उत्कृष्ट शिक्षक पुरस्कार तो उन्हें कई बार प्राप्त हो चुका है
फेसबुक भी कमाल है ! यहाँ सब छिछोरे और वाहियात नहीं हैं। गंभीर, सुधी और अपनी धुन में काम करने वाले लगनशील लोग भी हैं। अक्सर फेसबुक से खार खाए हुए लोग भी मिलते हैं। यह समय बहुत खाता है। यहाँ गंभीरता नहीं है। यह सिर्फ टाइमपास टाइम साधन है। ऐसे जुमले आए दिन सुनने को मिलते हैं। लेकिन मुसाफिर हूँ यारो के नाम से चर्चित सुरेन्द्र कुमार आर्यन फेसबुक में ही मिले। फिर एक दिन मोहन चौहान जी ने बताया कि मुसाफिर हूँ यारों उत्तराखण्ड खासकर रंवाई जौनपुर, बंगाण और जौनसार क्षेत्र से सम्बन्धित शानदार पोस्ट करते रहते हैं। वे पठनीय होती हैं। बात आई-गई हो गई।
तूलिका और मोहन चौहान जी के साथ अपन मौण्डा होते हुए आराकोट आए। छिबरो, इछाड़ी वाया मीनस होते हुए हम गए थे। विचार बना कि मोरी पुरोला होते हुए लौटा जाए। हम त्यूनी से मैन्द्रथ पहुँचे। त्यूनी से मैन्द्रथ लगभग दस किलोमीटर है। मैन्द्रथ पहुँचे तो मोहन चौहान जी ने सुरेन्द्र जी का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि सुरेन्द्र जी ‘मुसाफिर हूँ यारों’ नाम से पेज बनाए हुए हैं। फेसबुक पर हैं। आस-पास पूछा तो पता चला कि वे बाशिक महाराज के मन्दिर के सामने ही तो रहते हैं। मोहन जी ने फोन किया और हम उनके घर चले गए।
सुरेन्द्र जी बड़े अपनत्व से मिले। रविवार था। वे घूमते-फिरते हैं। अध्ययन करते हैं। बस हमारी मुलाकात होनी थी तो वे संयोगवश मिल गए। पता ही नहीं चला कि पहली बार मिल रहे हैं। पौड़ी के जाने-माने पुरातत्वविद् डॉ॰ यशवन्त कठौच जी ने उनके आवास पर उनका निजी संग्रहालय की आधारशिला पिछले बरस ही रखी थी। यह जानकर प्रसन्न्ता हुई। इससे पहले अपन मैन्द्रथ का एक जायजा ले चुके थे। पता चला कि यह गाँव सुनपत नगर कहलाता रहा है। यह गाँव जौनसार बाबर का बहुत पुराना गाँव माना जाता है। यह शूरवीरों का पड़ाव रहा है। महाशूरों की वजह से यह प्रसिद्ध रहा है। चारा महासूओं की उत्पत्ति स्थल भी जानकार इस गाँव को बताते हैं। पता चला कि जौनसार बाबर सहित उत्तरकाशी के कई क्षेत्रों के आराध्य देव महासू देवता की जन्म स्थली भी इसे माना जाता है। महासू देव के बड़े भ्राता बाशिक महासू की पालकी इसी मन्दिर से हर साल दो सप्ताह के प्रवास पर निकलती है।
सुरेन्द्र जी के आवास पर हम लगभग चालीस मिनट ठहरे। खूब बातें हुई। उन्होंने बताया कि मैन्द्रथ के आस-पास दसवीं-ग्यारहवीं सदी के कई ऐतिहासिक साक्ष्य हैं। यह शोध का विषय है। सुरेन्द्र कुमार आर्यन छजाड़ के निवासी हैं। अब उनका अपना आवास मैन्द्रथ में है। वे वर्तमान में राजकीय प्राथमिक विद्यालय दार्मिगाड़, चकराता में प्रधानाध्यापक हैं। बी.एड., एम.एड बीस वर्ष से उत्तराखण्ड के शिक्षा विभाग में कार्यरत है। वे नवाचारी शिक्षक है। कई बार जिला स्तर पर उनकी शिक्षण अधिगम सामग्री प्रथम स्थान पर रही है। तीन बार राज्य स्तर पर शिक्षण अधिगम सामग्री चयनित हो चुकी है। इस साल वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिभाग कर रहे हैं उत्कृष्ट शिक्षक पुरस्कार तो उन्हें कई बार प्राप्त हो चुका है। राज्य स्तर पर शिक्षक संघ द्वारा भी वे सम्मानित हो चुके हैं।
मिलनसार, घुमक्कड़, खोजी प्रवृत्ति के सुरेन्द्र कुमार आर्यन छह भाषाओं के जानकार हैं। जौनसारी, बंगाणी, रवाँई के साथ वे हिमाचल की कला, बोली, भाषा, शैक्षणिक,सामाजिक,सांस्कृतिक, सामुदायिक,पर्यटन आधारित जानकारियां एकत्र करने के शौकीन हैं। वह ट्रैकिंग के भी शौकीन हैं। वह समूचे जौनसार के एक-एक गांव का भ्रमण करने की योजना बना रहे हैं।
दिलचस्प बात है कि वह अपने स्तर पर अपने घर पर पहली मंजिल पर वह एक संग्रहालय बनाने की आधारशिला रख चुके हैं। वह बताते हैं कि पहले घर-परिवार,समाज और रिश्तेदार भी उनके कबाड़ संग्रह को देखकर हैरान होते थे। लेकिन धीरे-धीरे जानकारों के घर पर पधारने से सब महसूस करने लगे हैं कि यह काम कुछ हटकर है। अब सुरेन्द्र जी को भरपूर सहयोग मिलने लगा है। वह अब तक 300 से अधिक लुप्तप्रायः चीज़ों, वस्तुओं, सामग्रियों और पदार्थो को एकत्र कर चुके हैं। उनके पिता श्री साधू राम जी भी स्वयं शिक्षक रहे हैं। उनके दो छोटे भाई हैं। एक बीएसएफ में कार्यरत हैं। दूसरे भ्राता देहरादून डाक विभाग में कार्यरत हैं।
एक अच्छे संवेदनशील शिक्षक, संग्रहकर्ता और भविष्य के पुरातत्ववेत्ता से रू-ब-रू कराने के लिए मोहन चौहान जी का शुक्रिया अदा करना तो बनता है।
सुरेन्द्र जी उत्तराखण्ड की पाठ्य पुस्तक निर्माण समिति से भी जुड़े रहें ! जौनसारी भाषा में पुस्तकों के निर्माण में सहयोगी रहे हैं ।
SCERT व ज़िला शिक्षा एवम् प्रशिक्षण संस्थान देहरादून से जुड़े रहे हैं ।