भारत में पहली बाल साहित्य अकादमी की पहल


हिंदी पट्टी के लिए यह आशावादी बीज है। जिसे उचित खाद, पानी, हवा, प्रकाश और मनुष्यता का स्नेह मिलेगा तो यह बीज पल्लवित होगा। पौधा बनेगा और सदाबहार वृक्ष बनेगा। ऐसी आशा की भी जानी चाहिए। बावजूद इसके कि नंदन से पूर्व पराग और चंदामामा जैसी पत्रिकाएं बंद हो गईं। अखबारों से बाल स्तम्भ गायब हो गए। हिन्दी की जगह अंग्रेजी भाषा की किताबें पढ़ने का चलन बढ़ने लगा। भाषा कोई भी हो यदि पढ़ी जा रही हैं तो कहा जा सकता है कि पठन कौशल बढ़ रहा है।

‘सतरंगा बचपन’ बाल साहित्य के लिए नई पत्रिका है। प्रवेशांक आ चुका है। आवरण बालमन के नजदीक है। आवरण बनाया किसने है? नामूलम। मूल्य तीस रुपए रखा गया है। बाल साहित्य की नई आमद का स्वागत किया जाना चाहिए। ये ओर बात है कि इसे प्रकाशित करने में आतुरता ज़्यादा दिखाई दे रही है। राजस्थान से यह पत्रिका इसलिए भी याद की जाएगी क्योंकि भारत में संभवतः किसी राज्य में कोई बाल साहित्य अकादमी है। इस अकादमी का नाम पं. जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी है।

पत्रिका को पढ़ते समय कई सवाल उठते हैं। क्या यह राजस्थान के लेखकों को ही प्रमुखता से स्थान देगी? क्या पत्रिका के पाठक बड़े यानि प्रौढ़ होंगे? प्रवेशांक से तो यही लगता है कि यह पत्रिका बच्चों से अधिक बड़ों की है। बड़ों के लिए है। बड़ों के द्वारा तैयार की गई है। बाल पत्रिकाएं बड़े ही तैयार करते हैं। लेकिन बच्चों को केन्द्र में रखकर तैयार करते हैं।

बाल साहित्य साधकों को समझना चाहिए कि बच्चे भी इसी दुनिया का हिस्सा हैं। उन्हें पढ़ने के लिए स्वछंद माहौल दिया जाना जरूरी है। हमें सोचना होगा कि बच्चे गाड़ियों, मोबाइल, रिमोट और फास्ट फूड की ओर तो आकर्षित हो जाते हैं लेकिन स्कूली किताबों से हटकर साहित्य पढ़ने में भी वह असहज होते हैं। क्यों? स्कूल अवधारणात्मक समझ से इतर परीक्षा के लिए रटने वाली सामग्री का अंबार लगाता रहा है। कहीं भी सौंदर्य और संवेदनशीलता के बढ़ाने के प्रयास नहीं दिखाई देते। ऐसे में पत्रिकाएं और बाल साहित्य से उम्मीद जगती है कि वह यह काम करे। मगर जबरन नहीं। क्या पत्रिकाएं यह कर पा रही हैं?

बहरहाल, आवरण पृष्ठ सहित चार पन्ने रंगीन हैं। लेकिन इन रंगीन पन्नों में बचपन एक सिरे से गायब है। कमोबेश सारे चित्र और सामग्री पौढ़ों से अटी पड़ी है। सतरंगा बचपन तो दूर बचपन की आहट भी इन रंगीन पन्नों में नहीं दिखाई देती। पत्रिका में छिहत्तर पन्ने हैं। आरम्भ के बारह पन्ने उपदेशों-संदेशों से पुते हुए हैं। सीख-संदेश और उपदेशों से भरे पन्नों का बच्चों से क्या मतलब है? यह अकादमी शायद अगले अंकों में बताएगी।

