इल्म में भी सुरूर है लेकिन
ये वो जन्नत है जिसमें हूर नहीं।
अल्लामा इक़बाल से सहमत हुआ जा सकता है।
दिलकश चेहरा। हर समय तरतीब से सँवारा हुआ। सिर पर बालों को हरदम बिछाया नहीं बल्कि ऊपर की ओर फैलाया हुआ। आँखें उम्मीद से कम खुली रहतीं लेकिन मन-मस्तिष्क औसत से ज़्यादा सोच-विचार की रौशनाई में चलायमान रहता। अच्छा-ख़ासा क़द। औसत से ज़्यादा। आलिम इंसान। भाषाओं के मामले में उदारवादी लहज़ा भी और दृष्टिकोण रखने वाला अध्येता। ज़बान से ज़्यादा नज़र इधर-उधर दौड़ती। अल्फ़ाज़ ठहरकर थमकर निकलते हैं। नपे-तुले। अपना अनुभवी संसार यूँ ही सबके सामने बिछाने से इतर सामने वाले की कैफ़ियत को समझने में दक्ष। यायावरी को तड़पता मन। प्रकृति के नज़ारों का लुत्फ़ उठाने वाला बालमन। हो-हल्ला, हुड़दंग की बजाय शांत और वीरान जगहों की तलाश में फिरता आवारा मन।
जी, बता रहा हूँ। मैं बात कर रहा हूँ राकेश मोहन ध्यानी की। आप में से कुछ कह सकते हैं कि हम तो पहचान गए थे। कुछ जानना चाहेंगे। उत्तराखण्ड के शिक्षा विभाग में अंग्रेज़ी के प्रवक्ता हैं। कोटद्वार में रहते हैं। सामाजिक सरोकारों और उचित बात का नुत्क़ रखते हैं। यह आज के दौर में दुलर्भ हो गया लगता है।
बहरहाल, मुझे याद है कि राकेश मोहन ध्यानी से मेरी चार-पाँच मुलाक़ातें हैं। चलते-चलते या खड़ा-खड़ी मुलाक़ातें। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मिल-बैठकर बातचीत हो। एक-दूसरे को सुना-समझा जाए। लेकिन पहले ही आत्मीयता से मिलना। अपने बारे में बताना उनके सरल स्वभाव की पहचान मेरे ज़ेहन में थी।
इस बार विभाग की हमारी विरासत पुस्तक लेखन के सिलसिले में दूसरी बार मिलना हुआ। पिछली बार समय निकालकर डायट में ही नशिस्त जमी। राकेश मोहन ध्यानी की निज़ामत में वह शानदार काव्य गोष्ठी अभी तक याद है।
पढ़ते-लिखते, घूमते, बतियाते और अपने अनुभवों को करीने से सहेजते-बाँटते राकेश मोहन संवेदना के स्तर पर भी यारबाश इंसान हैं। वह गढ़वाली,हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा पर समान अधिकार रखते हैं। तीनों भाषाओं में लिखते हैं। इन भाषाओं के क़लमकारों को पढ़ते हैं। गढ़वाली में ग़ज़ल लिखते हैं। सम-सामयिक मुद्दों पर उनकी नज़र रहती है। खुद को अभिव्यक्त भी करते रहते हैं। यदि उनका साथ-संग मिले तो लपक लेना चाहिए। चूकना भारी भूल होगी।
बातों ही बातों में बहुत सी बातें समझ में आएंगी। मसलन यारी क्या है। सहज जीवन क्या है। स्कूली जीवन में क्या ज़्यादा ख़ास है। सामाजिक जीवन और समाज के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी क्या है? बतौर आदमी जीवन जीते समय क्या-क्या छोड़ना उचित रहता है? हस्तक्षेप क्यों ज़रूरी है? ऐसे तमाम मुद्दें हैं जिन पर अपनी समझ तभी बनती है जब राकेश मोहन ध्यानी जैसा व्यक्तित्व आपके आस-पास होता है।
तो, ऐसे इंसान को बड़ा भाई, दोस्त, सलाहकार, साथी या संक्षिप्त हमकदम के तौर पर ही सही अपने बीते या मौजूदा समय का हिस्सा बनाना चाहेंगे?