पिछले बारह दशक में हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास की कई उपलिब्धयां रही हैं। आज दर्जनों बाल पत्रिकाएं बाजार में उपलब्ध हैं। सैकड़ों बाल साहित्यकार बाल साहित्य लिख रहे हैं। कई राज्यों में बाल साहित्य के विकास के लिए बेहतरीन काम हो रहे हैं। बाल साहित्य का कई भाषाओं में अनुवाद हो रहा है, आदि। लेकिन इक्कीसवीं सदी पिछली कई सदियों से बेहद महत्वपूर्ण मानी जा रही है। अत्याधुनिक डिजीटल उपकरण, इलैक्ट्रानिक सुविधाए, उच्च सूचना तकनीक और मनोरंजन के कई साधनों ने पारंपरिक मान्यताओं, विधियों और प्रचलनों को बेहद पीछे धकेल दिया है।
एक क्लिक पर सारी दुनिया को देख लेने की इंटरनेट सुविधा ने पढ़ने-लिखने की संस्कृति पर भी असर डाला है। पढ़ने और लिखने का पारंपरिक तरीका दम तोड़ने लगा है। हाई टैक के इस युग में हिन्दी बाल साहित्य को भी बदलना होगा। पंचतंत्र,विक्रम ओर वेताल, राजा-रानी,परियों के खाके के साथ-साथ अब नई दुनिया की रंगीन चमक-दमक का सहारा लेते हुए बाल साहित्य का पोषण करना होगा।
बाल साहित्य में बदलाव क्यों
आज के बच्चे बड़ों की बातों के नए संदर्भ तुरंत खोज लेते हैं। वह तत्काल प्रतिक्रिया भी दे डालते हैं। उन्हें अब पकड़ू,भूत,प्रेत और सांटाक्लॉज जैसी कपोल कल्पनाओं के सहारे लंबे समय तक भ्रमित नहीं किया जा सकता।
पांच बरस के बच्चे भी मूर्त और अमूर्त चीजों का अंतर समझते हैं। वह जानते हैं कि पेड़ के हाथ नहीं होते और वह नहीं बोल सकता। वह यह भी जानते हैं कि परियां उनका होमवर्क करने में कोई मदद नहीं कर सकती। ऐसी तमाम अति काल्पनिक पात्रों से भरी कहानी से लंबे समय का मनोरंजन नहीं किया जा सकता।
आज के बच्चों की भाषा चलती हुई भाषा है। आम बोल-चाल की भाषा से इतर उनकी भाषा में ही नया साहित्य रचना होगा। अति साहित्यकता अब नहीं चलेगी। बच्चे दोस्तों के साथ ही नहीं अपनी मम्मी-पापा और दादा-दादी के साथ भी बेहद औपचारिक हो चले हैं।
सूचना तकनीक ने शहरी बच्चों को ही नहीं ग्रामीण बच्चों को भी बदल दिया है। घर-घर में केबिल टीवी है। थ्री जी की दुनिया नन्हें हाथों के हाथ में भी है। इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता कि बच्चे गांव के हैं या शहर के।
हाई टैक युग ने स्कूलों में भी लड़का-लड़की, ग्रामीण-शहरी, अमीर-गरीब बच्चों के अंतर को पाट दिया है। काम के घंटे बढ़ते जा रहे हैं। आउट डोर से अधिक इनडोर में समय बिताना अधिक होने लगा है। मैदान सिमट गए हैं। घरों के अंदर की अलग-सी दुनिया में भी झांकना होगा।
आज के बच्चे सूचना तकनीक के साथ-साथ सोशल दायरे में भी सशक्त हैं। वह बाजार के उत्पादों के साथ-साथ नए तरीकों से रोजमर्रा का जीवन बिता रहे हैं। आदर्शवाद उन्हें समाज में नहीं दिखाई देता, सो वह आदर्शवादी बनना भी नहीं चाहते।