इस प्रवेशांक के आवरण को भी शामिल कर लें तो यह पत्रिका नेहरूंगा है सतरंगा नहीं। राजस्थान के मुख्यमंत्री का सन्देश सतरंगा बचपन पर ऐसा पड़ा, ऐसा पड़ा कि पूरीा पत्रिका नेहरू जी पर केन्द्रित हो गई लगती है। मुख्यमंत्री के सन्देश में लिखा था-‘आशा है पत्रिका में पं. जवाहर लाल नेहरू के आदर्शों, जीवन मूल्यों और बच्चों के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से उनके उद्गारों के साथ ज्ञानवर्द्धक सामग्री का समावेश किया जा सकेगा।’

बस फिर क्या था! अकादमी सतरंगा बचपन का ध्येय भूलकर नेहरू जी की जीवनी पर केन्द्रित हो गई। लगभग अठारह पन्नों में नेहरू केन्द्रित सामग्री का भरपूर समावेश है। बाल साहित्य सामग्री का छिहत्ता पन्नों में फैलाव देखें तो यह कुल अड़तीस फीसदी है। इस अड़तीस फीसदी सामग्री को बच्चे कितना पढ़ेंगे? यह अलग सवाल है | लेकिन बासठ फीसदी पन्नों पर रचना सामग्री बड़ों के लिए है या हम कह सकते हैं कि उन्हें बच्चे संभवतः पढ़ना नहीं चाहेंगे। मुझे लगता है कि पत्रिकाओं में बाल साहित्य नई दृष्टियों वाला होना चाहिए ! अन्यथा यह पिसे हुए आटे को पिसना ही माना जाएगा।

मुझे एक पत्रिका की याद आ जाती है। नाम बालमन के बेहद करीब का रखा हुआ था। जब सवाल खड़े हुए कि यह तो किशोरों और प्रौढ़ों की रचना सामग्री से ओत-प्रोत है तो स्वामी-मुद्रक-प्रकाशक और संपादक महोदय ने लिखित में बताया है कि यह पत्रिका बाल साहित्य शोध की पत्रिका है। किशोरों की पत्रिका है। इस पर भी वे बाल साहित्य पर सम्मान लेने में नहीं हिचके। बाल साहित्य के नाम पर मठाधीशी करते रहे।

इसी तरह संभवतः इस पत्रिका की आमद दिखाई दे रही लगती है। फोंट तो अच्छा है लेकिन पेजों की साज-सज्जा कंतई बालअनुकूल नहीं है। पत्रिका में पूरी एक लाइन पढ़ना पाठक की विवशता है। अच्छा होता, पत्रिका दो कालम में होती। बच्चों की आंखों को थकाने वाली पूरी लाईन रखने का औचित्य समझ नहीं आया। पद्य ज़रूर एक से अधिक कालम में रखी गई हैं ! नेहरू पर केन्द्रित साहित्यकार चाँद मोहम्मद घोसी की कविता पर ज़रूर उनका ही बनाया चित्र है। यानि अकादमी ने आवरण पेज को छोड़कर एक भी पन्ने पर चित्र बनाना मुनासिब नहीं समझा।


इस प्रवेशांक को पढ़ते हुए मन में विचार आता है कि आखिर नई पौध में नए विचार क्यों कर नहीं आ रहे होंगे? एक कारण तो यह है कि उन्हें बारम्बार ढर्रे का, पुराना और घिसा-पिटा ही परोसा जा रहा है। पढ़ना एक भाषिक क्षमता है। यह भी सुनने, बोलने और लिखने जैसा जरूरी है। लेकिन पढ़ना और सार्थक पढ़ना कैसे होगा? क्या स्कूल बच्चों की तीव्र वृद्धि के दौर को समझ रहे हैं? यदि नहीं तो बाल पत्रिकाओं को यह काम करना चाहिए। बच्चों की क्षमताओं, अभिरुचियों और दृष्टिकोण को समझते हुए रचना सामग्री का प्रकाशन किया जाना चाहिए।

