हिन्दी बाल साहित्य में श्रीप्रसाद ज़रूरी हस्ताक्षर हैं। उन्होंने बाल साहित्य को परम्परा,भाव,बोध और आनंद के नाम पर उम्दा रचनाएं दी हैं। बाल साहित्य हमेशा उनके प्रति कृतज्ञ रहेगा। पद्य में उन्होंने विपुल रचनाएं सृजित की हैं। उन्हें पढ़ना और पढ़कर समझना अपने आप में श्रमसाध्य है। यहाँ कुछ बाल कविताएं पढ़कर उन्हें और साहित्य को समझने का आंशिक प्रयास किया गया है। प्रतिक्रियाओं का स्वागत रहेगा। -मनोहर चमोली ‘मनु’
साहित्य में बालमन के कुशल चितेरों में श्रीप्रसाद एक बड़ा नाम हैं। बच्चों के लिए बालसुलभ साहित्य की जब भी बात होगी, श्रीप्रसाद का नाम लिए बगैर अधूरी मानी जाएगी। श्रीप्रसाद ने मौसम, काल, धरती, आकाश, खिलौने, यंत्र, यातायात के साधन, ग्रामीण जीवन, शहरी जीवन, त्यौहार, जीव-जन्तुओं, पालतू पशुओं, उनके व्यवहार, बाल मन के संवेगों, मानवीय रिश्तों, खान-पान, स्वाद, पकवानों, राष्ट्रीय गौरव, अस्मिता, नागरिक बोध एवं मनुष्य की गरिमा, प्यार, दोस्ती, प्रकृति आदि को अपनी कविता का हिस्सा बनाया। साहित्य के अध्येता जब भी श्रीप्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि कैसे एक कलमकार अपने बचपन, बच्चों के बचपन और लोकजीवन को अपनी रचनाओं में शामिल करता है ! श्रीप्रसाद अपने समय के ही नहीं, समय से आगे चलने वाले कवि हैं।
यह सही है कि किसी भी कविता को महसूसते हुए कवि का देशकाल, परिस्थिति और वातावरण भी महसूसना होगा। हाँ, कई कविताएं ऐसी बन पड़ती है कि वे कल, आज और कल का पता नहीं देती। ऐसा लगता है कि आज ही रची गई हो। अभी रची गई हो। तभी तो वे पुराने समय के नये कवि कहलाते हैं। उनकी कई कविताओं में नयापन आज भी देखा जा सकता है। श्रीप्रसाद की कई कविताओं में पाठक को रचनाकाल में नहीं जाना पड़ता। ऐसा लगता है कि कवि ओर कविता जैसे आस-पास ही हैं। यह बड़ी नहीं, विशेष बात है। श्रीप्रसाद कभी भी कल के कवि नहीं माने जाएंगे। वह हमेशा आज के कवि माने जाएंगे। उन्होंने बड़ी ही सरलता से मेहनत की पुरजोर वकालत की है। बच्चों को यह नहीं कहा कि मेहनत करो। सफल हो जाओगे। आलस करोगे तो पिछड़ जाओगे। कमोबेश, नहीं कहा। सुबह को मेहनती बताया और बच्चों से ही पूछ लिया कि सोचो यदि सुबह ही आलसी हो जाए और प्रकट न हो तो?
