काश! जीवन का भी कोई बैकस्पेस बटन होता। मैं उसे दबाए रखता। तब तक दबाए रखता जब तक जीवन का टेक्स्ट कर्सर मुझे मेरी आठवीं कक्षा तक नहीं पहुँचाता। मैं फिर से जीना चाहता हूँ। वह, जिस दिन सालाना परीक्षा के बाद मैं देर सुबह तक सोया हुआ था। मैं वहाँ पहुँचकर फिर से सो जाना चाहता हूँ।
मुझे छुट्टियाँ बहुत प्यारी लगती थी। माँजी बताती है कि मैं हमेशा पूछता था-‘‘सन्डे कब आएगा?’’ यह तब की बात है, जब मुझे यह भी पता नहीं था कि सन्डे कितने दिनों के बाद आता है। जब होश संभाला तो पता चला कि स्कूल सन्डे के अलावा भी बन्द रहता है। गर्मियों की छुट्टियों में। सर्दियों की छुट्टियों में। दशहरा, दीवाली और होली की छुट्टियों में भी स्कूल में छुट्टी रहती है। मैं सालाना परीक्षा आते ही खुश हो जाया करता था। परीक्षा के ढेर सारी छुट्टियाँ मिलती थीं। इन छुट्टियों में खूब खेलने-कूदने की छूट रहती थी।
सालाना परीक्षा के दौरान ही हम दोस्त बहुत सारी मस्ती की योजना बना लिया करते थे। फागुन में जंगल बुराँश से लाल हो जाया करता था। हम दोस्त बुराँश के फुल की पँखुड़ियाँ भी सबसे विशालकाय पेड़ की खाया करते थे। माज़िद घर से पिसा हुआ हरा नमक लाया करता था। हींग, पुदीना, हरा धनिया, काला नमक के साथ जीरा उसमें मिला हुआ होता था। परीक्षा चल रही थी। मैं कई बार मुस्करा चुका था। मन रोमांच से भरा हुआ था। मस्ती और शरारत की योजनाएँ दिमाग में कुलबुला रही थी। छुट्टियाँ मुझसे छीन ली जाएँगी। इसका आभास तक नहीं हुआ।
परीक्षा खत्म हो गई। छुट्टी का पहला दिन था। मैं देर से उठा तो पिताजी ने कहा-‘‘कल से भगत सुनार के यहाँ बैठेगा। वहाँ काम सीखेगा।’’ पिताजी से आँखें मिलाने का साहस मुझमें नहीं था। मैंने मौका पाते ही माँजी से कहा-‘‘मैं किसी सुनार-फुनार की दुकान में काम नहीं करुंगा। मुझे पढ़ना है। पढ़-लिख कर नौकरी करनी है।’’ पिताजी ने सुन लिया था। दूर से ही बोले-‘‘इसे कह दो। कल से जाना है, तो जाना है। सुनार आदमी ही होते हैं। अरे! हाथ का हुनर जान लेगा तो आदमी बन जाएगा। इसका अपना काम होगा। किसी की चाकरी करने से लाख भला है।’’
माँ चुप रही। सुबह का कलेवा क्या और दिन का दाल-भात क्या। मैंने बुझे मन से खाया था। शाम होते ही भूख पेट में आग लगा रही थी। रात का खाना भर पेट खाया। यह रात थी कि जाग ही रही थी। मैं उस रात खूब रोया था। रात भर सोया नहीं था। अन्य दिनों की अपेक्षा ये सुबह जल्दी जाग चुकी थी। मैं उठा। रसोई से चूल्हा झाँक रहा था। माँजी रोटी बना चुकी थी। रोटियाँ मेरे लिए बाँध दी गई थीं। पिताजी मुझसे पहले ही तैयार हो चुके थे। पिताजी आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे। लम्बी चुप्पी हम दोनों के साथ-साथ चल रही थी। हम दोनों भगत सुनार की दुकान की ओर बढ़ रहे थे। मैंने खुद को मना लिया लिया था।
