-मनोहर चमोली ‘मनु’

बाल साहित्य के अध्येता गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘हम आज अपने प्रिय विषयों के साथ बात करेंगे। इस दशक को छोड़ दें तो बाल साहित्य की भूमिका पर इससे पहले बहुत कम बात हुई है। भाषा का मसला है। बाल साहित्य का मसला है। फिर पाठ्य पुस्तकों का मसला है। भाषा क्या है? शिक्षण की प्रक्रियाएं क्या हैं? बाल साहित्य क्या है? बाल साहित्य को शिक्षा के साथ क्या जुड़ाव है? इसे भी देखेंगे। पाठ्य पुस्तकों की सीमाएं क्या हैं? शिक्षा में भाषा का महत्व क्या है? ये सवाल हैं। इन पर बातचीत करने की कोशिश करेंगे।’’

बाल साहित्य के अध्येता गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘मैं हमेशा से कहता रहा हूँ कि बाल साहित्य का शिक्षा में महत्व पर बात पहले कम ही हुई है। आज भाषा के सन्दर्भ में यह कहना ठीक होगा कि हमारे देश में भाषा की जो कक्षाएं हैं जो कहा जाता है कि इसे पढ़ाने के लिए कोई खास तैयारी की ज़रूरत नहीं होती। यह भी माना जाता है कि इसे पढ़ाने के लिए कोई खास प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं है। पारम्परिक विधियां हैं और तौर-तरीके हैं उससे इतर भाषा के सन्दर्भ में भी कई समझ बनी है। हमें यह याद रखना चाहिए कि भाषा के सन्दर्भ में कई बदलाव आए हैं जिन्हें जानना ज़रूरी है। भाषा के प्रति कोई विशेष तैयारी का आग्रह नहीं है। पारम्परिक तरीको से काम चलाने की बात रहती है। भाषाई कौशलों पर ही केन्द्रित रहती है भाषा की कक्षाएं। भाषा की जो समृद्ध उद्देश्य हैं वह पीछे रह जाते हैं। भाषा के जो बड़े काम हैं उन्हें भी समझना होगा।’’

कई पत्रिकाओं के संपादन कार्य से जुड़े बाल साहित्य के अध्येता गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘ज़्यादा ज़ोर बस पढ़ना-लिखना पर फोकस रहता है। नए बदलाव के तौर पर जो नई बातें हैं कि यह जानना ज़रूरी है कि भाषा बच्चे के जन्म लेते ही विकास होना शुरू हो जाता है। जब हम बच्चों को पढ़ाना शुरू करते हैं उससे पहले ही बच्चे भाषा की कई चीज़ें समझ लेते हैं। बच्चे पहले से ही स्कूल में आने से पहले दो-तीन भाषाएं बोल लेते हैं। वे भी जो बोलना नहीं जानते, वे संकेतों से ही अपनी बात कहने लगते हैं। बच्चे पहले से ही अपने अनुभव के आधार पर भाषाई जुड़ाव महसूस कर लेते हैं। इस दृष्टि से देखें तो बाल साहित्य की भूमिका बड़ी हो जाती है। प्राइमरी स्तर पर और उच्च प्राथमिक पर देखें तो शुरुआती पठन पर पढ़ने की बात करें तो वे कौन सी प्रक्रियाएं हैं जो भाषा सम्मत हैं। पढ़ना क्या है? इसे समझने की ज़रूरत होगी। भाषा की भूमिका को भी समझना होगा।’’

पाठशाला भीतर और बाहर के कार्यकारी संपादक बाल एवं साहित्य के अध्येता गुरबचन सिंह जी ने एक सवाल के जवाब में कहा,‘‘हमारी पाठ्यपुस्तकों को भी समझने की ज़रूरत है। पाठ्यचर्या का निरूपण ऐसा हो जिससे बच्चे का बहुआयामी विकास हो। विषय के तौर पर भाषा कृत्रिम क्यों हो जाती है? बच्चे पर किताबों का भार,सूचनाओं का और जानकारियों का,भाषा की दुरूहता का और गुरुत्व का भार से ही भाषा को हम बनावटी बना देता है। पाठ्य पुस्तकें अपने ढांचे के साथ कक्षा में होती है। ईदगाह को देख लें कि यदि हम उसे कक्षा से बाहर कहानी के तौर पर पढ़ रहे होते हैं तो आपको कोई सवाल का जवाब नहीं देना होता। लेकिन यही रचना जब पाठ्य पुस्तक में होती है तो वह बहुत से नियमों में बंध जाती है। कहानी क्या कहती है? भाषा के शास्त्रीय सवाल कहानी के साथ जुड़ जाती है। लेकिन जो रचनाएं बाहर से लिखवाकर ली गई हैं तो वह और भी मुश्किल हो जाता है। साहित्य लागू नहीं किया जा सकता। कक्षा से बाहर आपकी स्वतंत्रता है। लेकिन जब साहित्य किताब में आ जाता है स्कूली किताब में तब वह अपनी संरचना के चलते वह ज्ञान व जानकारी के फेर में पढ़ी जाती है और जो पढ़ने में स्वायत्तता का मसला है वह अधूरा छूट जाता है।’’