रचना की सुन्दर पँक्तियाँ-
‘मेहनत सबसे अच्छा गुण है
आलस बहुत बड़ा दुर्गुण है
अगर सुबह भी अलसा जाए
तो क्या जग सुन्दर हो जाए’
यह कहना गलत न होगा कि श्रीप्रसाद समाज के साथ भी चलते रहे और समाज के आगे भी चलते रहे। उन्होंने जानदार रचनाएं देकर बालमन की बुद्धि को उर्वर बनाने के लिए अनुमान और कल्पना के साथ यथार्थ को समझने का चिन्तन भी दिया। कवि कविताएं हैं जो पढ़ते ही पता देती हैं कि वह श्रीप्रसाद जी की हैं। अनुमान और कल्पना को ऐसा आकार देना श्रीप्रसाद से सीखा जाना चाहिए।
कविता की कुछ पँक्तियाँ- ‘चरागाह हलवे का होता बड़ा मज़ा आता हर पर्वत बरफी का होता बड़ा मज़ा आता लड्डू की सब खानें होतीं बड़ा मज़ा आता दुनिया घर में पेड़े बोती बड़ा मज़ा आता’
श्रीप्रसाद ने अमूमन कविताओं में बालमन को ध्यान में रखा है। कई कविताएँ बच्चों के लिए लिखी गई हैं। कई कविताएँ बच्चों की ओर से लिखी गई हैं। बच्चों की ओर से लिखी गई कविताओं में कवि का स्वर नहीं दिखाई देता। यही कौशल उन्हें लीक पर चलने वाले कवियों से अलग करता है। बच्चों के खान-पान का पता रखना भी एक बड़ा काम हैं। भले ही यह बहुत ही पुरानी कविता है। चूरन आज नए तरीके से बच्चों के सामने आ गया है। पर चूरन के बहाने बच्चे जो चटपटी चीज़ें खाते हैं। इस कविता को पढ़ते समय बड़ों की लार भी टपकने लगती है। सीधें बच्चों के ख़्यालात पकड़ती इस कविता को पढ़ने का आनन्द ही कुछ ओर है-
‘बिल्ली बोली बड़ी जोर का मुझको हुआ जुकाम चूहे चाचा चूरन दे दो जल्दी हो आराम चूहा बोला बतलाता हूँ एक दवा बेजोड़ अब आगे से चूहे खाना बिल्कुल ही दो छोड़’
जब भारत आज़ाद हुआ तो श्रीप्रसाद किशोर हो चुके थे। उन्नीस सौ बत्तीस में जन्में श्रीप्रसाद के लेखन में जो विविधता दिखाई पड़ती है उसके मुख्य कारणों में आजादी से पहले का काल महत्वपूर्ण माना जाएगा। अंग्रेजी शासन अपने चरम पर था। ज़ाहिर है कि किस्से-कहानियों-लोरियों-बातों-मुलाकातों में वह दौर गहरे से मन में पैठा होगा। आजाद भारत का नवोदय और श्रीप्रसाद का युवा जीवन, सपनें, उमंगे और उस दौर की न्यून साक्षरता दर ऐसे कई कारण थे, जिसकी वजह से उनकी कविताओं का फलक भी बड़ा है। श्रीप्रसाद बिना अति आदर्श की चीज़ें प्रस्तुत करते हुए भी बच्चों की अवलोकन क्षमता को जगह देते हैं। बच्चे भी सब समझते हैं। बच्चे हम बड़ों का भी विश्लेषण करते हैं। यह उन्होंने बिना कहे ही इस कविता में बच्चों की ओर से हम बड़ों के लिए बड़ी रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है- ‘खाने को दो खीर कदम खाने को दो मालपुआ खाने को देना पेड़े माँग रही हैं बड़ी बुआ बड़ी बुआ ने खाया सब बड़े पलँग पर बैठीं अब अब क्या लेंगी बड़ी बुआ शायद माँगेंगी हलुआ’ एक कवि की कविताओं में विविधता की पड़ताल करनी हो तो श्रीप्रसाद जी को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में यदि श्रीप्रसाद की कविताएँ प्रकाश में नहीं लाई गईं है तो प्रत्यक्ष है कि पड़तालकर्ता का अध्ययन और चिन्तन अधूरा है। श्रीप्रसाद सोच और बिम्ब के विराट कवि हैं। वे सरलता के धनी हैं। सहजता और सादगी उनकी पूंजी है। यह सब उनकी कई कविताओं में दिखाई देता है। मुझे उनकी एक कविता बेहद पसंद है। दही-बड़ा। क्या ग़जब की कविता है। ऐसाी कविता बालसाहित्य के आकाश में किसी चाँद से कम नहीं है। बच्चे ही नहीं बड़े भी इस कविता का आनंद लेते हैं। इस कविता की कई खासियतें हैं। इस कविता को यदि दस चित्रकारों को एक समय में दिया जाए और