मैं सोचने लगा-‘‘छुट्टियाँ हैं, तो क्या हुआ। ये खत्म भी हो जाएँगी। छुट्टियों के बाद दर्जा नौ में एडमिशन लेते ही सारी मौज-मस्ती की कसर पूरी कर लूंगा।’’ सुनार के यहाँ एक-एक दिन गिन-गिन कर काटा। मेरे उदास कदम बमुश्किल सुनार की दुकान में जानेे को तैयार होते। पाँच बजते ही सुनार मुझे घर जाने के लिए कह देता था। मैं अँधेरा होने से पहले गाँव की चौपाल पर पहुँचने की कोशिश करता। घर पहुँचने के लिए मेरे कदमों में तेजी आ जाती। पैर हवा से बातें कर रहे होते। सहपाठियों का साथ पाने को आतुर में उछलता-भागता घर पहुँचता। खाने की पोटली एक ओर फेंकता। हाथ-मुँह धोता। पलक झपकते ही मेरे पाँव मुझे गाँव की चौपाल पर ले जाकर खड़ा कर देते।
आखिर कोई पत्थर किसी का जीवन कैसे बदल सकता है? एक पत्थर अँगुलियों में पहनने से ही कोई कैसे मर सकता है! वही पत्थर दूसरे व्यक्ति को कैसे लाभ पहुँचा सकता है? कोई पत्थर जीवन की दिशा और दशा बदल देता है तो उस्तादजी के हाथों की अँगुलियाँ सूनी क्यों है?
मेरे दोस्त मुझे दिन-भर के किस्से सुनाते। दोस्तों से पता चलता कि उन्होंने आज सेंटुली के अंडे देखे। पता चलता कि आज उन्होंने जंगली मुर्गों के ठिए देखे। वे बताते कि घुघुती का अंडा घेंडुली से बड़ा होता है। मैं मन मसोस कर रह जाता। रात घिर जाने तलक मैं दोस्तों से जी-भर कर बातें कर लेता। घर लौटते समय मेरे कदम फिर उदास हो जाते। मुझे लगता कि किसी ने मेरे पैरों में दस-दस किलों के बाट रख दिए हों।
घर लौटते समय मेरे कदम फिर उदास हो जाते। मुझे लगता कि किसी ने मेरे पैरों में दस-दस किलों के बाट रख दिए हों।
चार-पाँच दिन ऐसे ही बीत गए। चौपाल में दोस्तों के किस्सों में हर रोज़ कुछ न कुछ नया सुनने को मिलता। दोस्तों को भी मुझसे भगत सुनार की दुकान के किस्सों में दिलचस्पी होने लगी थी। सोना-चाँदी की बातों मंे उन्हें मज़ा आने लगा था। दिलचस्प बात यह थी कि सोना-चाँदी के बारे में मुझसे ज्यादा जानकारी मेरे दोस्तों के पास थी। अब मुझे लगने लगा था कि भगत की सुनार कोई साधारण दुकान नहीं है। इस काम मंे कुछ खास है। उस रात चौपाल से घर लौटा तो सोचता रहा। रात-भर खुद से बातें की। खुद को अपना निर्णय सुनाया-‘भगत सुनार की दुकान पर मन लगाकर काम करना चाहिए। अब एक-एक बात पर ध्यान देना है।’
सुबह हुई। मैं समय से पहले तैयार हो गया। आज मेरे कदम मुझे जल्दी-जल्दी दुकान की ओर धकेलते चले गए। आज पहली बार मेरे मन ने मुझे टोका-‘मन लगाकर काम कर।‘ मैंने हर छोटे-बड़े काम में दिलचस्पी ली। हर ग्राहक के आने के कारणों पर ध्यान दिया। जेवरों के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाने की कोशिश की। फिर एक दिन माँजी ने मुझसे हँसते हुए कहा-‘‘भगत सुनार बता रहे थे कि लड़का होशियार है। जल्दी काम सीख लेगा।’’ मैं चुप रहा।
मैं तो स्कूल खुलने का इंतज़ार कर रहा था। स्कूल आने-जाने का समय और स्कूल का मैदान मुझे बहुत याद आ रहा था। इन दिनों मैं देर शाम घर लौट रहा था। छुट्टियों में की जाने वाली दिन भर की मस्ती छूटने का दुख मुझे बहुत था। मैं हर शाम दोस्तों से जरूर मिलता। मैं भगत सुनार की दुकान में पूरे मनोयोग से काम सीख-समझ रहा था। अब मेरे पास सुनार की दुकान के जानकारी भरे किस्से जमा होने लगे।