मीनाक्षी चैट बाक्स में आए सवालों को रख रही थीं। एक अन्य सवाल के जवाब में गुरबचन जी ने कहा,‘‘हर लिखी हुई चीज़ को साहित्य तो नहीं कहा जा सकता। पर अच्छे या श्रेष्ठ बाल साहित्य में काॅमिक्स क़तई नहीं आता। काॅमिक्स में कोई बात विस्तार से कही जाती है? चित्र में फूहड़ता भी रहती है। जो विषय होते हैं वह भी समग्रता में भाषाई विकास का विकास न कर विकृत ही करते हैं।’’

एक अन्य सवाल के जवाब में बाल साहित्य के अध्येता गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘बाल पत्रिकाओं को बनाने का मक़सद क्या है? यह भी समझने होगा। बाल पत्रिका का यदि यह मक़सद है कि बच्चे जो भी लिखें उसे संकलित करना है तो मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। बच्चे जो भी सृजन करते हैं उसे जगह मिलनी चाहिए। बच्चे का लिखा हुआ उनके इर्द-गिर्द होना चाहिए। कक्षा-कक्ष में होना चाहिए। उसे साहित्य के तौर पर तो नहीं रखेंगे लेकिन बच्चे अपने लिखे हुए से सीखते हैं। इसे किया जाना चाहिए।’’

अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय बंगलुरु के लिए अनुवाद पहल संकाय से जुड़े गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘पहले यह समझना होगा कि सारा कुछ पाठ्य पुस्तकों पर निर्भर न हो। पाठ्य पुस्तक की भूमिका भी है पर जड़ता भी है। इसे समन्वय करने की आवश्यकता होगी। बाल साहित्य की जो ताकत है और पुस्तक की जो कमजोरियां है इसे समझना होगा। पाठ्य पुस्तक के सीमित पेज हैं। साहित्य असीमित है। बच्चे को यह अवसर मिले कि ज्ञान की रचना करने के लिए इस तरह की गतिविधि हो कि वह भाषाई कौशल का विकास कर सकें। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि पाठ्य पुस्तक स्वाध्याय की आदत नहीं बनाती। जबरन सीखने का भाव होता है। नीरस होती है। किताब से साहित्य के प्रति लगाव विकसित नहीं होता। तब बाल साहित्य का यह काम है बच्चे को ऐसा संसार दिया जाए जिससे वह स्वाध्याय की ओर बढ़ें। छोटे समूह में बाल साहित्य का उपयोग किया जाना चाहिए। पुस्तक ऐसा नहीं कर पाती। बाल साहित्य बातचीत करने का अवसर देता है। कक्षाओं में भी बाल साहित्य को स्थान मिले। पुस्तक को एक खास समय में हर हाल में पूरा करने का आग्रह रहता है। चालीस पाठ हैं तो उन्हें हर हाल में पूरा करना है। यह बोझ बन जाता है। पाठ्य पुस्तक यांत्रिक तरीके से काम करती है। बाल साहित्य की भूमिका यहां खास है। विषय वस्तु की प्रक्रिया पर भी बात करें तो बड़ी कक्षाओं में विधाओं को पढ़ाने का आग्रह होता है। रिमझिम में देखें तो एक-एक विधा पुस्तकों में होती है। लेकिन बाल साहित्य में यह खूब है। वहां एक-एक नहीं है। किताब में यह सीमित है। विषया पढ़ाना ही भाषा का काम नहीं है। विधाओं को समग्रता से पढ़ाया जाना चाहिए। यह किताब से संभव नहीं है। बाल साहित्य से संभव है। बाल साहित्य में दो-दो पेज के चित्र होते हैं। पर यह किताब में संभव नहीं हैं।’’

बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के समन्वय पर उन्होंने विस्तार से कहा। गिजुभाई की बात करते हुए उन्होंने कहा कि बाल साहित्य ही कहानियों का आनंद देती हैं। बहुआयामी विकास को देखें और भाषा शिक्षण के विहंगम उद्देश्य को देखें तो भावनात्मक विकास के लिए बाल साहित्य की भूमिका है। यह किताब से संभव नहीं है। किताब अपने एक ढांचे के साथ कक्षा में रहती है।

पत्रिका ‘पाठशाला’ भीतर और बाहर, के कार्यकारी संपादक गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘रिमझिम की बात करते हुए उन्होंने कहा कि हल्लम-हल्लम वाली कविता को लम्बा नहीं कहा जाएगा। वह ध्वन्यात्मक कविता है। खिलौने वाला कविता पर बात करते हुए कहा कि क्या ऐसा आग्रह होता कि कविता यदि लम्बी है भी है तो पूरा पढ़ाया जाए? भाषा शिक्षण का काम क्या है? बच्चे यदि अपनी टिप्पणी कर देते हैं तो मक़सद पूरा हुआ समझा जाना चाहिए। यदि चार लाईन समझ में आ गई तो थोड़ा समझकर पढ़ाएं और बच्चों को समझ में आ जाता है तो पर्याप्त है। यह प्रो॰यशपाल ऐसा कहते हैं। शिक्षक की स्वायत्तता है ये तो। कविता पढ़ाना या याद करना ही भाषा का मकसद तो नहीं होता।’’

शिक्षा के क्षेत्र में काम करते रहे गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘बाल साहित्य आरम्भिक पठन की प्रक्रियाओं में बेहतर काम करता है। पढ़ने की आदत तब तक कैसे होगी जब उसके जीवन में पढ़ने का माहौल नहीं है। जिनके जीवन में छपी या लिखी हुई चीज़ देखने के अवसर जिन बच्चों के पास नहीं है तो वह कैसे तेजी से पढ़ना-लिखना सीख सकेंगे। लेकिन वे बच्चे अपने घर से अपनी भाषा लेकर आते हैं। उसको, उसकी भाषा को नकराना नहीं चाहिए। बच्चों की पहचान और उनकी अस्मिता को नकार रहे होते हैं। बाल साहित्य यह संवेदना जगाता है कि हम सभी को स्वीकारें। साहित्य और बाल साहित्य को क्या हम अलग करके देखते हैं? यह सारी बातचीत औपचारिक शिक्षा के आलोक में हो रही है। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम समझे कि बाल साहित्य की मुश्किलें भी हैं उसे भी समझें।’’

गुल्लक और पलाश शैक्षिक पत्रिका के संपादक रहे गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘एक पूरी समझ है कि बाल साहित्य अलग से कुछ नहीं होता। लेकिन जब हम शिक्षा के दायरों में देखते हैं तो हमें ऐसे साहित्य को देखना होगा कि बच्चों के दायरे में सोचें। ऐसी कोई पकी-पकाई रेडीमेड कसौटी नहीं है कि यह खराब साहित्य है ये अच्छा है। पर कुछ आधार हैं कि अनुभव के आधार पर यह पता चल जाता है कि ऐसी किताबें जो सूचनापरक,जानकारीपरक,फूहड़ तरीके से हैं वह बच्चों के लिए साहित्य नहीं हैं। उपदेशपरक साहित्य भी बच्चों का साहित्य नहीं है। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली किताबें बच्चों के लिए मुश्किलें खड़ा करती हैं। ऐसी किताबों से बच्चे पीछे खड़े रहते हैं। हां बच्चों में साहित्य की सराहना करने,सौंदर्यबोध की विकास,संवेदना का स्तर जगे, सोच विकसित हो रही हो, जिज्ञासा का भाव जग रहा हो, सवाल खड़ा करते हों ऐसा साहित्य तो बाल साहित्य में आएगा। बड़ों को वयस्कों के तौर पर समझाने वाली रचनाएं बच्चों के लिए नहीं हो सकती हैं। एक शिक्षक के तौर पर हमें किताबों को पढ़ने की भी ज़रूरत है। हम स्वयं समालोचना करें। किताब पढ़े ंतो जानें कि ये किताब बच्चे क्यों पढ़ें। कहानियों में बच्चों का जीवन हो,बचपन हो। उनकी बातें हों उनकी अभिवृत्तियां हों। अब ये ज़रूरी नहीं है कि यह हर किताब में मिल जाए। ऐसी किताबें जो पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं उन्हें भी रखा जा सकता है। बच्चों की ज़िंदगी में ढेर सारी किताबें आए तो वह अपना शब्द संसार बढ़ाते हैं। उस लिहाज़ से हमें किताबों को समझना हों। चित्र भी बोलने वाले हों। हाव-भाव हों। बातचीत करने की गुंजाइश वाली किताबें होें। यह उपयोगी हो सकती हैं।’’