वे अलग-अलग बैठकर अपनी कल्पना से इस कविता का चित्रांकन करें तो पाठकों को दस अलग चित्र और चित्र के सहारे नई दुनिया देखने को मिलेगी। यह कविता मात्र चूहों का बयान नहीं है। इस कविता में जो मेलजोल का भाव है। सामूहिकता की बात है। वह एक नई ऊर्जा देती है। साहस भर देती है। बिना संदेश,उपदेश के यह कविता हम मनुष्य में मनुष्यता भर देती है। सामहिकता से किए गए किसी काम को पूरा करने के बाद जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे महसूस किया जा सकता है- ‘सारे चूहों ने मिल-जुलकर एक बनाया दही-बड़ा सत्तर किलो दही मँगाया फिर छुड़वाया दही-बड़ा दिन भर रहा दही के अंदर बहुत बड़ा वह दही बड़ा फिर चूहों ने उसे उठाकर दरवाजे से किया खड़ा रात और दिन दही बड़ा ही अब सब चूहे खाते हैं मोज मनाते गाना गाते कहीं न घर से जाते हैं’ निरर्थक और ध्वन्यात्मक वर्ण-शब्द उनकी कविताओं में सायास आए हुए हैं। उन्हें ठूंसा नहीं गया है। उनकी कविताओं पर बात करते हुए हमें बारम्बार उनका देशकाल और वातावरण याद रखना चाहिए। अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय कवियों का विपुल लेखन युवावस्था के दौर का मिलता है। ध्वन्यात्मक और निरर्थक शब्द भी स्वतः अर्थ देने लगते हैं। मज़ेदार बात तो यह है कि पाठक अपने-अपने स्तर से इन शब्दों को आत्मसात् भी कर लेते हैं- ‘सौ हाथी यदि नाच दिखाएँ यह हो कितना अच्छा नाच देखने को आएगा तब तो बच्चा-बच्चा धम्मक-धम्मक पाँव उठेंगे सूँड झम्मक-झम्मक उछल-उछल हाथी नाचेंगे छम्मक-छम्मक-छम्मक जो देखेगा हँसते-हँसते पेट फूल जाएगा देख-देख करके सौ हाथी बड़ा मज़ा आएगा’ श्रीप्रसाद जी तो प्रौढ़ावस्था तलक भी ख़ूब लिखते रहे। आजाद भारत से लेकर आपातकाल तक भी श्रीप्रसाद साहित्य में उन समकालीनों में एक हैं जिन्होंने हिन्दी बाल कविता का परचम उठाए रखा था। वे उस समय नए भाव, बोध की कविताएँ लेकर छाए हुए थे। यूँ तो हिंदी बाल कविता का वह दौर आजाद भारत के संदर्भ में नयापन लिए हुए था। लेकिन उस दौर में भी श्रीप्रसाद परम्परागत प्रकरणों में बाल सुलभता लेकर लगातार उपस्थित रहे। वे हर समय नए युग को ग्रामीण संस्कृति की ओर से लगातार अपने काव्य से चमत्कृत करते नज़र आते हैं। श्रीप्रसाद जी की कई कविताएँ एक साथ कई बातों,भावों और घटनाओं को साथ लेकर चलती हैं। पूरी रवानगी के साथ। ऐसी कविताएं जो सहजता के साथ गूढ़ बातों की परतें बगैर किसी वैज्ञानिक शब्दावली के सहारे खोलती हैं, कम ही प्रकाश में आती हैं- ‘दादी चिल्ला करके बोली मुन्नू जल्दी भाग घर के पास बड़े छप्पर में लगी जोर की आग कोई पानी लेकर दौड़ा कोई लेकर धूल जलती बीड़ी फेंक फूस पर किसने की यह भूल छप्पर जला जले दरवाजे सब जल गया अनाज तभी सुनी सबने घन-घन-घन दमकल की आवाज़ घंटे भर में दमकल ने आ तुरत बुझाई आग दमकल के ये वीर सिपाही करते कितना त्याग आक्सीजन और कार्बन इनका जब हो मेल गरमी और रोशनी देकर आग दिखाती खेल जाड़े में हम आग तापते शीत न आती पास आग बड़ी ताकत है लेकिन करती बहुत विनाश छुक-छुक चलती इससे रेलें चलते हैं जलयान चमकाती है सारे घर को दीये की बन शान’ कौन नहीं जानता कि श्रीप्रसाद की कविताएँ मज़ेदार हैं! कई कविताएं बोलती हैं। कविताओं में आए चरित्रों का रेखाचित्र अनायास ही बनने लगता है। वह बच्चों के मनोविज्ञान को बखूबी समझते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएं सीख-सन्देश से इतर समझ आधारित भी हैं। हास-परिहास की मात्रा भी वह बालसुलभता को