अभिवावकों के जीवन का वह भी अनुकरण करना चाहते हैं। जब अभिभावक ही किताबों से दूर हैं। जब अभिभावकों की आंखें टीवी से हटती ही नहीं हैं। जब अभिभावकों का दैनिक जीवन चिढ़,कुंठा,भागमभाग से भरा है तो वे बच्चे भी उसी दुनिया के आदी हो रहे हैं। धीरे-धीरे ही सही बच्चे भी बेहद दबाव में जी रहे हैं। इस मनोभावों को महसूस करने वाला बाल साहित्य अभी कोसों दूर है।
आज के बच्चों की भाषा में वाकपटुता है। समझदारी है। उनके पास बड़ों को हैरान कर देने वाले तर्क हैं। बड़ों को भी बच्चों की वास्तविक दुनिया के आस-पास रहना होगा। बच्चे छोटी-छोटी बातों पर ध्यान भी देते हैं। उन बेहद छोटी-छोटी बातों पर साहित्यकारों को ध्यान देना होगा।
खेती सिमट गई है। हमारा खान-पान का स्वरूप बदल गया है। डिब्बाबंद और पाउच संस्कृति ने बच्चों को खाद्य सामग्री की पहचान तक से दूर कर दिया है। वह पारिस्थितिकीय चक्र से अनभिज्ञ हैं। एसी के चलते वह बदलते मौसम से अपरिचित हो रहे हैं। सर्दी, गर्मी, बरसात के अहसास से वंचित हो रहे हैं। उनकी महत्ता से भी उनकी संवेदनशीलता हटती जा रही है। कहानियों का कथ्य इस रूप में भी बदलना होगा।
इंटरनेट ने परंपरागत ज्ञान और अनुभव के हस्तांतरण की प्रक्रिया को भी धक्का पहुंचाया है। हर बात के लिए, हर सूचना के लिए गूगल पर निर्भरता ने समझ और याददाश्त को भी मंद किया है। इस पर भी बाल साहित्यकारों को ध्यान देना होगा।
डिजीटल दुनिया ने पत्र लेखन और पत्र वाचन को बच्चों की दुनिया से बाहर कर दिया है। मेल और एसएमएस अपनी जगह सुविधाजनक हैं। लेकिन परंपरागत तरीकों के साथ जो भाव थे, वो आज मर गए हैं। नए और पुराने के मध्य रिश्तों को भी रेखांकित करना होगा। कैलकुलेटर से गणना करना और मौखिक पहाड़ों से आम जीवन का हिसाब किताब करने में क्या अंतर है। ऑटोमैटिक हल और माथापच्ची कर हल करने के मध्य जो अनुभूति है, उस पर भी बालसाहित्य लिखा जाना आज की आवश्यकता है।
समय के साथ-साथ चीज़ें बदलती हैं। आज के बच्चे बस्ते के बोझ तले दब गए हैं। वह अंकों की दौड़ में तो आगे हैं, लेकिन जीवन के अनुभव से बेहद दूर होते जा रहे हैं। वह भले ही सौ में से नब्बे अंक ला रहे हैं। लेकिन जीवन की पढ़ाई में वह लगातार पिछड़ रहे हैं। आज के बच्चे प्रकृति से दूर हो रहे हैं। खेल-खिलौने बदल गए हैं। हाई टैक की दुनिया में अधिकतर समय देने से उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता भी कम हो गई है। फास्ट फूड ने बच्चों की नज़रें भी क्षीण कर दी हैं।
बच्चों में एकाग्रता भी कम हो रही है। सुनने, समझने, पढ़ने और लिखने के प्रति लगाव भी कम होता जा रहा है। माता पिता के पास समय नहीं हैं। एकाकी परिवार के चलते दादा-दादी और नाना-नानी का अनुभव बच्चों से कोसों दूर हो गया है। जंगल दूर चले गए हैं। आस-पड़ोस और नाते-रिश्तेदारी सिमट गई है। भूत और वर्तमान के साथ बच्चों के भविष्य में भी झांकना होगा।