एक दिन की बात है। दुकान पर एक चन्दोलाजी आए। उस्तादजी ने तिजोरी से एक डिबिया निकाली। ग्राहक का दायाँ हाथ पकड़ते हुए कहा-‘‘चन्दोला जी। ये ऐसा-वैसा पत्थर नहीं है। नीलम है। ये तुम्हारा शनिचर उतार देगा।’’ मैं चौंका। मुझे उस्ताद जी की बातें रहस्यपूर्ण लगी। चन्दोला जी जाने-माने व्यापारी थे। सिर के कुछ बाल सफेद होने लगे थे। उनके गले में सोने की चैन, दाँयी कलाई पर सोने का कड़ा, हाथों की अधिकतर अँगुलियों में सोना-चाँदी की अँगुठियाँ चमक रही थीं। चन्दोलाजी की नाक पर टिके चश्मे के भीतर की आँखों में चिन्ता और डर के भाव थे। उस्ताद बोले-‘‘चन्दोलाजी। मैं जानता हूँ। आपको चारों ओर से निराशा ही हाथ लग रही है। आप थक-हार कर नीलम को खोजते हुए यहाँ आए हैं। परखने में क्या जाता है। यदि लाभ देता महसूस होगा, तो सोने की अँगूठी में जड़ दूँगा। फिलहाल काले धागे के साथ बाँह में बँधवा लो।’’
चन्दोलाजी नीलम बँधवा कर चले गए। उस्तादजी मेरी आँखों में उठे सवालों को देख चुके थे। बोले-‘‘पत्थरों की भी अलग दुनिया होती है। हीरा, पुखराज, माणिक, पन्ना, मूँगा, मोती, गोमेद, लहसूनिया और नीलम। इन पत्थरों पर लोगों का अटूट विश्वास होता है। अब चन्दोलाजी को ही देख लो। नीलम की खोज में यहाँ तक आ पहुँचे। अरे! नीलम हर कोई नहीं रखता। शनिचरी जो होता है। अब अगर चन्दोलाजी को वो नीलम फब गया तो चाँदी ही चाँदी है। उस छोटे से पत्थर की क्या कीमत रही होगी? अरे ! खरीद ही चालीस हजार की है। चन्दोला जी से पूरे पचास हजार लूँगा! दस हजार रुपए वो तेरे सामने पेशगी दे गए हैं।’’
मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। आज पहली बार मैंने दस हजार रुपए की गड्डी देखी थी। पाँच सौ और एक हजार के नोट भी मैंने उस्तादजी के पास ही देखे थे। हर गड्डी में एक सौ नोट रखे जाते हैं। यह जानकारी मुझे नहीं थी। मैं इन रहस्यमयी पत्थरों के बारे में पूछता रहा और उस्तादजी मुझे इन बेशकीमती पत्थरों के बारे में बताते रहे।
मैंने पूछा-‘‘उस्तादजी। आप इन पत्थरों की जड़ी अँगूठियाँ क्यों नहीं पहनते?’’ उस्तादजी हँसते हुए बोले-‘‘घोड़ा घास से दोस्ती करेगा, तो खाएगा क्या? ये पत्थर तो उनकी किस्मत बदलते हैं, जिन्हें किस्मत पर भरोसा होता है। बच्चे। हम लोगों का भाग्य तो कर्म है। अब बता। यदि मैं इस गद्दी पर न बैठूँ तो ग्राहक आ जाएँगे? नहीं न? अच्छा चल। ये ले। दो सौ रुपए। आज अपने घर कुछ मीठा लेकर जाना।’’
दो सौ रुपए! मैं एक नहीं दो गुड़ की भेली खरीदकर घर की ओर चल पड़ा। सौ रुपए बचे थे। मैं तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा। उस्तादजी की कही गई बातों में एक बात मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। ‘पत्थर’ किसी का भाग्य बदल नहीं सकते। कुछ सवाल बार-बार हथौड़े की तरह मेरे दिमाग में वार कर रहे थे। लोग इन पत्थरों पर विश्वास करते ही क्यों हैं? ये पत्थर इतने मँहगे क्यों हैं? क्या गरीब आदमी भी इन पत्थरों पर विश्वास करते हैं?