अकादमी को तय करना होगा कि सतरंगा बचपन का पहला पाठक कौन होगा? साहित्य की कई विधाएं होती हैं। उन विधाओं को भी स्थान देना होगा। बच्चों को लंबे-लंबे आलेख क़तई पसंद नहीं आते। अमूमन बच्चे पढ़ने के प्रति उदासीन तक हो जाते हैं। अकादमी को समझना होगा कि स्कूली बच्चों को पाठ्य पुस्तकों और उनके विद्यालयी पुस्तकालयों से इतर कैसी पठनीय सामग्री देनी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सूचना, ज्ञान और जानकारी ठूँसने का एक उपक्रम यह पत्रिका न हो जाए! पुस्तक समीक्षा को देने औचित्य भी समझ नहीं आता। यदि बहुत जरूरी है तो पुस्तकों की बेहद संक्षिप्त समीक्षा हो | बच्चों को यह लगे कि इस पुस्तक को तो पढ़ना ही चाहिए। पत्रिका में दी गईं पुस्तक समीक्षाएं ऐसी ललक नहीं जगातीं।

आजादी के समय का एक प्रसंग जो जवाहर लाल नेहरू जी से संबंधित है-परिंदों को भी आज़ादी चाहिए। यह पत्रिका के आरंभ में ही है। लेकिन बच्चों को पढ़ने की कैसी आजादी चाहिए? इस सवाल पर ही नहीं सोचा गया। संदेशों की भरमार में माननीय मंत्री जी का दो पेज का संदेश बच्चों पर अत्याचार नहीं है ? वह भी ठूंस कर सीख-सन्देश से भरा सन्देश!

अकादमी के अध्यक्ष महोदय ने तो हद ही कर दी। एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं पूरे चार पेज का लंबा-चौड़ा नेहरू विमर्श ही परोस दिया! अलबत्ता, संपादकीय जरूर देश भर के रचनाकारों से जुड़ने की अपील करता है। अगर अकादमी को देश भर से रचनाएं मिली हैं तो फिर उनका प्रतिनिधित्व तो यहां दिखाई देना चाहिए था! मेरा दृढ़ मत है कि अभी पत्रिकाओं में यह समझ कमोबेश पैदा ही नहीं हो पाई है कि बच्चों को खुराक के तौर पर ऐसी आनन्ददायी रचनाएं देनी होगी जो उनमें अवलोकन, अन्वेषण और विश्लेषण सहित विमर्श की क्षमता बढ़ाए।

तैंतीस पेजों पर बाल साहित्य विमर्श ठूंस कर भरा हुआ है। बच्चों पर रहमदिली यदि यह आलेख दिखाते तो तीन आलेख तीन-तीन पेज के न होते। एक आलेख तो पांच पेज का है। चार पेज से पुते आलेखों की संख्या भी चार है। यही नहीं, अकादमी की गतिविधियों से नौ पेज भर दिए। अरे ! यह बाल पत्रिका है या अकादमी की गतिविधि पत्रिका? हाँ ! बाल केन्द्रित गतिविधियां होतीं और वह भी इतनी खास ! उन्हें रेखांकित किया ही जाना लाज़िमी है तो एक पन्ने पर उन्हें समेटा जा सकता था।


बाल साहित्य के जानकारों के अनुसार बच्चों के लिए साठ फीसदी चित्र और चालीस फीसदी शब्द से ओत-प्रोत रचना सामग्री मुफ़ीद रहती है। कहा भी गया है कि एक चित्र हज़ार बयान। लेकिन यहाँ चित्र के नाम पर संदेशों की भरमार वाले पन्नों में माननीयों को पासपोर्ट आकार के फोटो जरूर चस्पा हैं। पूरी पत्रिका में रेखांकन – पेंटिंग्स या फोटो तक नहीं हैं !