अब तक का बाल साहित्य
बाल साहित्य ही है जो बहुत हद तक नई सूचना तकनीक के चलते बच्चों की सृजनशीलता और काल्पनिकता को बचाए और बनाए रख सकता है। लेकिन बाल साहित्य उस तरह से नहीं बदल रहा, जिस तरह बच्चों की दुनिया बदल रही है। आज भी बच्चों के लिखी गई कहानियों में वह सब है, जो नहीं होना चाहिए। कुछ उदाहरण यह हैं।
कहानियों में बड़े बच्चों के साथ मारपीट करते हैं। उन्हें अपमानित करते हैं। उन्हें नादान और नामसझ मानते हैं।
बच्चे तो ऐसे ही बड़े हो जाते हैं। उन पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी जरूरतों पर खास ध्यान देने की जरूरत ही क्या है।
बच्चे तो कोरी स्लेट होते हैं। कहानियों में उपदेश,सीख और संदेश इसलिए दिये जाते हैं, ताकि वे आदर्श नागरिक बनें। अच्छा बच्चा बनें। अच्छा विद्यार्थी बनें।
बच्चे प्यार से नहीं फटकार से समझते हैं। अच्छी आदतों के लिए उनकी पिटाई भी जरूरी है।
घर के अन्य सदस्यों की बातें, समस्यायें महत्वपूर्ण हैं।घर परिवार और समाज में बच्चों को भी गिनना चाहिए। यह कहानियों में एक सिरे से गायब है।
ऐसी कहानियों का अभाव है, जिसमें शिक्षक बच्चों को आजादी देते हों। अधिकतर कहानियों में शिक्षक ऐसा पात्र बनकर उभरता है मानों बच्चों को ठोक-पीठ कर संस्कारित करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उसी की है।
ऐसी कहानियों की भरमार है जिसमें स्कूल का काम अक्षर ज्ञान देना है। बच्चों का काम पढ़ाई करना है। कक्षा में प्रथम आना ही सबसे बड़ा लक्ष्य है। ऐसी कहानियां खूब हैं जिसमें यह स्थापित किया जाता है कि अच्छे बच्चे वहीं हैं जो पढ़ाई में होशियार होते हैं।
ऐसी कहानियों का अभाव है जो यह स्थापित करती हों कि पास-फेल होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है साल भर में क्या सीखा? क्या जाना और क्या समझा? यह महत्वपूर्ण है।
अधिकतर कहानियां बच्चों में यह भावना भरने की कोशिश में दिखती हैं कि पढ़ोगे तो नौकरी मिलेगी, नहीं तो फिसड्डी रहोगे। ऐसी कहानियां कम ही हैं जो पढ़ाई को जीवन का हिस्सा मानती है। वे तो पढ़ाई को रोजगार और पैसा कमाने, डॉक्टर,इंजीनियर बनाने का औजार है।
बच्चों में उत्साह, साहस और मानवीय गुणों का संचार करने वाली कहानियों से अधिक अधिकतर कहानियां बच्चों को आज्ञाकारी, शांत स्वभाव, रोज सुबह उठना, रोज स्कूल जाना जैसी आदतों पर केंद्रित हैं।
आज भी कई कहानियां लड़कों और लड़कियों के काम गिनाने लगती हैं। बच्चों को बच्चा मानना से अधिक बच्चों में लड़का और लड़की को अलग-अलग रेखांकित करने वाली कहानियां ही ज्यादा पढ़ने को मिलती हैं।
एक था मोटू एक था छोटू। एक पढने में होशियार तो दूसरा बुद्धू। आरंभ ही तुलनात्मक। भाईयों में। बहिनों में। मज़ा चखाने वाली कहानियां। उसने ईंट का जवाब पत्थर से दिया, साबित करने वाली कहानी। धोखा देने वाले को चतुराई से धोखा देने वाला पात्र हीरों बनकर उभरता है।