ध्यान में रखकर शामिल करते हैं। श्रीप्रसाद जैसे कवि कम ही हैं जो सर्दी,गरमी और बरसात को आफत नहीं ज़रूरी बताते हैं। वरना उफ ये गरमी, उफ ये सरदी आदि भाव देने वाली सैकड़ों कविताओं में ये कविता अलहदा न होती- ‘आई है सुंदर बरसात,जरा देखो तो लगती हैअब बिलकुल रात, जरा देखो तो उमड़ घुमड़कर बादल आए हैं आसमान में आकर छाए हैं मेढकों की ये बारात,जरा देखो तो आई है सुंदर बरसात,जरा देखो तो’ कविताएँ पढ़ते-पढ़ते यह आभास सरलता से हो जाता है कि श्रीप्रसाद बच्चों में आदर्श थोपते हुए नहीं ही दिखाई देते हैं। वे उपदेश और नीतिवचन रटाने वाले कवि नहीं हैं। श्रीप्रसाद ने जीवन भी ऐसे ही जिया और लिखा भी वैसे ही है। श्रीप्रसाद अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से हमेशा सम्मान की नज़र से देखे जाएँगे। यह कहना गलत न होगा कि साहित्य श्रीप्रसाद का कृतज्ञ रहेगा। उनकी निरन्तर सक्रियता ने कईयों का मार्ग प्रशस्त किया। कईयों को उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित भी किया। यह बात सही है कि उनका और उनकी शैली का अनुसरण कईयों ने किया। लेकिन उनकी तरह के अर्थहीन,अनगढ़ और बेतुके शब्दों को सार्थक अर्थ देने वाले कवि कम ही हुए हैं। दरअसल सारा मामला बच्चों से जुड़ा होने का है। श्रीप्रसाद की कविताओं से साफ पता चलता है कि उनका सूक्ष्म अवलोकर और परिवार,आस-पास तथा समाज के बच्चों पर गहरी नज़र,संग-साथ भी रहा। तभी तो वे बच्चों की ज़ुबान को कविता में कहन और लय के साथ ले आते हैं- ‘लड़ते हो जी,तुम से कुट्टी नहीं लड़ोगे,अच्छा मिल्ली आओ,खेलें हम मिलजुलकर हाथ मिलाओ,लिल्ली-लिल्ली ॰॰॰ ते अब कभी न होगी कुट्टी सदा रहेगी मिल्ली-मिल्ली हम दोनों हैं प्यारे साथी आपस में हैं हिल्ली-मिल्ली’ श्रीप्रसाद जी ने ऐसी कविताएं लिखी हैं जो परम्परा में नहीं थीं। दुःख होता है कि चिड़िया पर श्रीप्रसाद जी के बाद सैकड़ों कविताएं रची गईं। लेकिन श्रीप्रसाद जी जैसी गहराई उत्तरवर्ती रचनाओं में देखने को कम मिलती हैं। इस कविता में जहाँ तिनका-तिनका जोड़कर घोंसला बनाने की बात आई है वहीं अप्रत्यक्ष तौर पर ‘होमसिकनेस’ से दूर रहने की बात भी आई है। मुझे लगता है कि सादगी और चीज़ों,अपनों,चल-अचल सम्पत्ति से मोह को भी ठोकर मारती ये कविताएं बच्चों को दूसरे ढंग से परिष्कृत करने की सामथ्र्य रखती है। वह भी झूठे,कोरे नारों-उपदेशों से हटकर सरलता से कहकर। कमाल की रचना है- ‘चिड़िया ने घोंसला बनाया मेहनत की भारी एक-एक कर तिनके लाई चिड़िया बेचारी ॰॰॰ चिड़िया उनको चुग्गा लाती और खिलाती थी बार-बार बाहर जाती थी जल्दी आती थी ॰॰॰ जब बच्चों को उड़ना आया च्ले गये उड़कर छोड़ गई चिड़िया भी अपना बना बनाया घर यह चिड़िया ऐसा ही फिर घोंसला बनायेगी अंडे देगी,बच्चे पाकर खुश हो जायेगी’ हालांकि यह कहना सही होगा कि कोई भी कवि अलग से पैदा नहीं होता। वह अपने पूर्व कवियों के आलोक में भी आगे बढ़ता है। अंततोगत्वा उसे अपनी राह अलग बनानी ही पड़ती है। श्रीप्रसाद ने भी अपने पुरानेपन को ही संभालकर नहीं रखा। अपने दौर में वह नवीनता लिए हुआ भी उपस्थित हुए। इसे उनकी संपूर्ण साहित्यिक यात्रा की स्थिति से परखा जाना चाहिए। श्रीप्रसाद कितने आत्मीय हैं! कितने संवेदनशील हैं! इस प्रकृति के हर जीव की अस्मिता और प्राण की उन्हें कितनी चिन्ता थी! किसी चिड़िया का तीर से मारा जाना उन्हें गहरे चिन्तन में ले जाता है- ‘अब बगिया में मीठे-मीठे कौन गीत गाएगा कोई भी पक्षी डरकर