गुरबचन जी ने कहा,‘‘मूल्य बोध के नज़रिए से भी हमें रचनाओं को समझना होगा। उन मूल्यों के साथ भी हमें देखें कि हमारे लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों का हनन न हो। आयु के हिसाब से भी हमें किताबें देखने होंगी। बच्चों को प्रेरित करने वाली किताबें उम्र के हिसाब से देखना होगा। भाषा को भी देखना होगा। भाषा में नयापन भी हो। नए मुहावरे-बिम्ब वाली हो। इधर के सालों में बाल साहित्य में नई किताबें आई हैं। सुखद अंत को छोड़कर अब नए विषय आए हैं। मान्यता थी कि बच्चों के साहित्य में वर्जित क्षेत्रों को नहीं दिया जाना चाहिए। अब यह वर्जनाएं टूट रही हैं। अच्छे बड़े साहित्यकार भी आज भी वर्जित क्षेत्र रखते हैं। समलैंगिकता जैसे विषय अब बाल साहित्य में आ रहे हैं। यथार्थबोध की कहानियां आ रही हैं। प्यारी मैडम का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि बच्चों के सवाल भी कहानियों में पिरोए जा रहे हैं। वर्जनाओं के प्रति दुराग्रह तोड़ा जाना होगा। बच्चों के साहित्य के संकलन में ऐसे विषय आने चाहिए। आ रहे हैं।’’

नियोजित साहित्य की बात भी उन्होंने की। टीकाकरण,यातायात का नियम पालन, पर्यावरण जैसे विषय पहले तय हो जाते हैं फिर किताबें लिखी जाती हैं। यह बहुत हैं। इनकी ज़रूरत नहीं है। यह आग्रहपूर्वक लिखी जाती हैं। यह बाल साहित्य नहीं है।

एक सवाल के जवाब में गुरबचन जी ने कहा,‘‘हम जब कहानी पढ़ रहे होते हैं तो एक अर्थ होता है। एक अर्थ वह होता है जो पाठक अपना एक अर्थ बनाता है। किसी कहानी के दस पाठक हैं। तो दस पाठक के संभवतः दस अर्थ हो सकते हैं। साहित्य की कोई भी विधा की रचना का अर्थ निर्माण पाठक के स्तर पर भी होती है। इसे समझना होगा। आधा अर्थ रचनाकार को हो सकता है पर ईदगाह के अर्थ और सार सारे बच्चों के कुछ समान हो सकते हैं लेकिन बहुत से अर्थ पाठक के तौर पर कई होंगे। उन्हें स्थान देना रचना का निर्माण ही है। रचनात्मकता भी है। यह पाठक या छात्र का गढ़ना है रचना है। यही रचनात्मकता है।’’

एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा,‘‘व्याकरण को लेकर हम यह नहीं कहते कि न हो। भाषा सम्मत शिक्षण की प्रक्रिया में बाधा के तौर पर न हो। शुद्ध लिखना और शुद्ध बोलना बाधा ही है। इसकी जगह बुनियादी कक्षाओं में विशेष आग्रह होता है तो यह बाधा ही है। शुरूआती कक्षाओं में बच्चे भाषा के कौशल विकास की प्रक्रिया में हैं उन्हें गलतियों के तौर पर रखने वाली हर गतिविधि बाधा है। यशपाल समिति की सिफारिशे हमें पढ़नी चाहिए। पढ़ने का मकसद सुख और आनंद की अनुभूति साहित्य ही दे सकता है। पढ़ना रचनाशील प्रक्रिया है। व्याकरण की बारीकियां बाधाएं पैदा करती है। बच्चों की स्वाभाविक प्रक्रिया और जिज्ञासा में व्याकरण का आग्रह बाधक ही है।’’