पुरुषवादी सोच, मुखिया, जो बड़ों ने कह दिया, वही अच्छा है। वही सही है। इन्हें पुष्ट करने वाली कहानियां खूब प्रकाशित हो रही हैं।
जो बच्चे मेहनत करते हैं, सफलता उन्हें ही हाथ लगती है। जो बच्चे आलसी होते हैं, उनका नाश होना तय है। असल में स्थिति कुछ ओर है। मेहनत तो मजदूर करते हैं। वे भी ताउम्र अभाव में ही रहते हैं।
शहर वाले होशियार और गांव वाले अनपढ़,अज्ञानी और बेवकूफ। शहर से आने वाला एक ही दिन में गांव वालों का जीवन बदल देता है। इस सोच की कहानियों का अंबार है।
जो बच्चे घर में भी और स्कूल में भी काम करते हैं। बड़ों का कहना मानते हैं, वह बच्चे अच्छे होते हैं। बचपन में कष्ट सहने वाले ही कामयाब होते हैं।
बच्चों में छोटों के प्रति प्यार और बड़ों के प्रति आदर का भाव महत्वपूर्ण है। सही-गलत का अंतर करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है।
कई कहानियां बच्चों की मासूमियत को खूबी के तौर पर नहीं बल्कि मखौल उड़ाने की शैली में छपती हैं। यह कहानियां बड़ों के चेहरे पर मुस्कान तो ला सकती है। लेकिन बच्चों को कैसा लगता होगा? इस पर रचनाकार नहीं सोचते। यह ठीक उसी प्रकार से है कि किसी बच्चे के बचपन में उसके नग्न फोटो बार-बार उसके बड़े होने के बाद भी दिखाई जाए।
अधिकतर कहानियां आदर्शवादी समाज बच्चों के सामने परोसने की कोशिश करती नज़र आती है। यथार्थ में ऐसा है नहीं। फिर ऐसी कहानियां बच्चे क्यों कर पसंद करेंगें?
बाल साहित्य से उम्मीदें
यह कहना गलत न होगा कि बाल साहित्य के प्रति संवेदशीलता का प्रायः अभाव आज भी दिखाई देता है। प्रकाशक क्या और संपादक क्या। पत्र क्या और पत्रिकाएं क्या। रचनाकार भी इससे अछूते नहीं हैं। बालसाहित्य की आज जो स्थिति है, उसके लिए यह सब जिम्मेदार हैं। खुद को बालसाहित्य के पुरोधा कहलवाने वालों ने इसे सम्मानजनक स्थिति में पहुंचाने के लिए कुछ ठोस काम भी नहीं किए।
आज स्थिति और भी बदतर है। जहां साहित्य में किसी भी अखबार में दो कालम में प्रकाशित रचना का पारिश्रमिक एक हजार रुपए से कम नहीं है। वहां बाल साहित्य को छापने वाले अधिकतर पत्र और पत्रिकाएं रचनाकारों को मानदेय क्या, मानद प्रति भी नहीं भिजवाते। रचनाकारों की स्थिति यह है कि वह प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में न छप पाने से इतने कुंठित हो जाते हैं कि मिशनरी भाव के नाम पर खड़े पत्र-पत्रिकाओं की सदस्यता भी लेते हैं और उन्हें थोक में रचनाएं भेजते रहते हैं। दर्जन भर पुस्तकों के कथित बालसाहित्यकार संपादकों को अपनी पोथियां यह कहकर भेंट करते हैं कि समय-समय पर रचनाओं को छापते रहिए। बदले में हमें कुछ नहीं चाहिए। सोचना होगा कि क्या इस तरह की सोच से बाल साहित्य का भला होगा?