अब यहां नहीं आएगा बाग लगेगा कितना सूना होगा यहां न गाना चिड़िया गई और मीठे गीतों का गया खजाना’ यह कहना गलत न होगा कि श्रीप्रसाद आजीवन बाल साहित्य के सृजन में लगे रहे। उनका अध्ययन भी वृहद था। उनकी भाषा हमेशा सरल रही। आम बच्चे की भाषा उनकी विशेषता रही है। लय को वह चमत्कृत ढंग से प्रस्तुत करने वाले कवियों में हमेशा याद किए जाते रहेंगे। हल्लम-हल्लम हौदा कविता श्रीप्रसाद के नाम का पर्याय मानी जाती है। यदि श्रीप्रसाद जी की बात हो और इस कविता पर चर्चा न हो तो सब व्यर्थ है। और हाँ हाथी पर बात हो और श्रीप्रसाद जी की इस कविता की बात न हो तो समझिए हाथी को जानना अधूरा है। हाथी के एक अलग नज़रिए से देखने का सलीका उनकी अद्भुत कविता में किसे हतप्रभ नहीं करता- ‘हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम हम बैठे हाथी पर, हाथी हल्लम हल्लम लंबी लंबी सूँड़ फटाफट फट्टर फट्टर लंबे लंबे दाँत खटाखट खट्टर खट्टर भारी भारी मूँड़ मटकता झम्मम झम्मम हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम पर्वत जैसी देह थुलथुली थल्लल थल्लल हालर हालर देह हिले जब हाथी चल्लल खंभे जैसे पाँव धपाधप पड़ते धम्मम हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम हाथी जैसी नहीं सवारी अग्गड़ बग्गड़ पीलवान पुच्छन बैठा है बाँधे पग्गड़ बैठे बच्चे बीस सभी हम डग्गम डग्गम हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम दिनभर घूमेंगे हाथी पर हल्लर हल्लर हाथी दादा जरा नाच दो थल्लर थल्लर अरे नहीं हम गिर जाएँगे घम्मम घम्मम हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम’ जैसा पूर्व में भी कहा गया है श्रीप्रसाद का लेखन दीर्घकालिक रहा। वह अपने पूर्ववर्ती, समकालीन और फिर नवोदितों के साथ भी साहित्य की यात्रा पर रहे। लिखते रहे। छपते रहे और प्रसिद्धि पाते रहे। डाॅ॰ श्रीप्रसाद गद्य के साथ पद्य में साधिकार रखते थे। इस लेख में केवल उनकी बाल कविताओं की चर्चा की जा रही है। लेकिन यह बताना जरूरी होगा कि उनके संपादन में नब्बे के दशक में प्रतिनिधि बाल गीत किताब भी आई। वह भी ख़ूब चर्चा में रही। श्रीप्रसाद कविता में नाद-सौन्दर्य सहजता से शामिल कर लेते हैं। बच्चों के लिए उन्हीं के अनुकूल शब्दों का इस्तेमाल श्रीप्रसाद से सीखा-समझा जा सकता है। ‘चल रे घोड़े‘ ऐसी ही कविता है। कविता में कई किस्से हैं। लयता-तन्मयता के साथ हैं। अनुमान और कल्पना के साथ ऐसी हतप्रभ करने वाली बातें हैं कि बच्चों को पूरा आनंद आता है। संभवतः आज से लगभग चालीस-पचास साल पहले लिखी गई इस कविता में सौ लड्डू का दिया जाना को सोचना-समझना होगा। ‘शेर गरजता गधा न डरता’ में जो बात है वह बड़ी मस्त है !पूरी कविता पढ़ते हैं तो समूचा दृश्य आँखों में खींचा चला आता है। कविता किसी एक नहीं बल्कि कई खास भाव और दृश्यों के साथ उपस्थित होती है। इस कविता को पढ़ते समय यदि हम खुद को पढ़ना सीख चुके बच्चे के स्तर पर पढ़ने-समझने की कोशिश करें तो कविता के साथ एक बच्चा या बच्ची जो भी घोड़े से बात कर रहा है या कर रही है को बेहद संवेदनशीलता के साथ महसूस किया जा सकता है- ‘चल रे घोड़े, चल अलमोड़े तुझ पर बैठे हम धम्मक धम्मक धम सौ लड्डू ले बमबम बोले खीर न देना कम धम्मक धम्मक धम कहते चाचा, दिखा तमाचा करो नहीं ऊधम धम्मक धम्मक धम ल्ेकर बिल्ली,जाता दिल्ली चूहा चढ़ टमटम धम्मक धम्मक धम नचे बंदर,घर के अंदर ढोल बजा ढमढम धम्मक धम्मक धम उछल-उछलकर मेंढक टर-टर कहता-बादल