बहुत पुरानी बात है। पहाड़ में एक गाँव था। गाँव में पानी का एक ही स्रोत था। गाँव वाले इसे धारा कहते थे। समूचा जन-जीवन इसी धारा के सहारे टिका हुआ था। पशु-पक्षी भी इसी धारा के पानी से अपनी प्यास बुझाते थे।


गाँव एक ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ था। पहाड़ी की ढलान पर खेत थे। जिसे गाँव वाले नीचे वाली धार कहते थे। धारा का पानी पहाड़ी से होता हुआ नीचे वाली धार में जाता था। इसी धारा से ही नीचे वाली धार के खेतों को सींचा जाता था।


गाँव के ठीक ऊपर वाली पहाड़ी पानी के अभाव में सूखी हुई थी। गाँव वाले इसे ऊपर वाली धार कहते थे। बरसात के दिनों में इस पहाड़ी पर घास उग आती थी। यह घास गाँव के मवेशी चर लिया करते थे। ऊपर वाली धार में मौसमी बारिश के सहारे कुछ पेड़ भी उग आए थे। इन पेड़ों से गाँववासी चारा-लकड़ी ले लिया करते थे। वे पेड़ भी अब धीरे-धीरे कटते ही जा रहे थे।


गाँव में एक बूढ़ा था। उसके सिर के बाल चाँदी की तरह चमकीले थे। दाढ़ी बर्फ की तरह सफेद हो गई थी। वह अकेला था। आपदा में उसका पूरा परिवार दब कर धरती में ही समा गया था। बूढ़े के काँधे में हर समय एक गमछा लटका रहता था। वह उस गमछे से कई काम लेता। तेज धूप में उसे सिर पर बाँध लेता। गमछे को बिछाकर बिछौना बना लेता। सुबह उठता तो गमछा उसका तौलिया बन जाता।


बूढ़ा धारा में जाता। दातुन करता और नहाता। फिर गाँव का एक चक्कर लगाता। यही उसकी दिनचर्या थी। गाँव वाले बूढ़े को बाबा कहने लगे थे। गाँववाले बूढ़े को खाना खिला देते। बदले में बूढ़ा गाँववालों के मवेशियों को जंगल में चराने ले जाता था। बूढ़ा खाली समय में गाँव की ऊपर वाली धार में चला जाता। वह उस धार में इधर-उधर घूमता रहता।


एक दिन की बात है। वह गाँव की ऊपर वाली धार में घूम रहा था। धार से गाँव दिखाई दे रहा था। बूढ़ा गाँव देखकर चौंक गया। गाँव में मकान ही मकान दिखाई दे रहे थे। कहीं भी एक पेड़ उसे नहीं दिखाई दिया। उसने गाँव के नीचे वाली धार को गौर से देखा। नीचे वाली धार में गाँव वालों के खेत थे। कई पीढ़ीयाँ इन खेतों में खेती करती मर-खप गई थीं।


बूढ़ा जोर से चिल्लाया-‘‘अरे। हमारे हरे-भरे खेत कहाँ चले गए?’’ बूढ़ा हैरान था। वह हँसने लगा-‘‘खेत तो अपनी ही जगह खड़े हैं। लेकिन खेतों की रौनक गायब है। हरियाली खो गई है।’’
यह बात सही थी। गाँव के खेत तो अपनी ही जगह खड़े थे। जहाँ वे वर्षों पहले पहाड़ का सीना खोद-खोद कर बनाए गए थे। सीढ़ीदार खेतों को देखकर बूढ़े को अपने दादा याद आ गए।


कभी बूढ़े के दादा ने बताया था-‘‘इन हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों को देख रहे हो न? यहाँ कभी खड़ा पहाड़ हुआ करता था। पहाड़ को चीर कर सीढ़ीनुमा खेत बनाए गए हैं। हमारे पुरखों ने पहाड़ों को खेतों में बदला है। दिन-रात एक करके पहाड़ की छाती पर फावड़ें, गैंतियाँ और नन्ही-नन्ही कुदालियाँ चलाई हैं। तब जाकर यह सीढ़ीनुमा खेत बने हैं। इन खेतों को हमारे पुरखों ने अपने खून से सींचा हैं।’’


बूढ़ा देर तक उस नीचे वाली धार के बंजर और उदास खेतों को देखता रहा। जहाँ कभी खेत थे। जहाँ कभी फसल बोते समय बैलों की घण्टियों से संगीत खनतकता था। जहाँ कभी फसल कटते समय सोने-चाँदी के जेवर पहने घर की सास-बहूए पहाड़ी गीत रचा और गाया करती थी। ऐसे खेत जो बारह मास हरे-भरे रहते थे। ऐसे खेत जहाँ हरियाली बिखरी रहती थी।