क्या इससे पाठकों के मध्य श्रमसाध्य से लिखी रचनाएं पहुंचेंगी? बालमन की कसौटी पर खरी उतरने वाली रचनाओं के अभाव में बालमन भी बालसाहित्य से दूर होता जा रहा है। कई कारणों में एक बड़ा कारण यह भी है। अव्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं की पहुंच भी एक बडा कारण है।
फिलहाल यहां विषय अत्याधुनिक समय में कहानियों की प्रकृति पर है। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा है, ऐसा भी नहीं है। बालमन को छूती भावपूर्ण, मनोरंजनात्मक और आधुनिक समय के लिए जरूरी भाव बोध वाली कहानियां भी पढ़ने को मिलती हैं। कुछ कहानियों का संक्षेप में चर्चा करना जरूरी है।
गायब चोर’ कहानी अनुराग शर्मा की है। शहर में चोरियां बढ़ रही हैं। सी॰सी॰कैमरे में चोरी होती दिखाई तो देती थी, लेकिन चोर नहीं दिखाई देता था। गायब चोर को पकड़ने में कुछ बच्चे पुलिस की मदद करते हैं। प्रकाश आधारित विज्ञान के सिद्वांत से यह समझ में बात आ जाती है कि से प्रसिद्ध वैज्ञानिक चोर को पकड़ लेते हैं। वैज्ञानिक एक ऐसी चादर का निर्माण कर लेता है, जिसे ओढ़ने पर वह गायब-सा दिखाई देता है। यही कारण है कि वह सी॰सी॰ कैमरे में नहीं आ पाता। लेकिन बच्चों से दो महीने से आए इस वैज्ञानिक ने अपने आविष्कार के बारे में चर्चा कर ली थी। यही चर्चा और बच्चों से संवाद के कारण वह पकड़ा गया। ‘लौटी खुशी’ कहानी डॉ॰दर्शन सिंह आशट की है। यह कहानी गप्पू और उसके दो खिलौने टैडी बीयर और बार्बी गुडि़या के आस-पास घूमती है। गप्पू दोनों खिलौने से खेलता है। लेकिन बार्बी गुडि़या टैडी बीयर को भला-बुरा कहती है और खुद को बेहद सुंदर बताती है। नाराज होकर वह नाचना छोड़ देती है। गप्पू भी उसे जूतों के साथ एक कोने में फेंक देता है। बार्बी को अहसास होता है कि यह तो उसने गलत कर दिया। वह सोचती है कि उसने टैडी बीयर का दिल दुखाया है और नाराज होकर मैंने अपना ही नुकसान कर लिया है। क्यों न मैं अपना व्यवहार बदलूं। यदि मैंने नाचना शुरू नहीं किया तो गप्पू मुझे कबाड़ में दे देगा। कोई संदेश नहीं। बेजान चीजों का इस्तेमाल कर भी मानव व्यवहार क्या हो, पर आधारित ये सफल कहानी है।
‘दोस्त एलबोट्स’ कहानी पद्मा चौगांवकर की है। यह कहानी एलियर एलबोट्स की है। यह दूसरे ग्रह से आया है और जंगली जानवरों से बात कर रहा है। वह केवल 13 घंटे के लिए धरती पर आया है। उसके ग्रह वालों ने उसे पृथ्वी का अध्ययन करने के लिए भेजा है। जंगल में बेहद गर्मी है। पानी की किल्लत है। वह बताता है कि आखिर पानी कम क्यों हो रहा है। गरमी लगातार बढ़ती क्यों जा रही है। भले ही इसे सूचनात्मक कहानी कहा जा सकता है लेकिन यह बच्चों को नए पात्र के रूप में पसंद आएगी। बच्चों में नए ग्रह के प्राणी के बारे में जानने की उत्सुकता बनी रहती है। भले ही इस कहानी के