दो दिन बाद चन्दोला जी चल बसे। रात को भोजन किया था। सुबह खाट पर सोए ही मिले। उस्ताद जी सिर पकड़ कर बैठे हुए थे। मुझसे बोले-‘‘सुन। नीलम वाली बात किसी से न कहना। जो नुकसान हुआ, सो हुआ। वो पत्थर तो खूनी निकला। खूनी नीलम। सुन रहा है न तू?’’ मैंने गले का थूक घूँटते हुए हाँ में सिर हिलाया था। मैं बुरी तरह से डर गया था। तो क्या चन्दोलाजी की जान नीलम पत्थर ने ली थी? क्या कोई पत्थर किसी की जान ले सकता है? मैं यही सोच रहा था।
उस्ताद जी को गहरा झटका लगा था। चालीस हजार रुपए का नीलम जो था। कहाँ तो दस हजार रुपए का शुद्ध मुनाफा सोच रहे थे। अब असल के तीस हजार डूबने की चिन्ता सता रही होगी। उससे अधिक चिन्ता इस बात की थी कि कहीं चन्दोलाजी का परिवार दुकान पर न आ धमके। जीने-मरने की बात होगी। दुकान की साख पर बट्टा न लग जाए। यह ऐसी बात थी कि किसी को कह भी नहीं सकते थे। चन्दोलाजी की तेरहवीं में उस्ताद जी डरे-सहमे चले तो गए थे। बुझे मन से वापिस दुकान पर लौट भी आए थे। मैं भी इतनी हिम्मत नहीं बटोर सका कि पूछूँ-‘‘उस्तादजी चालीस हजार रुपए का क्या हुआ?’’
तेरहवीं के दूसरे दिन ही चन्दोलाजी का इकलौता बेटा दुकान पर आ गया। उसने पूछा-‘‘भगतजी। पिताजी का कुछ लेन-देन तो नहीं था?’’ उस्ताद जी ने जवाब दिया-‘‘कोई बात नहीं। जो हुआ-सो हुआ।’’ वह बोला-‘‘कोई बात कैसे नहीं है। पिताजी की जेब में काले धागे के साथ एक पत्थर मिला था। माँजी ने बताया है कि वह आम पत्थर नहीं है।’’ भगतजी का चेहरा देखने लायक हो गया था। मैं कभी उस्ताद जी को तो, कभी चन्दोला जी के बेटे को देखता। उस्तादजी के माथे पर पसीने की बूँदें उग आई थीं। फर्श को घूरते हुए उन्होंने सारा किस्सा बता दिया। चन्दोला जी का बेटा बोला-‘‘भगत जी। ये नीलम आप ही रख लीजिए। पिताजी नहीं रहे। फिर भला इस नीलम का हम क्या करेंगे।’’
उस्तादजी झट से उठे। तिजोरी से रुपयों की एक गड्डी निकालते हुए बोले-‘‘बेटा। ये दस हजार रुपए हैं। चन्दोला जी ने पेशगी दिये थे।’’ चन्दोलाजी का बेटा हाथ जोड़कर खड़ा हो गया-‘‘भगतजी क्यों पाप चढ़ाते हो? पिताजी की आत्मा दुखेगी। मुझे तो सबसे पहले आपके चालीस हजार रुपए लौटाने हैं।’’ उस्तादजी बोले-‘‘बेटा ! कैसी बात करते हो? नीलम लौटा रहे हो और अपनी रकम भी वापिस नहीं ले रहे हो। उलटा और रुपए देने की बात कर रहे हो। बेटा। हम ग्राहक बनाते हैं, उन्हें खोते नहीं हैं। ये मुझसे न होगा। खबरदार। यदि ऐसी-वैसी बात कही तो। मुझे मुँह दिखाने लायक छोड़ोगे या नहीं?’’
