-मनोहर चमोली ‘मनु’
संयम के कई उदाहरण सुनने-देखने और पढ़ने को मिलते रहे हैं। सुनते हैं कि चटोरे लोग भी संयम बरतने के तरीके अपनाते हैं। जीभ में धागा बाँधना एक तरीका है। किसी पसंदीदा खाद्य सामग्री का ख्याल आते ही मुँह के भीतर जीभ लपलपाएगी भी नहीं। व्रतधारी भूलवश या भूख के सामने बेबस होने पर कुछ खा लेते हैं तो व्रत टूट जाता है। लेकिन, वह खुद को दण्ड देते हैं। कई हैं जो ऐसा कुछ हो जाने पर जलता हुआ अँगार मुँह में डलवा देते हैं। ताकि सनद रहे।
आज हम इस तरह के कृत्य को क़तई सही नहीं ठहराएँगे। कारण साफ है। यह अपने ही शरीर के प्रति आक्रमण है। सयंम एक-दो दिनों का संयत व्यवहार नहीं है। हम कई बार असंयमित व्यवहार कर डालते हैं। तब मन कहता है कि अब ऐसा नहीं करेंगे। फिर भी हज़ार बार असंयम हावी हो जाता है। खान-पान, बोलचाल में भी संयम का सार्थकता सिद्ध है। तब भी आज इस संयम की बहुत-बहुत दरकार है।


रूस और यूक्रेन युद्ध हमारे सामने है। इससे पहलेे क्या कोई युद्ध नहीं हुआ? कई हुए हैं? हर बार मनुष्यता के लिए मानव ने ठाना है कि अब और युद्ध नहीं। तब भी हम बाज़ आए? नहीं? यदि हम संयमित होते तो दुनिया के बेकसूरों पर एक और युद्ध नहीं थोपा जाता।


एक किस्सा सुना था। माँ अपने बच्चों को झूठ न बोलने की शिक्षा देती थी। बार-बार देती थी। अक्सर कहती,‘‘सब कुछ करना। लेकिन मुझसे झूठ न बोलना।’’ एक दिन की बात है। मेला आया। दो बच्चे मेला देखने गए। माँ ने हिदायत दी,‘‘घूमना-फिरना। मस्ती करना। लेकिन, मेले में कुछ नहीं खाना। चाहे कोई खिलाने को दे भी। तब भी।’’ बच्चे चले गए। मेले में घूमे। मेले में दूर के रिश्तेदार मिले। उन्होंने जलेबी खाने की बात कही। बाल मन अपने को रोक न पाया। हामी भर दी। रिश्तेदार ने जलेबी खिलाई। बच्चे घर लौट आए। माँ ने पूछा,‘‘मेले में कुछ खाया तो नहीं?’’ बच्चों ने साफ मना कर दिया। बात आई-गई होगी।

कुछ महीने बीत गए। फिर एक दिन अचानक वही रिश्तेदार घर आए। बातों ही बातों में मेले वाली बात आई। माँ को पता चल गया। माँ हैरान थी। उसके बच्चों ने मेले में जलेबी खाई थी। बस फिर क्या था। रिश्तेदार के लौट जाने के बाद माँ ने बच्चों को पास बुलाया। कहा,‘‘जलेबी खाना बुरा नहीं। रिश्तेदार भी खिला सकते हैं। लेकिन, मुझसे झूठ क्यों बोला? अब इसकी सजा ज़रूर मिलेगी। लेकिन, तुम्हें नहीं। मैं खुद को सजा दूँगी। तुम दो थे। दोनों ने झूठ बोला है। मैं दो दिन तक न अन्न खाऊँगी न जल ग्रहण करूँगी।’’ माँ ने ऐसा ही किया। बच्चों ने बहुत कहा। माफी माँगी। लेकिन माँ ने मुँह में एक दाना न डाला। बस! फिर क्या था! बच्चों ने उस दिन के बाद शायद ही कभी झूठ का सहारा लिया हो।