एक अन्य सवाल के जवाब में गुरबचन सिंह जी ने कहा,‘‘जिन विधियों से हम पढ़े हैं हमें लगता है वह विधियां ठीक थीं। क्या वे विधियां सार्थक थीं? शोध और अध्ययन हमें बताते हैं भाषा के प्रति जो अध्ययन आए हैं वह बहुत बदलाव की बात करते हैं। हमें शोधों-अध्ययनों को स्वीकार करना चाहिए। बच्चे पांचवी तक भी पढ़ना नहीं सीख पाते। इन पीढ़ीयों की मुश्किलें क्या हैं? हमें इन बच्चों को पढ़ना कैसे सीखाएं? नवाचार और प्रयोगों से आगे स्थापित अध्ययन हैं उन्हें समझने और स्वीकार करने की आवश्यकता है।’’ लगभग छःह बजे तक 146 श्रोता-शिक्षक बातचीत में बने रहे।

एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा,‘‘कहानियों का केन्द्रिय रोल है भाषा शिक्षण के विकास में। बच्चे की भाषा और अध्यापक, गिजू भाई का साहित्य, पढ़ना ज़रा सोचना, जैसी किताबें हमें कई गतिविधियां सुझाती हैं। हमें इन्हें पढ़ना चाहिए। कहानियों को लेकर देखें तो कोई तैयारी हम नहीं करते कि कौन-सी कहानियां सुनाई जाएं। ऐसी कहानियांे का चयन करने की तैयारी कम ही होती है कि कैसी कहानियां सुनाई जाए। कहानियों को स्वाभाविक तरीके से ही सुनाया जाना चाहिए। तुतलाकर बोलना या बच्चा जैसा बनकर कहानियां सुनाने की आवश्यकता नहीं है। हमें इन्हें समझना होगा। कहानी सुनाने के बाद कोई सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए। कहानी सुनाने के बाद बच्चों पर भरोसा करना ज़रूरी है कि उसने ध्यान से सुना है। उसकी पड़ताल करने की ज़रूरत नहीं है कि उसने क्या सुना? कहानी सुनाने की तैयारी पर जो लेख हैं उन्हें पढ़ना चाहिए।’’

एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जब कोई मुुश्किल या बाधा आती है तब हम नया प्रयोग करते हैं। कोरोना या मलेरिया का सन्दर्भ देखें तो पड़ताल के बाद हम समाधान खोजते हैं। जलने को लेकर एक धारणा थी कि पानी से अलग रखिए। अब क्या समझ है? सबसे पहले जले हुए स्थान पर ठंडा तेज पानी डालते हैं। अध्ययनों के प्रति हमारा मन खुला होना चाहिए। पहले के अध्ययनों पर ही नए निष्कर्ष निकाले हैं। नई विधियों को स्वीकारना ही चाहिए। बच्चों ने पारम्परिक तरीकों में तनाव और बोझ झेला है। हमारा आग्रह परम्परागत तरीकों के प्रति अड़े रहना नहीं होना चाहिए। बच्चों के लेकर हमारी समझ सीमित थी। जैसे-जैसे विकास होता है। ज्ञान का सृजन होता रहता है। पुष्टि होने के बाद नई समझ बनती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम पुराने ज्ञान और जानकारी को नकार रहे हैं। प्रयोग ही विज्ञान है। यह कहा जाता रहा है। अब प्रयोग के मायने नहीं है। मेढक को चीरते थे पहले अब हमने उन प्रयोगों को बंद किया है। आधुनिक समझ को खुले दृष्टिकोण से समझना होगा। यह महत्वपूर्ण है मुझे लगता है।

साहित्य और शिक्षा के दस्तावेजों के जानकार गुरबचन जी ने कहा,‘‘बच्चे जो रचते हैं वह उनकी अभिव्यक्तियां हैं। समृद्ध रचना के तौर पर न देंखे। पर वे श्रेष्ठ रचनाएं नहीं हैं। पर उन रचनाओं का संकलन हो, जरूर हो। मानक रचना तो नहीं कहेंगे लेकिन उनका सम्मान हो। जगह दी जाए। अपनी रचनाओं के प्रति बच्चों का जुड़ाव-लगाव है, उन्हें स्वीकार जाना चाहिए। वह लिखने के लिए उत्सुक होते हैं। पढ़ने की ओर जाते हैं।’’

