आज के हालात
एक वक़्त था जब हमने मिलकर उन्हें खदेड़ दिया था। उन्हें जो हमारी छाती पर चढ़ गए थे। वे तो मान चुके थे कि अब वे यहाँ से कभी नहीं लौटेंगे। उन्होंने हमारा सोना-जागना, चलना-फिरना तय कर दिया था। वह दंभ भरकर कहते थे कि हमारे राज में सूरज अस्त नहीं होता। फिर हमने इक सपना देखा। वे कौन होते हैं तय करने वाले कि हम कब जागे और कब सोयें? वे कौन होते हैं हम पर चौधराहट गाँठने वाले? फिर, एक दिन आया कि उन्हें हमारा सब कुछ हमें लौटाना पड़ा और अपने देश जाना पड़ा।
फिर पता नहीं क्या हुआ। हम ही तमाशबीन हो गए। हम एक थे। रातों-रात एक नई सरहद बना दी गई। मैं पूरब और मेरा बड़ा भाई पश्चिम हो गया। भगदड़ मची हुई थी। कल तक एकजुट रही अवाम बंट गई। पूरब-पश्चिम की ओर दौड़ने लगी। मार-काट, रोना-चिल्लाना हुआ। कुछ डरे, सहमे तो कुछ इत्मीनान से अपनी जगह ही रहे। हिले तक नहीं।
मैं ! छोटा था तो छोटा ही रह गया। आज तक छोटा ही रह गया। छोटा होना अपराध नहीं है। लेकिन बड़े भाई से अलग होकर आज तक पनप नहीं पाया। पिछड़ता चला गया। बड़ा भाई तरक्की पर तरक्की करता गया। कुछ गलतियाँ मैंने भी की। कुछ गलतियाँ मुझ पर थोपी गईं। लेकिन, खून तो एक ही था। जो हमारे अपने नहीं थे। हमारे बीच दरार पैदा करते चले गए। आज भी मौका देखते ही खाली-पीली बीच-बचाव की घोषणा करने से बाज़ नहीं आते।
ख़ैर. . . .! मेरी पूरबी मिट्टी खास है। सूखे मेवे, तरबूज और आम बदस्तूर बड़े भाई को भेजता हूँ। बड़ा भाई बहुत ही धार्मिक है। पूजा-पाठी है। उपवासी भी है। सेंधा नमक उसकी भक्ति में मेरा ही काम आता है। बड़े भाई और मेरे बीच कँटीली तारें हैं। बन्दूकें तनी हैं। तो क्या हुआ? मेरा सल्फर, पत्थर और चूना बड़े भाई के घर में खूब उपयोग होता है।
बड़े भाई के यहाँ की औरतें बहुत प्यारी हैं। आज भी कौन-सा रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है? वहाँ औरतें खूबसूरत हैं। उनके चेहरे की सुन्दरता में मेरी मुलतानी मिट्टी का लेप खू़ब काम आता है। दुकान-दर-दुकान में मिलती है।
एक ज़माना था जब मेरा बड़े भाई से ही अपनी ज़रूरत का सत्तर फीसदी लेन-देन होता था। आज वह बहुत ही कम हो गया है। मेरे पास लोहा, ताँबा, एल्युमीनियिम, स्टील, कोयला, कीमती पत्थर और रासायनिक चीज़ें हैं। उसमें बड़े भाई की खु़शबू आती है। वह आज भी भेजता है। मुझे अच्छा लगता है।
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि जुदा-बँटवारा होना अलग बात है। खाना-कमाना अलग बात है। लेकिन वे कौन लोग हैं जो बावजूद इसके भी हमारे रहे-बचे-खुचे रिश्ते को तार-तार करने में लगे हैं? मुहब्बतें, इंसानियत, पुश्तैनी आंच, आवाजाही को भी चिन्दी-चिन्दी करना चाहते हैं! उनके मुँह में आग लगे।
मैं तो अपनी फ़िक्र में मरा जा रहा हूँ। मेरी आबादी से ज़्यादा तो बड़े भाई के यहाँ भिखारी होंगे। मेरी एक फसली की पैदावार से ज़्यादा तो बड़े भाई के यहाँ एक दिन में हगा जाता होता। बड़े भाई ने चाँद पर छलाँग लगाई। मेरा सीना भी छत्तीस इंच का हुआ जाता था।
मैं दुआ करता हूँ कि मेरे भाई का साइन्टिफिक टैम्परामेन्ट दिन दूना रात चौगुना बढ़े। बढ़ता जाए। इतना बढ़े कि गोरे क्या, चीन-फीन, अमेरिका-फमेरिका, रूस-फूस जैसे देश दाँतों तले अंगुली चबा लें। बड़े भाई के साइंसदाँ दुनिया की तरक्की और अमन के लिए एक से बढ़कर एक आविष्कार इज़ाद करे। वह कुछ ऐसा करे कि युद्ध को आमादा मुल्क शांति का पैगाम उसी से लिखवाएँ।
इन दिनों पश्चिम से आ रही हवा की तासीर कुछ और ही इशारा कर रही है। मैं चाहता हूँ कि बड़े भाई के यहाँ सब खै़रियत रहे। अरे ! वहाँ जितना तेल-बाती दियों में खपता है वह मुझे मिल जाए तो मेरी आवाम दो साल मुफ़्त में खाए और ओढ़े। तालीम और इबादत में मुझे कुछ नहीं कहना। बस इतनी ख़्वाहिश तो रखना चाहता हूँ कि बड़े भाई का भक्तिकाल की ओर झुकना, झुकते-झुकते इतना झुक जाना कि उसकी हँसी-ठिठोली न हो। एक-दूसरे की हँसी-खुशी में शामिलात होना अलग बात है। लेकिन दिखा-दिखाकर मखौल बनाना या चिढ़ा-चिढ़ा कर ठट्टा लगाना दूसरी बात है।
मुझे मालूम है कि बड़े भाई के मसअलों से इतर मुझे अपनी फिक्र करनी चाहिए। मगर क्या करूँ? दूरी भले ही हो लेकिन देह में गंगा-जमुनी संस्कृति तो एक ही है। मेरा और उसका कल, आज और कल कोई मिटा नहीं सकता। मुझे लगता है आज का यह दौर इतिहास की पोथी का एक पन्ना मात्र है। एक दिन पढ़ लिया जाएगा। फिर नया पन्ने की नई इबारत पढ़ी जाएगी।