माध्यम से पेड़,बारिश,जल की महत्ता को फोकस किया गया है। परंपरागत रचनाकार इसे उपदेशात्कम कहानी बना देता। अजगर हुआ पंक्चर’ कहानी विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी की है। इस कहानी में अजगर के स्वभाव को बताया गया है। अजगर विषैला होता ही नहीं है। वह तो अपने शिकार को दबोचता है और फिर उस पर फंदे की तरह उस पर लिपट जाता है। उसकी पकड़ कसती चली जाती है,परिणामस्वरूप दम घुटने से शिकार मर जाता है। लेकिन जंगल के छोटे जानवर सेही के कांटों से अजगर जो हवा भरकर अपने शरीर को फुलाता चला जाता है, इस बात के जानकार पशु उसमें सेही के कांटे चुभा-चुभाकर उसे पंक्चर करते चले जाते हैं। परिणाम यह होता है कि वह कछुआ पर अजगर अपनी पकड़ ही नहीं बना पाता। यह कहानी भले ही पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर बुनी गई है लेकिन बच्चे इस कहानी को पढ़ते हुए आनंद भी लेंगे और अजगर के बारे में रोचक ढंग से जानकारी भी जुटा लेंगे।
मैथ्स से डरना क्या’ कहानी आलोक पुराणिक की है। कक्षा 9 की इरा मैथ्स में 60 मार्क्स लाई है। घर में तूफान मच गया है। मम्मी है कि इरा को इंजीनियर बनाना चाहती है। पापा सपोर्ट कर इरा को इतना तो समझा ही लेते हैं कि दसवीं तक तो मैथ्स मन लगाकर पढ़ लो। आगे भले ही मैथ्स मत लेना। इरा ने जमकर मैथ्स में ध्यान लगाया। अभ्यास किया। इरा को जल्दी ही पता चल गया कि वह बेकार मंे ही मैथ्स को लेकर टेंशन में थी। दबाव से उसे मैथ्स से चिढ़ हो गई थी, लेकिन अब उसे आनंद आने लगा। दसवी का रिजल्ट आया तो इरा 100 में से 100 अंक ले आई। सब खुश थे। इरा भी हैरान थी कि जो सब्जेक्ट उसे नापसंद था, वह उसी में विजयी हो गई। इरा जब इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर आई तो पापा ने हंसते हुए कहा-‘‘मैथ्स से परे भी जिंदगी में बहुत कुछ है, पर जो दिल से मैथ्स का डर निकाल देता है, उसे मैथ्स से आसान कुछ भी नहीं लगता।’’
बाल साहित्यकारों से
सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो हर कहानी मनोरंजन के साथ कुछ निहित उद्देश्यों की पूर्ति करती है। लेकिन आज भी तमाम कहानीकार हर कहानी में बच्चों को अच्छा बनाने की फिक्र में लगे हैं।
आदर्शवादी समाज ही अधिकतर कहानियों में दिखाई देता है। यदि आदर्शवादी कहानियों से बच्चों का भला होना होता तो पिछले 100 सालों में सैकड़ों कहानियों का असर दिखाई देता। फिर? सीख,संदेश और मानवीय गुणों की घुट्टी अप्रत्यक्ष तौर पर आए, न कि स्थापित करते हुए, पात्रों के माध्यम से ठूंसा जाए।
आज बच्चों के पास मनोरंजन के कई साधन हैं। कार्टून फिल्में हैं। मोबाइल है, चैनलों की भरमार है। इंटरनेट है। वीडीयों गेम्स हैं। कलरफूल एक्सरसाइजेस किताबें हैं। ऐसे समाज में बाल कहानियां क्यों नहीं अपना ट्रेंड बदलें?