थम धम्मक धम्मक धम शेर गरजता,गधा न डरता चरता घास नरम धम्मक धम्मक धम‘ प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तरप्रदेश के आगरा जिला में ग्राम पारना में जन्मे श्रीप्रसाद बाद में वाराणसी में रहने लगे। उनकी बेहद मशहूर किताबों में गीत बचपन के, भारतगीत, चिड़ियाघर की सैर, साथी मेरा घोड़ा, फूलों के गीत, तक तक धिन, आँगन के फूल, झिलमिल तारे, खेलो और गाओ, खिड़की से सूरज, आ रही कोयल, गुड़िया की शादी प्रमुख हैं। फुटकर में तो वे हर प्रसिद्ध पत्रिका में छपते रहे। वे पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं के माध्यम से अनवरत् बेहद सक्रिय रहे। जानकार बताते हैं कि श्रीप्रसाद ने पचास से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। समकालीन साहित्यकारों का व्यक्तित्व और कृतित्व पर बात करते हुए कई किस्से हतप्रभ कर देते हैं। नए दौर के सभी साहित्यकार मनुष्यता के लिए रचनाकर्म करते होंगे? क़तई नहीं। कुछ ही साहित्यकार हैं जो आगे बढ़ने के लिए दूसरों को औज़ार नहीं बनाते। उपयोग, उपभोग और आत्ममुग्धता से इतर पाठक को उपयोगी रचना देने की दिशा में काम करते हैं। समकालीनों को अग्रज साहित्यकारों से सीखना चाहिए। अग्रज कौन-सा ठकुरसुहाती से दूर रहे हैं? लेकिन यह तय है कि सुविधा,अवसर और साधनों की ललक के पीछे भागने वाले साहित्यकारों को बड़ा नहीं माना जा सकता। पुरस्कार और सम्मान भी उन्हें बड़ा घोषित नहीं कर सकते। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि अपने समय में जो बड़े महान बनते फिरते थे, उन्हें कालान्तर में कोई पूछता भी नहीं। ऐसे उदाहरण भी हैं जिन्हें समय ने उपेक्षित किया लेकिन कालान्तर में वे रचनाओं से महान माने गए। आज भले ही राज्याश्रित कवि नहीं हैं। चारण नहीं हैं। लेकिन आत्ममुग्ध रचनाकार ख़ूब हैं। अपनी रचनाओं को बार-बार पढ़ने वाले रचनाकार चारों ओर मिल जाएंगे। दूसरों की रचनाओं को न पढ़ने वाले और अच्छी रचना पढ़ने के बाद भी मौन रहने वाले रचनाकार भी मिल जाएँगे। बकौल धूमिल ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है’ को जानने-समझने वाली रचनाकार बहुधा कम ही मिलेंगे। संभवतः इक्कीसवीं सदी के युवा रचनाकारों से पाठक उम्मीद करेंगे कि वे इंसान और इंसानियत से जुड़े सभी सवालों को अपनी रचनाओं में शामिल करेंगे। श्रीप्रसाद एक ही प्रकरण पर विस्तार से भी लिख पाते थे। पानी पर उनकी एक कविता है। सीधी,सरल पर गहरी कविता है- ‘जाने कब से पानी है कितनी बड़ी कहानी है कहीं ओस है, बर्फ कहीं है पानी ही क्या भाप नहीं सब रूपों में पानी है कहती ऐसा नानी है’ दर्पण किसी को आकर्षक तो नहीं ही बना सकता। हम जैसे हैं वैसा ही दिखाई देंगे। हम हर कविता से जन सुधार और जन चेतना की उम्मीद क्यों करते हैं? आज भी अधिकतर कविता की प्रंशसा करते हुए सुना जा सकता है-‘‘वाह ! क्या संदेश है!’’ ‘‘बहुत सुंदर। इस कविता से बच्चा जीवन में सच बोलने के लिए प्रेरित होगा।’’ ‘‘अति सुन्दर। यह कविता बच्चों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करेगी।’’ आदि-आदि। साहित्य हर बार समाज में क्रांति लाएगा, ऐसा समझना मूर्खता है। साहित्य बच्चों में हर बार संस्कार पैदा करेगा,मानवीय मूल्य विकसित करेगा। ऐसा मानना उचित नहीं। समाज में पसरी अनैतिकता का उन्मूलन साहित्य से दूर नहीं होगा। अलबत्ता आनंद की अनुभूति भी साहित्य का एक मक़सद है। साहित्य हमारी सोच-समझ में सकारात्मक बदलाव करता है। यह सही है। सामाजिक परिवर्तन की खुराक भी साहित्य से मिलती है। यह भी सही है लेकिन साहित्य से जबरन सीख,संदेश चाहना ही बचकाना है। किसी कविता को बचकाना कहना भी साहित्य का अपमान है। श्रीप्रसाद अपने समकालीनों में बेहद प्रयोगधर्मी रहे। वे नितांत साहित्य के अध्येता बने रहे। स्तुतिगान और पीठ थपथपाए जाने के आकांक्षी नहीं रहे। किसी गुट के खास पैरोकार भी नहीं रहे। यही कारण है कि उन्हें वह स्थान,दजाऱ् नहीं मिल पाया, जिसके वह हकदार थे। मैं यह नहीं कह सकता कि उन्हें पर्याप्त सम्मान नहीं मिला। उनकी रचनाएं प्रकाश में आतीं तो समकालीन रचनाकार,पाठक और बाल साहित्य के अध्येता हतप्रभ रहते और चर्चा भी करते। श्रीप्रसाद की रचनाओं को आदर्श और अनुकरण की स्थिति में देखा जाता। यह ओर बात है कि खुलकर मुक्त कण्ठ से प्रशंसा न की गई हो। श्रीप्रसाद कविता में कई कविताओं को शामिल कर लेते थे। वे एक ही कविता में एक कहन नहीं रखते थे। उनकी यह शैली ही उन्हें औरों से अलग करती है। रात का सपना भी ऐसी ही एक कविता है। पाठक इसमें कोई एक केन्द्रीय भाव खोज ही नहीं सकता। जिज्ञासा और रोमांच के साथ अंत तक गजब की गति और लय के साथ अब क्या होगा? शामिल करना रोमांचकारी कौशल है। यह कविता पूरा किस्सा है। कई कविताओं के अंडे इस कविता में हैं- ‘आज रात में सपना देखा अद्भुत एक तमाशा गाड़ी लेकर चला ड्राइवर खाते हुए बताशा भूल गया वह अटरी-पटरी वह सिगनल भी भूला पार कर गया प्लेटफार्म सब तब उसका दम फूला फिर भी रुकी न गाड़ी उसकी एक गाँव से आई घर तोड़े,छप्पर उजाड़कर खंभों से टकराई छप्पर पर बंदर बैठे थे वे इंजन में आए इधर-उधर कुछ पुरजे खींचे ठोके और हिलाए बस,इंजन रुक गया वहीं पर और रुक गई गाड़ी मेरा रुका मेरा सपना भी गाड़ी बनी पहाड़ी‘ ऐसा नहीं है कि श्रीप्रसाद ने लीक पर चलने वाली कविताएं नहीं लिखीं। लिखीं हैं। लेकिन वे धीरे-धीरे बालमन को पकड़ने वाले शानदार कवि बन गए। अच्छा बच्चा,गंदा बच्चा वाली भी उनकी ही एक कविता है। उस पर क्या चर्चा करना। लेकिन श्रीप्रसाद के लेखन का निकष कुछ साधारण कविताओं के भरोसे नहीं टिका है। साहित्य में अभाव भी है तो प्रभाव भी है। दुःख भी है तो सुख भी है। यथार्थ भी है तो कल्पना भी है। बच्चों के बालमन की उड़ान और थाह की जांच करना असंभव है। तभी तो कहा गया है कि हर बच्चा अपने आप में विलक्षण है। वे जानें क्या-क्या सोच लेते हैं- ‘आठ फीट की टाँगे होतीं चार फीट के हाथ बड़े तो मैं आम तोड़कर खाता धरती से ही खड़े-खड़े कान बड़े होते दोनों ही दो केले के पत्ते से तो मैं सुन लेता मामा की बातें सब कलकत्ते से नाक बड़ी होती हाकी-सी तो फिर छत पर जाकर मैं फूल सूँघता सात कोस के अपनी नाक उठाकर मैं आँख बड़ी होती बैंगन-सी तो दिल्ली में ही रहकर लालकिले से तुरत देखता पूरा जैसलमेर शहर सिर होता जो एक ढोल-सा तो दिमाग जो पाता मैं अँगरेजी,इतिहास,गणित सब सबका सब रट जाता मैं पेट बड़े बोरे-सा होता सौ पेड़े,सौ खीरकदम सौ बरफी,सौ बालूशाई खाता पूरे सौ चमचम पर खाना घरभर का खाता यदि ऐसा कुछ होता मैं कपड़े कैसे मिलते ऐसे हरदम ही तब रोता मैं‘ मानवीकरण का भी श्रीप्रसाद ने बहुधा प्रयोग किया है। वह भी बेहद सरलता के साथ। ऐसा मानवीकरण कि पाठक के सामने पूरा परिदृश्य खींच जाता है। ऐसा उपयोग कर श्रीप्रसाद जी पाठक को गहराई से सोचने पर बाध्य कर देते हैं। बाल पाठक तो वैसे ही कई कल्पनाओं में बड़ों से बहुत-बहुत आगे होता है। सूरज पर सैकड़ों कविताएं हैं। अमीर खुसरो ने अंतरिक्ष