136 श्रोता 6 बजकर 15 मिनट तक बने रहें। पाठ के अंत में दिए गए अभ्यासों से पाठ का उद्देश्य कहीं खत्म न हो जाए के सवाल पर उन्होंने कहा कि अभ्यास कार्य कम हैं जिनके उत्तर पाठ से ही मिलते हों। ज्ञान के नए स्रोतों तक पहुंचने के लिए बाध्य करते हैं अभ्यास है। शिक्षकों को कई बार ऐसे अभ्यास बोझिल इसलिए लगते होंगे क्योंकि शिक्षकों की तैयारी नहीं है। भाषा की दृष्टि से भाषाई विकास के उद्देश्य से रिमझिम जैसी किताबों की गतिविधियां बेहद महत्वपूर्ण हैं। पुरानी पाठ्य पुस्तकों में कमोबेश ऐसे अभ्यास नहीं थे। रिमझिम में जो अभ्यास हैं वे भाषा की नई समझ बनाते हैं। सोचने को बाध्य करते हैं ऐसे अभ्यासों का तो स्वागत किया जाना चाहिए। रिमझिम के अभ्यास समय लेते हैं लेकिन हैं महत्वपूर्ण हैं।

बाल साहित्य की भूमिका को भाषा शिक्षण की प्रक्रियाओं को समझने के लिए और भी बहुत कुद पढ़ने की ज़रूरत होगी। भाषा शिक्षण की नई समझ को जानने-समझने के लिए हमें और दस्तावेज पढ़ने होंगे। विधाओं को लेकर अच्छी पठन सामग्री पर चर्चा की आवश्यकता है। प्रभात जी का लेख विधाओं पर एक लेख है। पाठशाला भीतर और बाहर में। उसे भी पढ़ना चाहिए। भाषा शिक्षण में आ रहे नए अध्ययनों को समझने की ज़रूरत है। बाल साहित्य पर हम आज बात कर रहे हैं लेकिन आज भी कई शिक्षक और अभिभावक हैं जो शिक्षण में बाल साहित्य को बाधा के तौर पर देखते हैं। पाठ्य पुस्तकों को लेकर चिंताएं तो हैं। ऐसा कहते हुए कि पहले स्कूल की किताब या कोर्स तो पूरा करो,बाल साहित्य बाद में पढ़ो। यह समझ अभी टूटी नहीं है। समझ और अवलोकनों को समझने की आवश्यकता है। बाल साहित्य को शिक्षण के केन्द्रिय तौर पर देखने की ज़रूरत है। बच्चों की किताबों से सजी-संवरी लाइब्रेरी की सिफारिश की गई है। इस समझ का विस्तार करना ज़रूरी है। साहित्य की भाषा और पढ़ाई की भाषा को देखना होगा। पाठ्येतर साहित्य को बाधा के तौर पर देखना। प्रतिक्रिया देना खास है कि उच्चारण और शुद्धता पर जोर देना खास है? एक ओर बात जल्दी-जल्दी पढ़ना-लिखना सीखने पर जोर रहता है। यह देखना होगा कि मुश्किलें क्या हैं? जल्दी-जल्दी को परिभाषित करना होगा।

छःह बजकर पच्चीस मिनट पर 120 सहभागी बने रहे। अंत में प्रमोद पैन्यूली जी ने समेकन किया। उन्होंने कहा कि आज की बातचीत सार्थक रही। अंत में जगमोहन कठैत जी ने सभी का स्वागत और आभार प्रकट करते हुए कहा कि लगभग 150-155 साथी बातचीत में बने रहे। सभी का स्वागत करते हुए कहा कि हम एक प्रकार से घर पर बैठकर एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं। जुड़ै रहना इस समय में एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाना,समझ बनाना और सुनना महत्वपूर्ण है। निराशा से हटकर हम सामाजिक मुद्दों पर शैक्षिक विमर्शों पर बात करते हैं तो हमारी सोच-समझ का दायरा बढ़ता है। समस्याओं के समाधान के लिए अपने औज़ारों को समृद्ध करना-पैना करना आज की ज़रूरत है। यह कहकर धन्यवाद देते हुए समापन हुआ।

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-मनोहर चमोली ‘मनु’

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