने के बाद होती है। कुछ कर लेने के बाद होती है। जब तुम हमारी तरह बड़े हो जाओगे तब तुम भी शादी कर लेना।
मैं सबसे पहले क्षमा-याचना के साथ अपनी क्षमताओं को बता देना अपना दायित्व समझता हूँ। मैं अमूमन कविताएं नहीं लिखता। सो, मैं किसी कविता पर कम ही बात करता हूँ। वह भी इसलिए कि इसे बाल कविता कहा गया है। बच्चों के क्षेत्र में काम करता हूँ। बच्चों को समझना चाहता हूँ तो इस कविता पर मेरी बहुत सारी आपत्तियां हैं। मैं इस कविता के कवि/कवयित्री से भी खेद के साथ यह भी कहना चाहता हूँ कि मुझे इस कविता की ध्वनियों से आपत्ति है, उनसे नहीं। उनकी और सभी की कई बेहतरीन कविताओं का भी समय-समय पर बात करना चाहूंगा।
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
gud,
shukriyaa!
वैसे तो आपने लिख ही दिया है। फिर भी यही कहूँगा कि किसी एक कालखंड में रचे गए साहित्य की विवेचना दूसरे कालखंड में करना उपयुक्त नहीं। जब यह कविता लिखी गई होगी तब ऐसा ही माहौल रहा होगा।
सही बात है। लेकिन उस कालखंड की कविता का इस कालखंड में उल्लेख करना इसलिए भी ज़रूरी लगा मुझे क्योंकि आज के दर्जनों रचनाकार अभी भी उस कालखंड सरीखी कविताएं बुन रहे हैं। जबकि पीसे हुए आटा को पुनः नहीं पीसा जाना चाहिए. आभार आपका
वाकई,आप अपनी सख्त बातों को तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हैं! बहुत अच्छा लगता है! आपका जो यह दृष्टिकोण है, उसे बनाए रखें, आदरणीय,, उससे उलट न हों।
– अनुज पाण्डेय
ji SHUKRIYAA AAPAKAA.
Ok
साहित्य का कोई भी अंश जब हम पढ़े तो प्रतिक्रिया से पहले ये देखना चाहिए कि वह किस प्रदेश, देश या काल में लिखा गया है।
प्रस्तुत कविता 25-30 साल पहले के हिसाब से ठीक है पर आज के समय की यदि है तो निश्चित ही गलत है।
अगर इसके विषय की बात करूँ तो मेरे हिसाब से तो किसी भी काल में इसमें दिया संदेश गलत है।
जी आपसे पूरी सहमति है। साहित्य बेहद जिम्मेदारी देता है। आज हम और आप कुछ भी लिख देते हैं। लेकिन यह तय है कि हमारे लिखे हुए का मूल्यांकन कल होने वाला है। सादर,