रस्म अदायगी भी औपचारिक निपटाई जाती है। यहाँ तो अनुक्रम में पाठक यह नहीं समझ पाएगा कि बाल फुलवारी के नाम पर परोसी गई रचनाएं हैं क्या! कविता है या कहानी या कुछ भी मान लें। विधा का परिचय अनुक्रम में नहीं दिया गया है। गिरीश पंकज की कविता सतरंगा बचपन ज़रूर बाल मन के अनुकूल लगी। लेकिन गिरीश पंकज हैं कौन? किस राज्य के हैं? नामालूम। महबूब अली की कविता भारत के भरत, विष्णु हरिहर शर्मा की कविता पत्रिका आई है बच्चों भी पत्रिका में है। चाचा नेहरू आर.एल.दीपक की कविता है। दिविक रमेश की कविता होमवर्क बच्चों से होमवर्क के पक्ष में खड़े होने की ध्वनि देती प्रतीत होती है। अलबत्ता कविता सूरज, नदी, सड़क, बादल, पेड़, पहाड़ और जंगल को भी होमवर्क करती बताती है। जिससे लगता है कि बच्चे भी यह मान लें कि होमवर्क करना है तो करना है। भार्गव नारायण रावत की कविता वर्षा आई भी पत्रिका में है। दोस्त बनाओं का तीव्र आग्रह पवन पहाड़िया के बाल गीत में प्रचण्डता के साथ आया है। पुस्तक को तुम दोस्त बनाओ। वहीं रामरतन मीणा की कविता मेढक भी है।

यह समझ में नहीं आया कि बाल काव्य और बाल कविता में क्या अंतर होता है? बाल काव्य के तौर पर लँगड़ी खेलें आचार्य संजीव वर्मा उपस्थित हैं। लँगड़ी का चित्रण बखूबी हुआ है। बाल कविता के तौर पर चाचा नेहरू हमारे हैं राजेश दुलारी सान्दू भी उपस्थित हैं। अहा! गर्मियों वाली छुट्टी मुकेश पोपली की कविता है। कहन शानदार बन पड़ा है-मई और जून दो महीने, पूरे साल के यही नगीने। इस कविता में बच्चों की दुनिया की शानदार ध्वनि है।

राजलक्ष्मी जायसवाल की कविता आम भी है। यह रचनाकार स्नातक के प्रथम वर्ष की छात्रा हैं। भगवती प्रसाद गौतम की कविता जन्म दिवस नाना का पत्रिका में है। यह बाल ध्वनि की कविता है। एक बच्चा अपने नाना का जन्म दिन कैसे मनाता है। क्या सोचता है। इसका उल्लेख कविता में आया है। शानदार! मिट्ठू डॉ. सुरिन्दर कौर नीलम की है। एक बिटिया पक्षियों को दाना-पानी देने की बात करते-करते अपने मन की बातें कहती हैं। इस कविता में भी बालमन की उड़ान है। राघव शर्मा की कविता छुट्टी आई भी यह कक्षा आठ में पढ़ने वाले छात्र की है। छोटी-सी कविता की आवाज़ बुलंद है। हेमा चंदानी का बाल काव्य के तहत बाल गीत भी छपा है। विमला रस्तोगी की कविता मिट्टी बचाओ भी पत्रिका में है। क्षमा करो सूरज दादा देवेन्द्र भारद्वाज की कविता है।

मुझे पता नहीं क्यों लगता है कि रचनाओं में प्रकृति के स्वभाव को कोसा क्यों जाता है? गर्मी, सरदी, बरसात को कोसने वाली रचनाएं बदस्तूर लिखी जा रही हैं। इसी तरह कौआ, सांप, लोमड़ी, सियार को हम खलनायक बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? अलबत्ता भूकंप, बाढ़, आपदा पर संवेदनशील रचनाएं हों तो बात बने। अवश्यम्भावी घटनाओं पर हमारा कोई वश है? सूरज को कोसने से उसकी तपन कम न होगी।

सुपरिचित साहित्यकार चाँद मोहम्मद घोसी का हस्तलिखित पन्ना भी है। लेकिन वह इतना घना बना दिया गया है कि रचनाकार का नाम भी कविता का हिस्सा हो गया लगता है। मां अथर्व वशिष्ठ की कविता है। वह कक्षा नौ में पढ़ते हैं। अंजीव अंजुम की कविता श्याम की दीवानी मीरा भी शामिल है। इस तरह की कविता का प्रयोजन पाठ्य पुस्तक में रसखान, केशवदास की याद दिलाती है।