एक किस्सा दूसरा है। बहुत पुरानी बात है। तब किसी के पास दुपहिया वाहन होना ही बड़ी बात थी। पिता ने बेटे से कहा,‘‘मुझे एक बैठक में जाना है। तुम भी साथ चलो।’’ घर से बैठक स्थल काफी दूर था। पिता स्कूटर चलाना नहीं जानते थे। बेटे के साथ बैठक स्थल पर पहुँच गए। पिता ने बेटे से कहा,‘‘बैठक लगभग एक घण्टे चलेगी। तुम बाहर बैठो। ध्यान रहे। कहीं नहीं जाना।’’ पिता बैठक में भाग लेने के लिए भीतर चले गए। बेटे ने सोचा,‘‘पिताजी एक घण्टे बाद ही बाहर आएँगे। क्यों न दुपहिया वाहन से एक-दो चक्कर बाज़ार के लगा आऊँ।’’ बेटा दुपहिया पर सवार होकर चल पड़ा। वहीं पिताजी उलटे पाँव लौट आए। किसी राजनेता के निधन के कारण बैठक स्थगित हो गई। पिता बाहर आए तो बेटा नदारद मिला। पिता क्या करते? इन्तज़ार किया। बेटा लगभग एक घण्टे बाद लौटा। पिता ने पूछा,‘‘कहाँ थे?’’ बेटे ने जवाब दिया,‘‘यहीं था। बस अभी-अभी आगे वाले मोड़ तक ही गया था। यह देखने के लिए कि पहियों हवा ठीक है या नहीं।’’

पिता ने जवाब दिया, ”मैं तो बैठक के हॉल में गया और तुरंत वापिस लौट आया था। तुम्हें कहीं न जाने के लिए कहा था। तुम यहाँ नहीं थे। मैं अब इस दुपहिया में नहीं बैठूंगा। पैदल ही घर जाऊँगा।’’ पिता ने ऐसा ही किया। बेटा कहता ही रहा कि बैठ जाइए। बैठ जाइए। लेकिन पिता पैदल ही घर पहुँचे। दुपहिया पर नहीं बैठे तो नहीं ही बैठे।


इतिहास गवाह है। ऐसे कई प्रेरक प्रसंग हैं जिन्होंने जीवन के किसी भी रंग में संयम बरता वही सफल हुआ है। महात्मा गांधी ने भी कहा है,‘‘आपकी मान्यताएँ आपके विचार बन जाते हैं, आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं, आपके शब्द आपके कार्य बन जाते हैं, आपके कार्य आपकी आदत बन जाते हैं, आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते हैं, आपके मूल्य आपकी नियति बन जाती है।’’ बच्चों को कोरी स्लेट कहना ठीक नहीं। न ही वे मिट्टी का लोंदा होते हैं। वे तो हष्ट-पुष्ट बीज की मानिंद अभिभावकों से और बड़ों से अनुभव में पके खाद, पानी, प्रकाश और हवा की खुराक चाहते हैं ताकि वह विशाल वृक्ष बन सकें। अब जब अभिभावकों और बड़ों के अनुभव में शुद्ध हवा नहीं है। प्रकाश मद्धम है। समझ रूपी हवा लचर है। विवेकसम्मत खुराक नहीं है तो अंकुरित बीज का पुष्ट पौधारोपण कैसे होगा?