आज वही हरे-भरे खेत बंजर पड़े थे। जहाँ कभी हरियाली हरी-हरी लहरों की तरह झूमती थी, वहाँ खेत अब पीली, बदरंगी और मटमैली सीढ़ी की तरह दिखाई दे रहे थे।


खेत सुनसान क्यों हो गए हैं? बूढ़ा खुद से पूछ रहा था। खेतों की हरियाली क्यों गायब हो गई? वह यह सोचकर उदास हो गया। उसकी आँखें भर आईं। अचानक वह जोर से चिल्लाया। उसने गाँव की ओर देखा। उसके दोनों हाथ मुँह के पास तक आए। हाथ के पंजे बुढ़ापे के कारण काँप रहे थे। बूढ़े ने पुकारा-‘‘गाँव वालों। सुनो। यह गाँव बरबाद हो जाएगा। गाँव में बूढ़े, बच्चे और औरतें ही रह गईं हैं। जवान खून शहरों में खप रहा है। जो गाँव से गया, वो कभी नहीं लौटा। गाँव की रौनक कहाँ है? जवाब दो।’’

उसकी पुकार किसी ने नहीं सुनी। बूढ़ा हाँफने लगा था। थकान के चलते उसकी साँस जोर-जोर से चलने लगी थी। वह जहाँ खड़ा था, वहीं बैठ गया। बूढ़े ने अपने आप से कहा-‘‘केवल कोसने से कुछ न होगा। तू खुद कुछ क्यों नहीं करता? इस सूखी और सुनसान धार में कम से कम फूल ही लगा। कुछ करके दिखा। फूल खिलेंगे तो गाँव वाले देखेंगे। तब शायद उन्हें अहसास हो कि सूखे में भी फसल उगाई जा सकती है।’’


बूढ़े का चेहरा चमकने लगा। उसने अपने लिए नया काम ढूंढ निकाला था। वह और ज्यादा व्यस्त हो गया। अब वह इधर-उधर घूमता। सूखे हुए फूलों के बीज इकट्ठा करता। गाँव की ऊपर वाली धार में जाता। कुदाल से सूखी धरती को खोदता और बीज बिखेर देता। अब उसे बरसात का इंतजार था।
आषाढ़ आ गया। बादल नहीं बरसे। बूढ़ा उदास हो गया। उसने कुदाल फेंक दी। वह मवेशियों का हाँकता हुआ गाँव की ओर चल पड़ा। अचानक उसकी नजर एक चिडि़या पर पड़ी। चिडि़या पेड़ की डाल पर मिट्टी ला-लाकर घोंसला बना रही थी। बूढ़े ने गौर से देखा तो वह हैरान हो गया। वह चिडि़या दूर उड़कर जा रही थी। चिडि़या अपनी नन्हीं चोंच में गीली मिट्टी ला रही थी। दर्जनों चक्कर लगाकर कहीं वह गुठली बराबर मिट्टी जमा कर पा रही थी।


बूढ़ा बुदबुदाया-‘‘नन्हीं सी जान। कितनी मेहनत से अपना घोंसला बना रही है। मैं धारे से पानी लाकर भी तो इस धार की सूखी धरती को गीला कर सकता हूँ। फूलों के बोए गए बीजों को पानी दे सकता हूॅ।’’ बूढ़े ने जैसे सब कुछ तय कर लिया था। वह बड़बड़ाया-‘‘मैं हर सुबह मवेशियों को चराने ले जाता हूँ। उसी समय धारे से पानी भी लाऊँगा। उस पानी को बोए गए बीजों में डालूँगा।’’
बूढ़े ने ऐसा ही किया। कई दिनों तक बूढ़ा पानी ढोता रहा। सूखी धरती का गला जैसे तर हो गया था। कुछ ही दिनों धरती में बीजों में अंकुर फूट पड़े। मानो सैकड़ों नन्हीं-नन्हीं छतरियाँ निकल आई हों। बूढ़ा खुशी के मारे नाचने लगा। उसकी लाठी हवा में घूम रही थी।


प्रकृति भी बूढ़े के साथ हो गई। फिर एक दिन अचानक आसमान में बादल छा गए। बादल गरजे और घनघोर बारिश होने लगी। बूढ़ा बच्चों की तरह उछलने लगा। कई सालों के बाद वह बारिश में भीगा था। बारिश में भीगना उसे अच्छा लग रहा था। बीजों से निकले अंकुरों ने भी अपनी नन्हीं छतरियां त्याग दी। मानों वह बारिश का ही इंतजार कर रहे थे। पलक झपकते ही अंकुरित पौधों में नन्हीं-नन्हीं हरी पत्तियाँ निकल आईं।