कहानियों में डॉ.फ़कीरचंद शुक्ला की तीन पेज की कहानी मिठाई तो खिलाओ, तीन पेज की ही हरीश कुमार की कहानी बचत की खुशी भी है। फारूक आफरीदी की कहानी चश्मा पत्रिका में है। तीन पेज की कहानी जानवर हमारे साथी मनोहर सिंह राठौड़ की है। बचपन का संघर्ष डॉ. विद्या चौधरी की बाल लघु कथा है। दादू की छड़ी नवनीत पाण्डे की कहानी है। दादू की छड़ी के टूटने का किस्सा वास्तविक तरीके से आया है। बढ़िया! टमकू-चमकू: मिला मौत से छुटकारा भरतचन्द शर्मा की कहानी है। वही चाहिए वाली ध्वनि की कहानियां अभी भी धड़ल्ले से लिखी जा रही हैं। बाल-मन रशीद ग़ौरी की कहानी है।

एक बात यह भी समझ में नहीं आई कि पढ़ाई करना पढ़ना-लिखना और काम करने से मना करता है? क्या काम करते-करते पढ़ना इतना कठिन काम है? कथावस्तु अच्छी थी लेकिन उसे आदर्श की अतिरंजना में पिरोकर आनंद कम कर दिया गया है।

एकांकी भी पत्रिका में है। नीम तले मुस्कराएँगे। माणक तुलसीराम गौड़ ने इसे लिखा है। यह अच्छी बात है कि उन्होंने संदेशों और उपदेशों की तरह पात्र नहीं ठूंसे हैं। चार पात्रों के जरिए एकांकी आगे बढ़ता है। इसे बाल केन्द्रित रचना कहा जाना उचित होगा। हालांकि इसे छोटा लिखा जा सकता था। यदि यह अभिनीत किया जाएगा तो बीस मिनट की अवधि से ज़्यादा समय नहीं लेगा। यह अच्छी बात है।

राजेन्द्र मोहन शर्मा का आलेख बच्चों की सोच में झलकता वैज्ञानिक नजरिया भी पत्रिका में छपा है। चार पेज का घना और सूचनात्मक आलेख। हालांकि यह कई सारी बातों का खुलासा करता है। यह पत्रिका में छपे अन्य आलेखों से बढ़िया है। लेकिन आलेखों से बाल पत्रिकाओं को बचना चाहिए। बहुत जरूरी हुआ तो वह चित्रकथा के तौर पर आए। वह भी एक अंक में एक। यहां तो आलेखों की बाढ़ आई हुई है।

साहित्य में वह ताकत है जिसे पढ़कर पाठक आनन्दित होता है। पाठक एकला चलो रे की रीति छोड़ता है। उसे भान हो सकता है कि इस दुनिया को सँवारने में वह भी एक नायक हो सकता है। साहित्य पाठक में यह समझ भी पैदा कर सकता है कि वह भी सामूहिकता में हिस्सेदार बने। वह भी सहकारिता और सामुदायिकता में भागीदार हो। साहित्य हाशिए के समाज को अपमानित करने के लिए नहीं है। वह उस वंचित समाज को भी रेखांकित करता है जो आज भी मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सका है।
स्कूली किताबों का अपना ढांचा होता है। एक बाध्यता होती है। वह सीमाओं से मुक्त नहीं होती। साहित्य स्वतंत्र है। बाल साहित्य तो वह काम कर सकता है जो न घर-परिवार-स्कूल नहीं कर पाते। साहित्य बच्चों के सार्वभौमिक विकास में महत्वपूर्ण कड़ी हो सकता है। साहित्य बच्चों को समृद्ध करे। उन्हें रुचिकर सामग्री प्रदान करे। साहित्य की तमाम विधाएँ बच्चों को भिन्न-भिन्न परिवेश से परिचित कराती हैं। बच्चे अपने अनुभवों से दूसरों के प्रति संवेदनशील होने लगते हैं। लेकिन यह दाल में नमक की तरह हो। आनंददायी साहित्य वहीं है जो उपदेश न देने लग जाए। यह काम समाज में पहले से ही ग्रन्थ, बुजुर्ग, अध्यापक कर ही रहे हैं। यदि साहित्य भी यही करेगा तो बच्चे उस ओर पीठ कर लेंगे।