चन्दोलाजी का बेटा कहने लगा-‘‘पिताजी की अकाल मौत हुई है। उनकी आत्मा तब तक भटकती रहेगी। यदि आपका बकाया नहीं लौटाया तो पिताजी की आत्मा शान्त नहीं होगी। चालीस हजार रुपए तो आपको लेने ही होगे। अन्यथा, मैं तो कभी भी पितृ ऋण से मुक्त नहीं हो पाऊँगा।’’ यह कहकर वह तेज कदमों से लौट गया। उस्तादजी ने मुझे देखा तो मैं उन्हीं की तरह फर्श को घूरने लगा। उस्ताद जी उठे। मुझसे कहने लगे-‘‘मेरी तबियत ठीक नहीं है। मैं जा रहा हूँ। दुकान समय पर ही बढ़ाना। चाभी अपने साथ लेते जाना। सुबह जल्दी आ जाना।’’
मैं घर लौटा। छुट्टियाँ खत्म हो रही थीं। मैं खुश था कि अब कक्षा नौ में एडमिशन होगा। रात को माँजी ने पिताजी से कहा। उन्होंने दो-टूक शब्दों में जान बूझकर चिल्लाते हुए कहा था-‘‘ये पढ़ाई-वढ़ाई से कुछ नहीं होगा। उससे कहो कि पीछे दो बहिनें भी हैं। उनके हाथ-पीले भी करने हैं। भगतजी की दुकान में चिपका रहेगा। स्कूल-विस्कूल भूल जा। मैं इस बारे में कोई चिक-चिकबाजी नहीं सुनना चाहता।’’ मैं रोया। गिड़गिड़ाया। भूखा रहा। लेकिन दूसरी सुबह ही पिताजी ने मेरे मुँह में एक लोटा पानी उड़ेल दिया। दरवाजे की ओर तर्जनी से इशारा किया। कहा,‘‘या तो वह कर जो मैं कह रहा हूँ या फिर दरवाज़ा खुला है।’’ घर से निकल जाने की बात मैं कैसे सोच सकता था! दो-चार दिन परेशान रहा। फिर उस्ताद जी का साथ कर लिया। घर से दुकान और दुकान से घर तक। यही मेरी दिनचर्या हो गई।
एक दिन की बात है। चन्दोलाजी का बेटा सुबह-सवेरे ही दुकान पर आ गया। वह एक कागज के मोटे लिफाफे में रुपए लेकर आया था। उस्तादजी इतना ही कह पाए-‘‘कभी भी कोई भी काम हो, किसी प्रकार की परेशानी हो। मुझे बताना। आते रहना।’’ वो चला गया। उस्ताद जी ने मेरी ओर देखा। कहा-‘‘ये दुनिया भी अजीब है। गँजे को नाखून नहीं मिला करते। जहाँ नाक है, वहाँ सोना नहीं है। अब चन्दोलाजी को ही ले लो। जान से भी गए। नीलम भी गँवाया। पचास हजार रुपए भी फूँक दिए। चलो अपना क्या है। हम कौन-सा किसी के घर में जाते हैं। जो भी आता है, खुद आता है। इन पत्थरों की भी अजीब माया है।’’
उस्तादजी बातों के धनी थे। साख भी अच्छी थी। दूर-दूर से ग्राहक आते थे। एक दिन एक ग्राहक आया। कहने लगा-‘‘भगत जी। मैं चन्दनदास आढ़ती हूँ। नीलम होगा? किसी का पहना हुआ नीलम चाहिए। मतलब उपयोग किया हुआ।’’ नीलम का नाम सुनकर मैं तो चौंक पड़ा। उस्तादजी ने चश्मा उतारा और काउण्टर पर रख दिया। ग्राहक की जाँच पड़ताल करने लगे। चन्दनदास आढ़ती ने बताया-‘‘मैं मेरठ से आया हूँ। अनाज का थोक कारोबारी हूँ। आपके लालाजी है न? अरे! वही ‘चाँदीवाले‘ उन्होंने भेजा है। वो कह रहे थे कि आपके पास मिल सकता है। कई सुनार नीलम नहीं रखते। एक लाख रुपए पेशगी ले लो, लेकिन नीलम मुझे दे दो। नफा-नुकसान की सारी जिम्मेदारी मेरी रहेगी। कल कोई परेशानी न हो, सो परिवार को भी साथ लाया हूँ। वे गाड़ी में बैठे हैं। कहो तो बुला लाऊँ? ’’