क्या आज भी बाल कहानियां सूचना और ज्ञान देने को आतुर हैं? आज भी क्यों हमारी बाल कहानियां बच्चों से हर अच्छी बातों की उम्मीद करते हैं? आज भी हमारी बाल कहानियां ये क्यों कहती नज़र आती है कि एक था गंदा बच्चा। एक था शरारती। शैतान। एक बच्चा था जो देर से उठता था। एक बच्चा था जिसकी राईटिंग बहुत अच्छी थी। सब उसे अच्छा मानते थे। कुछ खास लक्षणों वाले बच्चों को अच्छा बताना और अधिकतर बच्चों को नाकारा मानना बच्चों के साथ एक तरह की मानसिक हिंसा है।
आज भी बच्चे जंगल बुक को पसंद करते हैं। गुलिवर की कहानियां भी और पंचतंत्र की भी। लेकिन यह एक खास वर्ग के बच्चों तक ही सीमित है। पांच साल के बाद आज का बच्चा धीरे-धीरे यथार्थपरक सामग्री चाहता है। वह कहानियों पर सवाल उठाता है। हम बच्चों के हर सवाल का जवाब देने से यह कहकर नहीं बच सकते कि कहानी है। कहानी में सब कुछ हो सकता है। कुछ हद तक यथार्थ, काल्पनिकता, अतिकाल्पनिकता और अकल्पनीयता में हमें अंतर करना होगा।
आज की कहानियों में मनोरंजन को हाशिए पर रखना ठीक न होगा। बेसिर-पैर की कथावस्तु भी नहीं चलेगी। कहानी में उद्देश्य निहित हो, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन वह कहानी को पढ़ते-पढ़ते दिखाई दे, इससे अच्छा है कि वह कहानी को पढ़ लेने के बाद विचार करने पर उभरे।
कल और आज के देशकाल से इतर बच्चों को भविष्य की कहानियां ज्यादा पसंद आएगी। यह चुनौतीपूर्ण है। समर्थ रचनाकारों को भविष्य की कहानियां अब लिखनी ही हांेगी। कल जो नया था, आज पुराना हो गया है। आज जो नया है, वो कल पुराना हो जाएगा। जीवन का यही नियम है। बाल साहित्य कल,आज और कल तीनों में सामंजस्य रखे। पुराने भावों, लक्षणों, ठोस जीवन पद्वतियांे-मान्यताओं का भी उल्लेख किया जाना जरूरी है, लेकिन नई पीढ़ी के विकास के लिए क्या दिया जाए, यह सोचना बालसाहित्यकारों का धर्म है। युद्ध ऐसे हुआ। इस पर बात करने से अच्छा है कि युद्ध होने से जो नुकसान हुए हैं और युद्ध का परिणाम क्या हुआ पर बात हो।
बच्चों में व्यक्तिवादी सोच से इतर सामूहिकता का भाव स्थाई हो, मानवता, नैतिकता,सामुदायिकता,सहयोग का भाव स्थाई हो, इसके लिए भी बाल साहित्यकारों को सोचना होगा। जीवन और मरण के कटु सत्य में इंसान के जीवन की सार्थकता किसमें हैं, इस पर नए भाव बोध की कहानियों का पढ़ा जाना अभी शेष है। आज धर्म-जाति आधारित दुनिया नहीं इंसानियत आधारित दुनिया का महत्व है। इस पर कहानियां हों।
आजादी से पहले हम क्या थे?आजादी हमने कैसे पाई ? यहां तक तो ठीक है। लेकिन क्या होगा यदि हम गुलाम हो जाएंगे? इस भाव पर बाल साहित्य नहीं होना चाहिए? आज धन-बल, स्टेट्स मुख्य हो गया है। लेकिन सुई का भी महत्व है, यह नए संदर्भ में क्यों न आए? ललित कलाओं के साथ-साथ खेल,संगीत का महत्व है, लेकिन पढ़ाई-लिखाई न करने से क्या-क्या परिणाम भविष्य में हो सकते हैं, इस पर नए संदर्भों के साथ नई कहानियों का लेखन अब जरूरी है।
सन्दर्भ:
एन॰सी॰ई॰आर॰टी॰ की प्राथमिक विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकें, उत्तराखण्ड और उ॰प्र॰ की पाठ्य पुस्तकें आदि।
आजकल,नया ज्ञानोदय,साक्षात्कार,मधुमती,साहित्य अमृत आदि पत्रिकाओं के बाल साहित्य विशेषांक।
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