बूढ़ा किसान का बेटा था। उसने कोई बीज पहली बार नहीं बोए थे। भूमि को पहली बार पानी से नहीं सींचा था। पेड़-पौधें की देेख-रेख करना उसके लिए कोई नई बात न थी। उसे खेती-किसानी का खूब अनुभव था। लेकिन वह फूल के नन्हे ंपौधों को गौर से देख रहा था। मानो किसी बच्चे ने पहली बार पूर्णिमा का चाँद देखा हो। खूब बारिश हुई थी। बूढ़ा था कि बारिश में भीगा जा रहा था। काफी देर तक जब बारिश रूकी नहीं तो उसने मवेशियों को हाँकना शुरू कर दिया। आखिर गाँव भी तो पहँुचना था। आज की शाम घने बादलों के कारण शाम से पहले घिर आई थी। चारों ओर अँधेरा छा गया था। बूढा ठंड से काँप रहा था। लेकिन वह बेहद खुश था। उसकी भूख गायब हो गई थी। नींद उसकी आँखोे से ओझल हो चुकी थी।


रात हुई। बूढ़ा थका हुआ था। अब बारिश थम चुकी थी। आसमान खुल चुका था। बूढ़ा खुले आसमान के नीचे गमछा बिछा कर लेट गया। आसमान में तारों की छतरी खुल चुकी थी। बूढ़ा चिल्लाया-‘‘अरे तारों। तुम तो सूरज के प्रकाश से रात को चमकते हो। बादल भी तुम्हें कई बार ढक देता है। मैंने तो सैकड़ों तारे ऊपर वाली धार में बो दिए हैं। वे कुछ ही दिनों में चमकने लगेंगे। उन तारों को किसी के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। तुम देखना। वे तुमसे ज्यादा रोशनी देंगे। वे रंग-बिरंगे तारे हैं। चमकीले और सुनहरे तारे हैं।’’


चाँद ने चाँदनी बिखेर दी थी। ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। बूढ़े का सारा शरीर ठंडा हो गया था। फिर बूढ़े के शरीर का ताप बढ़ गया। उसकी देह पसीने से लथ-पथ हो गई थी। जिस बूढ़े ने सूखी धार को हरा कर उसकी देह में रंग-बिरंगे फूल बो दिए थे। उस बूढ़े की देह आज थक चुकी थी। जिस बूढ़े ने दिन-रात एक कर बंजर पहाड़ी में प्राण फूँक दिए थे, उसके प्राणों को ठंड और तेज ताप ने हर लिया था। बूढ़े की आँखें खुली ही रह र्गइं। वह ऐसा सोया कि फिर उठ न सका।


सुबह हुई। गाँव वालों ने बूढ़े की देह को घेर लिया। किसी ने कहा-‘‘बाबा को गाँव की ऊपर वाली धार से बेहद प्यार था। बाबा का अधिकांश समय उसी धार में गुजरता था। हमें बाबा का अंतिम संस्कार उसी धार में करना चाहिए।’’


सबको यह सुझाव ठीक लगा। एक नन्हीं बच्ची भी वहाँ खड़ी थी। वह बोली-‘‘बाबा कहते थे कि उन्हें गाँव में खूब सारे पेड़ लगाने हैं। आसमान के तारों से भी ज्यादा। अब पेड़ कौन लगाएगा?’’ गाँव की एक बूढ़ी औरत ने बच्ची को गोद में उठाते हुए कहा-‘‘बेटी। हम सब पेड़ लगाएँगे। अब तेरे बाबा जी का वह काम हम सभी को करना होगा।’’ बच्ची बोली-‘‘दादी। मैं भी पेड़ लगाऊँगी।’


बूढ़े की शव यात्रा की तैयारी होने लगी। गाँव के ऊपर वाली धार में सैकड़ों रंग-बिरंगे फूल खिल चुके थे। वे गाँव के बाबा का का इंतजार कर रहे थे। हर कोई ऊपर वाली धार से आ रही सुगंध को महसूस कर रहा था। ऊपर वाली धार सैकड़ों रंग-बिरंगे फूलों से भरी हुई थी। इस धार को फूलों वाले बाबा ने नया जीवन दिया है। सब यही सोच रहे थे। वहीं बू़ढ़े की शांत देह का चेहरा मुस्करा रहा था।
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By manohar

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