यदि आलेखों को भी रचनाएं मान लें तो पंजाब, हरियाणा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और दिल्ली की एक-एक रचना शामिल हुई हैं। वहीं सभी रचनाओं में अकेले राजस्थान की तीस रचनाएं प्रवेशांक में हैं। तिरासी फीसदी रचनाएं राजस्थान की ही हैं। बढ़िया। राजस्थान की अकादमी है तो राजस्थान को बढ़ावा मिलना ही चाहिए।
और अंत में रचनाकारों से भी निवेदन है कि पत्रिका में बार-बार छपी हुई रचनाएं न भेजें। उन रचनाओं को भी न भेजें जो दो-तीन पत्रिकाओं में भेजी जा चुकी है और वहां भी प्रकाशित नहीं हो पाईं। यदि इस पत्रिका को नायाब बनाना है तो रचनाकारों को चाहिए कि उन बच्चों को ध्यान में रखकर रचनाकर्म करें जिनके जीवन के बारे में नामचीन पत्रिकाएं कुछ भी नहीं छापती। संभव है सतरंगा बचपन आपकी नई, लीक से हटकर लिखी और संवेदनाओं से भरी रचना को हाथों-हाथ ले और प्रकाशित करे।

पुनश्चः मैंने यह नहीं कहा कि पत्रिका खराब है ! मेरी सीमित नज़र में पत्रिका कैसी है। इस पर लिखा है । शेष तो पाठक तय करेंगे | सतरंगा बचपन कितना बालपन लिए बड़ा होगा ? यह समय बताएगा !

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By manohar

9 thoughts on “बाल पत्रिका: सतरंगा बचपन”
  1. मनोहर जी आप बहुत अच्छे पारखी भी हैं और समीक्षक भी। यह सटीक और बेबाक़ समीक्षा है । ऐसी समीक्षाएं कम आती हैं यही कारण है कि बाल पत्रिकाएं एक तयशुदा ढर्रे पर जा रही हैं।
    ‘सतरंगा बचपन’ के लिए बहुत काम की है यह समीक्षा।
    पढ़ती हूं मैं भी.

      1. मनोहर जी,
        नमस्कार
        मैं उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रेलवे इंटर कॉलेज में हिंदी विषय का प्रवक्ता और एक साहित्यकार हूँ। आपके संपादन में राजस्थान से बाल पत्रिका ‘ सतरंगा बचपन ‘ प्रकाशन हो रहा है, जानकर बहुत खुशी हुईँ।
        आपको इस नेक कार्य के लिये साधुवाद।
        यदि संभव हो मेरे व्हाट्सएप नंबर पर सतरंगा बचपन पत्रिका की pdf भेज दीजियेगा। मैं भी आपकी पत्रिका में रचनात्मक सहयोग दूंगा।- शरद कुमार वर्मा , 9838214110

  2. सादर नमन
    मुझे बाल साहित्य में अभिरुचि है। मैं एक शिक्षक और बाल साहित्य का अध्येता हूँ। सतरंगा बचपन का लोकार्पण/शुभारंभ सुखद समाचार है। समूची टीम व आपको सहृदय शुभकामनाएँ।
    मैं इसका प्रत्येक अंक प्राप्त करने का आकांक्षी हूँ। कृपया उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु आवश्यक प्रक्रिया साझाकर अनुगृहित कीजिए।

    कन्हैया साहू ‘अमित’
    शिक्षक- भाटापारा छत्तीसगढ़
    चलभाष- 9200252055

    1. जी मुझे बताया गया है कि अकादमी के सचिव ने यह पूरी समीक्षा पढ़ने के लिए मँगवाई है। बताया जा रहा है कि वह सुधार के आकांक्षी हैं। मालूम नहीं कि सुधार हुआ या नहीं? प्रवेशांक के बाद दूसरा अंक आया कि नहीं? पता नहीं।

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