के लिए क्या खूबसूरज कहा है-एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा,चारों ओर वह थाली फिरे,मोती उससे एक न गिरे। श्रीप्रसाद जी ने सूरज के लिए कहा है- ‘लाल थाल सा जगमग-जगमग रोज सुबह आता है कौन पीली-पीली बड़ी सजीली किरणें बिखराता है कौन इसी कविता में वे लिखते हैं- कली-कली खिलती है सुंदर खिल जाते हैं फूल सभी धरती सपना त्याग जागती और भागती रात तभी पेड़ों के पत्तों पर फिर दीये से रख जाता है कौन’ कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व का कोई एक पाठक मूल्यांकन कर भी नहीं सकता। श्रीप्रसाद जी ने रचना को सृजित कर अपना काम कर दिया। अब उनकी रचनाएँ पाठकों के अंतस पर कब,कैसा और कितना बदलाव लाती है, इसकी थाह पाना असंभव है। कोई भी पाठक कविता में कविता जैसी चीज़ खोजकर किसी कविता को स्वीकार या खारिज नहीं कर सकता। जिस प्रकार मनुष्य की मनुष्यता भी देशकाल,वातावरण और परिस्थितियों में अपना अर्थ बदलती है उसी प्रकार कविता का कवित्व भी समय-समय पर अपना आस्वाद और अनुभूति का जायका बदलती हुई प्रतीत होती है। श्रीप्रसाद जी की कविताओं में लड्डू और बताशा खू़ब आया है। आज के पाठक को समझना होगा कि उस दौर में साठ-सत्तर के दशक में लड्डू और बताशा सभी बच्चों की पहुँच में क्या ही रहा होगा? क्या इक्कीसवीं सदी के इस युग में भी कोई यह दावा कर सकता है कि लड्डू इस दुनिया के हर बच्चे की पहुँच में हैं? कहने का आशय सिर्फ यह है कि हम वर्तमान की पीठ पर सवार होकर अतीत के रचनाकर्म को बचकाना नहीं कह सकते। आज तो हर पांच साल में दुनिया बदल रही है। दुनिया के प्रतिमान बदल रहे हैं। ऐसे वक़्त में हमें वरिष्ठ रचनाकारों के रचनाकर्म को पढ़ते-समझते वक़्त उस दौर की पृष्ठभूमि को समझने का सलीका भी आना चाहिए। जो कुछ समाज में घट रहा है। जो कुछ भी हमारे जीवन में है वह सब साहित्य में आना चाहिए। कुछ भी वर्जित नहीं है। आज आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य, कला, संगीत सहित सभी कलाओं में नया सृजन हो। किसी पुराने की पीठ पर सवार होकर नया या अलहदा कहलाया ही नहीं जा सकता। नया होने का मतलब नई या युवा पीढ़ी भी नहीं होता। नया तो तब होता है, जब कला में कोई नया सृजित करे। कितना अच्छा हो कि लेखक, कवि, गीतकार, संगीतकार अपने सामाजिक बोध के अनुभव से नया रचें। नितांत मौलिक, स्वरचित और स्वनिर्मित। श्रीप्रसाद की बाल कविताओं को उनके सामथ्र्य, अध्ययन, अनुभव और चेतना के स्तर पर देखा जाना चाहिए। इस लिहाज़ से श्रीप्रसाद कई मायनों में अपने समकालीनों में विशेष थे। उनकी बाल कविताएं केवल सरल ही नहीं हैं। केवल सहज अभिव्यक्ति नहीं हैं। उनकी कविताएं गूढ़ आशयों के साथ उपस्थित हैं। उन्होंने अपनी कविताओं का शब्द भंडार बालमन के अनुरूप रखा। कविता को पढ़ते समय उच्चारण का ख़्याल रखा। ध्वन्यात्मक सौन्दर्य को भी बच्चों की दुनिया के आस-पास रखा। श्रीप्रसाद ने अपने पूरे रचनाकर्म की अवधि में यश-अपयश की परवाह नहीं की। उनकी संपूर्ण साहित्यिक यात्रा की परख करना बेहद कठिन कार्य है। आज वे हमारे बीच में नहीं हैं। लेकिन उन्हें कविता में कथ्य गढ़ने के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा। हाँ ! मैं इतना तो कह ही सकता हूँ कि श्रीप्रसाद की बाल कविताओं की सार्थकता,संभावना और जीवन बोध की आलोचना नहीं की जा सकी है। ऐसी आलोचना जिसमें निन्दा न हो। उसकी प्रतीक्षा है।
॰॰॰ -मनोहर चमोली ‘मनु’ संपर्क: 7579111144 ******