उस्तादजी के पैरों से मानो जमीन खिसक गई। चाँदी वाले लाला जी मेरठ के सर्राफ थे। दुकान में सोना-चाँदी का माल वहीं से आता था। लाखों का लेन-देन होता था। चन्दोलाजी वाली घटना उस्तादजी ने ही लालाजी को बताई थी। उस्तादजी ने एक गिलास पानी पिया। मुझे चाय लाने का इशारा किया। उस्ताद जी बोले-‘‘लालाजी ने सब कुछ बता तो दिया होगा न आपको? नीलम हर किसी को नहीं फ़बता। पुखराज ले जाओ। माणिक ले जाओ। पन्ना-मूँगा-मोती ले जाओ। क्यों आफत मोल लेना चाहते हो?’’
चन्दनदास आढ़ती बोला-‘‘अब आपको क्या बताऊँ। सेठ जी। मैं जीवन से निराश हो गया हूँ। थोक का पुश्तैनी काम था। पिछले दो साल से नुकसान ही नुकसान हो रहा है। शनिचर सिर पर आकर बैठ गया है। सारे जतन कर लिए हैं, कर्ज पर कर्ज चढ़ा जा रहा है। लेनदारी कहीं से भी वापिस नहीं आ रही है। जहाँ हाथ डाल रहा हूँ, वहाँ नुकसान हो रहा है। एक मशहूर पण्डित ने कहा है कि नीलम पहनो। ऐसा नीलम पहनो, जो किसी ने इस्तेमाल किया गया हो। अब आप ही बताओ। कोई अपने हाथ का नीलम मुझे क्यों देगा? सुना है आपके पास इस्तेमाल किया हुआ नीलम है। मैं जानता हूँ कि उसे पहनकर……। या तो नफा होगा या नुकसान। लेकिन इसके अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं है। आप चिन्ता न करें। सारी जिम्मेदारी मेरी रहेगी। चाहो तो लिखकर ले लो।’’
उस्तादजी ने मेरी ओर देखा। मैंने नज़रें झुका लीं। तब तक चाय आ गई। हम तीनों खामोश होकर चाय की चुस्कियों में एक खास किस्म की चिन्ता को पी रहे थे। चन्दनदास ने सूटकेस से एक थैला निकाला। थैले में एक लाख रुपए थे। उसने वह रुपए उस्तादजी को पकड़ा दिए। मैंने चन्दनदास की मध्यमा की नाम ली। नीलम को चाँदी की अँगूठी मे ंजड़वाकर चन्दनदास चला गया। उस्तादजी ने मुझे पाँच सौ रुपए का नोट दिया। कहा-‘‘जब से तू दुकान में बैठने लगा है। मेरे कई नए ग्राहक बन गए हैं। यदि ऐसे ग्राहक आते रहे, तो अपना बेड़ा पार हुआ समझो। जा। आज ऐश कर।’’
अब उस्ताद जी मुझे हर रोज पचास रुपए नकद देने लगे थे। तीज-त्योहारों में कपड़े खरीदकर दे देते। अक्सर मौसमी फलों की टोकरी घर भिजवा देते। समय बीतता गया। फिर वो दिन भी आया, जब मुझे तीप हजार, फिर छह हजार और फिर दस हजार रुपए तनख्वाह मिलने लगी। मैंने कुछ नथ और हार के नये डिज़ाइन बनाए। वे खूब चले। मेरे बनाए डिजाइनों मांग बढ़ने लगी। उस्तादजी ने मुझे एक महीने के लिए मेरठ भेजा। मैंने वहाँ जेवरों के ले-आउट की बारीक तकनीकी जानकारी हासिल की। नए डिज़ाइनों से काम ओर बढ़ने लगा। मुनाफा-दर-मुनाफा बढ़ता गया। मुझे भी तरक्की मिलती चली गई। अब उस्तादजी ने मेरा कद बढ़ा दिया था। मैं उनके ठीक सामने की गद्दी पर बैठने लगा था। अब ग्राहकों से सीधी बातचीत मैं भी करने लगा था। एक दिन वो भी आया जब सोना-चाँदी का उतार-चढ़ाव, मांग-पूर्ति और ग्राहकों से लेन-देन का सारा काम उस्तादजी ने मुझे ही सौंप दिया।
एक दोपहर की बात है। एक अनजान ग्राहक दुकान में आया। उस्तादजी को देखकर कहने लगा-‘‘भगत जी नमस्कार।’’ भगत जी अखबार पढ़ रहे थे। चश्मा हटाते हुए बोले,‘‘नमस्कार जी। कहिए। क्या दिखाऊँ?’’