हालांकि हम कह सकते हैं कि बिना अभिभावक के और बड़ों की छत्र-छाया के बगैर भी हजारों बच्चे हैं जो समाज की पाठशाला में सीखते हैं। संयमित जीवन जीते हैं। अभाव में प्रभाव दिखाई देता है। लेकिन वह मन,वचन,कर्म से भी अभाव में रहते हों। यह कहना गलत होगा। वे परवरिश में माता-पिता के अभाव में भी कल्याणार्थ चिंतन करते हुए बड़े हो सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। वहीं हैरानी की बात यह भी है कि मनुष्य के बच्चे के अलावा इस प्रकृति में कोई भी जीव ऐसा नहीं है जो अपने बच्चों को किसी पाठशाला में भेजता हो। मनुष्य के बच्चों को चलना, बोलना सिखाना पड़ता है। अच्छे-बुरे और अपने-पराए के बारे में बताना पड़ता हो। मछली अपने बच्चों को तैरना नहीं सिखातीं। साँप को डसना कौन सिखाता है? लेकिन मानव की जीवन शैली में सब कुछ सीखना-समझना पड़ता है।
इस कायनात में अन्य जीवों का जीवन दर्शन तय है। वह नहीं बदलता। पक्षी पानी में नहीं उड़ते। मछली आसमान ने नहीं उड़ती। शेर घास नहीं खाता। गाय किसी जानवर का शिकार नहीं करती। लेकिन मनुष्य का जीवन दर्शन तय नहीं है। उसका जीवन असंयमित है। यही कारण है कि उसे पल-पल में संयमित जीवन दर्शन को समझाना पड़ता है। तभी अभिभावकों का यह धर्म बनता है कि वे अपने पाल्यों के समक्ष संयमित जीवन दर्शन अपनाएं। बच्चों को भी संयमित जीवन जीना सिखाएं। यहां संयमित जीवन का अर्थ अभाव में रहना नहीं है। संयमित जीवन जीने का अर्थ यह नहीं है कि आप खुशिया न मनाएं। अन्न-जल की पूर्ति न करें। संयमित जीवन से अभिप्राय यहां अन्य जीवों की स्वतंत्रता में बाधक न बनने से है। अन्य जीवों के अधिकारों के अतिक्रमण न करने से है।
राजा का बेटा राजा बनेगा। ऐसा नहीं है। चोर का बेटा चोर ही हो ऐसा भी नहीं है। गायक की बेटी भी गायिका होगी। नहीं भी हो सकती है। कुछ हुनर सीखने पड़ते हैं तो कुछ कलाएं प्राकृतिक देन हो सकती हैं। फिर भी। इस सूचना तकनीक के युग में हमें,अभिभावकों को और शिक्षकों को भी कुछ बातों पर ध्यान देना ही होगा। संवैधानिक मूल्यों पर जोर देना ही होगा। बच्चों पर खान-पान की बंदिशें न लगाएं। यानि किसी भी जाति,धर्म के खान-पान को अनुचित न बताएं। लेकिन खान-पान पर संयम रखें और रखवाएं भी। संयम कैसा? अनावश्यक व्यय खान-पान पर न हो। भोजन स्वाद के लिए न किया जाए बल्कि पौष्टिकता का ध्यान रखना होगा। हम किसी भी भाषा के प्रति दुराग्रह न पालें। लेकिन हमारी वाणी में अपशब्द न हों। हम असंवैधानिक भाषा न बोलें। किसी के सम्मान को ठेस न पहुँचाएँ। हम अंधविश्वास के पालक न हों। तर्क और प्रामाणिकता पर बात करें। मनुष्य ही नहीं इस कायनात के हर जीव को जीने दें। उससे नफरत न करें। किसी को भी अप्रासंगिक न समझें। बाज़ारवाद को समझें। बाज़ार सबके लिए खुला है। लेकिन यह जान लें कि बाज़ार की हर वस्तु हमारे लिए उपयोगी नहीं है। विलासिता और व्यसन की वस्तुएं किसी भी तरह से शारीरिक श्रम और दीर्घायु जीवन के लिए उपयोगी नहीं है। मनुष्य विवेकवान है। यह सही है लेकिन मनुष्य के अलावा कोई भी जीव धन संग्रह नहीं करता। हम भविष्य के जीवन के प्रति सतर्क रहे लेकिन दूसरों के आज के हिस्से के हक को अपने कल के लिए संग्रहित न करें। यह अनुचित है।

हम यह जान लें कि मनुष्य इस धरती में बहुत बाद में आया है। हम मनुष्यों से पहले कई जीव यहां आए हुए हैं। यहां के बाशिन्दे हैं। हम इस धरती में मेहमान हैं। यह धरती हमारी भी है। लेकिन हमारी ही नहीं है। हम प्रकृति से प्रेम करे। उसकी परवरिश करें। पेड़ों को बचाएं और नया जंगल बसाएं। हम ताज़ा भोजन और ताज़ फल खाने की ओर अग्रसर हों। इसके लिए ज़रूरी है कि हम किसानों के प्रति उदार हों। हमारे भीतर मानवीय मूल्यों का संग्रह हो। हम व्यापकता में प्रेम,सहयोग, भाईचारा और सामूहिकता खर्च करने के आदी हों। जब हम ऐसा कर सकेंगे। करते रहेंगे तो निश्चित तौर पर हमारे आस-पास की जीवन शैली भी ऐसी ही बनेगी। हमारे बच्चे भी इस जीवन शैली में ढलेंगे। वे भी अपने दोस्तों को इस जीवन शैली का अनुकरण करने वाले बनेंगे। यही मनुष्यता है। मनुष्य के जीवन का असली ध्येय है। ॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
मेल-chamoli123456789@gmail.com

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