ग्राहक बोला,‘‘लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं?’’ एक बार फिर मैंने उस्ताद जी की ओर देखते हुए न में सिर हिलाया। थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा। उस्तादजी अमूमन अपने ग्राहकों को भूलते नहीं थे। मेरे सामने भी यह पहला मौका था, जब किसी ग्राहक ने अपनी पहचान जानने की इस तरह कोशिश की थी। ग्राहक बार-बार हम दोनों की आँखों में झांक रहा था।
ग्राहक ने कहा-‘‘मैं चन्दनदास आढ़ती। मेरठ से।’’
मैंने कहा-‘‘आप अनाज के आढ़ती हैं।’’
जवाब मिला,‘‘था। पर अब नहीं हूँ। भगतजी। वो नीलम मेरे लिए वरदान साबित हुआ। मैं यहाँ से नीलम पहनकर गया था। अगले ही दिन मुझे तीन राज्यों में अनाज भेजने का आर्डर मिला। एक सप्ताह में ही कई पुराने आढ़तियों ने नई फसल की मांग की। कारोबार चल पड़ा। आज तीन छोटे-छोटे कारखाने हैं। एक होटल हैं। कई दिनों से सोच रहा था कि आपसे मिलूँ। लेकिन फुरसत नहीं मिल रही थी। चार धाम यात्रा पर निकला हूँ। सोच कर ही चला था कि सबसे पहले आपसे मिलना है। ये मेरा कार्ड है। कभी मेरठ या दिल्ली आना हुआ तो जरूर फोन करना। मैं खुद लेने आ जाऊँगा।’’
मैं और उस्ताद हक्के-बक्के थे। चन्दनदास आढ़ती चला गया। अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया। आखिर कोई पत्थर किसी का जीवन कैसे बदल सकता है? एक पत्थर अँगुलियों में पहनने से ही कोई कैसे मर सकता है! वही पत्थर दूसरे व्यक्ति को कैसे लाभ पहुँचा सकता है? कोई पत्थर जीवन की दिशा और दशा बदल देता है तो उस्तादजी के हाथों की अँगुलियाँ सूनी क्यों है? मैं भले ही पढ़-लिख नहीं पाया। लेकिन उस्ताद जी की दुकान पर जीवन की पढ़ाई के पाठ खूब पढ़े। खूब सोना-चाँदी बेचा।
एक दिन वह भी आया जब पिताजी नहीं रहे। एक महीना मैं घर पर ही रहा। मैंने खूब सोचा। विचार किया। फिर लौटकर भगतजी के पास नहीं गया। एक दिन माँजी से कहा,‘‘मैं यह काम नहीं करूंगा।’’ माँजी ने कुछ नहीं कहा। भगतजी कई बार घर आए। मुझे समझाया। पगार दो गुनी देेने का वादा किया। लेकिन मैंने सुनार के काम से पीठ कर ली।आज मेरे पास चार खच्चर हैं। एक घोड़ा है। मैं उनके साथ नदी, गदेरे, जंगल, पहाड़ पार करता हूँ। नीला आसमान और खूब सारी धूप देखता हूँ। मुझे नींद अच्छी आती है। भूख भी खूब लगती है। सप्ताह में एक दिन पूरी छुट्टी करता हूँ। उस दिन मनमर्जी करता हूँ। कई बार मन में यह ख़याल तो आता ही है कि मैं स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाता। स्कूल की मस्ती का आनंद उठा पाता।
आज मेरे पास चार खच्चर हैं। एक घोड़ा है। मैं उनके साथ नदी, गदेरे, जंगल, पहाड़ पार करता हूँ। नीला आसमान और खूब सारी धूप देखता हूँ। मुझे नींद अच्छी आती है। भूख भी खूब लगती है। सप्ताह में एक दिन पूरी छुट्टी करता हूँ। उस दिन मनमर्जी करता हूँ। कई बार मन में यह ख़याल तो आता ही है कि मैं स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाता। स्कूल की मस्ती का आनंद उठा पाता। संगी साथियों के साथ छुट्टियों का लुत्फ़ उठा सकता !
काश! जीवन का भी कोई बैकस्पेस बटन होता। मैं उसे दबाए रखता। तब तक दबाए रखता जब तक जीवन का टेक्स्ट कर्सर मुझे मेरी आठवीं कक्षा तक नहीं पहुँचाता। मैं फिर से जीना चाहता हूँ। वह, जिस दिन सालाना परीक्षा के बाद मैं देर सुबह तक सोया हुआ था। मैं वहाँ पहुँचकर फिर से सो जाना चाहता हूँ।
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क: 7579111144
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कोई लौटा दे बचपन। समय हालत बचपन को लील डालती है । वास्तव मे मानव जीवन बाल्यकाल ही होता है। सुंदर चित्रण बदलते हुए लोग, पाखण्ड व्यापार और दम तोड़ती प्रतिभा !
शुक्रिया दोस्त !
ji shukriya
कहानी आपने अच्छी लिखी है. कम से कम आज पत्रिकाएं जैसी सामग्री छाप रही हैं, इसे लौटाना बनता नहीं. तो पहली बात तो यही कि पत्रिकाओं द्वारा अस्वीकृत रचना की कसौटी नहीं होती.
हाँ जो कुछ पढ़ते हुए महसूस हुआ उससे लगा कि जिस मासूम सी इच्छा को लेकर ( बचपन में लौटने की) कहानी शुरु की है, सुनार व रत्नों वाला प्रसंग रस दोष सा महसूस करा रहा है.उस प्रसंग की कहानी अलग से लिखें, इस कहानी में वह होना चाहिए जिसके कारण आप बचपन में लौटना चाहते हैं, जो अब नहीं है आपके पास.
यह मेरा विचार है. ज़रूरी नहीं कि आप उसे मानें ही. आप स्वयं एक प्रबुद्ध रचनाकार और अच्छे शिक्षक हैं.
ji shandaar sujhaav!
कहानी शुरू में बाँधती नहीं । उत्तरार्द्ध में जबरदस्त तरीके से बाँधती है और भरपूर मनोरंजन देती है । पर अंत निराश करता है ।
दरअसल कहानी की भूमिका इतनी लंबी दिखती है कि भूमिका और मुख्य कथ्य कहानी के पार्ट A और पार्ट B की तरह दिख रहे हैं ।
नायक अपनी मेहनत से इस मुकाम तक पहुँचा । भ्रष्टाचार / कुरीति / मान्यताओं आदि से पलायन ..नायक को कमज़ोर ही करता है।
फिर अल्पशिक्षित चरवाहे के मुँह से कर्सर .. बैकस्पेस आदि शब्द अतार्किक से लगते हैं ।
कहानी में लेखक की उपस्थिति दिखाई देती है और कथ्य के साथ घुल-मिल नहीं पाती।
आपकी टिप्पणी मेरे लिए आगे के लिए रास्ता खोलेगी।