कक्षा छह,सात,आठ,दस और ग्यारह के विद्यार्थियों में वय वर्ग की विविधता रचनात्मक कार्यो में कैसे उपयोगी हो? कैसे वे एक-साथ एक-दूसरे को सहयोग करें? कैसे भागीदारी में दायरा बढ़ाएं और अपने चिन्तन को बढ़ाएं? एक साथ मिलकर कुछ सुनें। बोलें, देखें और फिर मिलकर लिखें। यही सोचकर एक कार्यशाला मोहन चौहान जी के नेतृत्व में शुरू हुई। यह कार्यशाला 9 सितम्बर से 11 सितम्बर 2022 तक संचालित हुई। अंकुर एक रचनात्मक पहल के बैनर तले विद्यालयी सहयोग से यह संभव हुआ। राजकीय इंटर कॉलेज,खरसाड़ा,विकासखण्ड नरेन्द्र नगर, टिहरी में तीन दिवसीय रचनात्मक कार्यशाला में सहभागी बनने का अवसर मिला। गन्तव्य तक पहुँचने के लिए बासठ किलोमीटर का सफर तय करते हुए मन में खयाल आ रहा था कि आखिर कक्षा छह से आठ तक के विद्यार्थियों के साथ किन-किन मुद्दों पर बात की जाए? यह भी कि लेखन की किन विधाओं पर काम हो?

आज अवकाश का दिन था। सुबह सात बजे से से पूर्व पौड़ी से चला फिर भी नौ बज ही गए। कार्यशाला स्थल पर पहुँचा तो विद्यालय के अध्यापक मोहन चौहान और राजकीय प्राथमिक विद्यालय कठूर, विकासखण्ड चम्बा के अध्यापक दीपक रावत उनचास विद्यार्थियों के साथ कार्यशाला प्रारम्भ कर चुके थे। आठ समूह बनाए गए थे। कोशिश यही रहती रही है कि सभी समूह में सभी तरह के बच्चों को शामिल किया जाए। विद्यार्थियों ने अपने-अपने समूह के नाम भी बड़े दिलचस्प रखे। बकलोल, चूजे चार, गोलमाल, बकैती, चंपा-चमेली, स्वीटी स्पेशल, पागलपंथी और गोलमाल।

विचार किया गया कि दुनिया को समझने-जानने और जानकारी जुटाने के साथ दुनिया को यह भी बताया जाए कि हमारी अपनी दुनिया क्या है ! हमारी भाषा क्या है? हमारे आस-पास क्या है? ग्रीन-बोर्ड पर विद्यार्थियों ने शानदार आंचलिक अनुभव साझा किए। जैसे-काखड़ी, कलच्वाणी, तुमड़ी, माछा, आरु, छिपाड़ु, मौल, दवै, मुंगरी, काखड़, छाला, मारसू, रिंगाल, ब्वई, पालु, कुलाड़ु, कपाल, दाथड़ू, भिमलु, चौकली, पत्यूड़, करौंदू, बासलु, गोदड़ी, बाखरू आदि।

ग्रीन-बोर्ड पर से विद्यार्थियों ने अपने-अपने समूह के लिए एक-एक शब्द चुन लिया। अब समय था कि वे समूह में चर्चा कर एक-एक कहानी बनाएं। आधा घण्टा दिया गया था। लेकिन ठीक एक घण्टे बाद आठ कहानियां जो चार्ट पर आईं, उन्हें पढ़ा गया।

तय तो यह हुआ था कि एक-एक कहानी पर शिल्प, भाव और कमजोर पक्ष पर बात हो। लेकिन इसे छोड़ दिया गया। यह सोचकर कि कहानियां पढ़ते-पढ़ते ओर लिखने के अभ्यास में यह कौशल भी विद्यार्थी अर्जित कर ही लेंगे।

इससे पूर्व चित्रात्मक किताब से दो कहानियाँ पढ़कर सुनाई गई। कहानी सुनाते समय यानि पढ़कर सुनाने के लहजे में चित्रों पर भी और कहानी आगे कहाँ जा सकती हैं, पर चर्चा करते रहे। विद्यार्थियों की तार्किकता और कल्पना शक्ति देखते ही बनती है। पिक्चर बुक में से पहले सत्र में मुकेश मालवीय कृत पाँच खंबों वाला गाँव और चंदन यादव कृत कुत्ते के अण्डे का चयन किया गया। विद्यार्थियों ने कहानी के हर पेज पर अनुमान और कल्पना का उपयोग करते हुए उसके आगे की घटना का अनुमान लगाया। यह अनुमान विविधता से भरा था।

पहले दिन अधिकतर गतिविधियां सुनना कौशल को ध्यान में रखते हुए की गईं। हालांकि कुछ गतिविधियां देखना और सोचना पर भी आधारित थीं। जैसे कद, रंग, जाति, धर्म, इलाके को लेकर किसी को कमतर समझना गलत है। शहर अच्छे होते हैं और गाँव खराब। अपने आस-पास की चीजें तुच्छ होती हैं और महानगर की चीजें बहुत अच्छी। प्रथम,द्वितीय और तृतीय स्थान प्राप्त करना उपलब्धि है और कुछ भी स्थान पर न आना निराशा। अनुमान और कल्पना के साथ गणित की अवधारणाओं के साथ जोड़ने वाली गतिविधियों में विद्यार्थियों को आनन्द आया। विद्यालयी स्तर पर गठित पीटीए के अध्यक्ष लक्ष्मण सिंह रावत जी भी कार्यशाला में आए। उन्होंने बच्चों के जलपान की व्यवस्था भी की।

एक अन्य गतिविधि भी ग्रीन-बोर्ड पर की गई। विद्यार्थियों से कहा गया कि वह अपने अनुभव और जानकारी के आधार पर उन बातों,मान्यताओं, अवधारणों और चीजों के लिए एक शब्द सुझाएं जो हमारे आस-पास चलन में हैं लेकिन वह वास्तव में हैं नहीं। यह भी कि कभी थीं पर अब नहीं हैं लेकिन चर्चा में हैं। जैसे राजा,रेडियो, लालटेन।

विद्यार्थियों ने एक से बढ़कर एक त्वरित प्रतिक्रिया में अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने आछरियां, जुगनू, चिमनी, डायनासौर, भूत, देवता, जात, आत्मा, परियां, राजकुमार, राक्षस, जादू , चुड़ैल, स्वर्ग, बैलगाड़ी, सिलबट्टा, छाया जैसे शब्द सुझाए। ग्रीन-बोर्ड पर इकट्ठा हुए शब्दों से कोई पांच शब्द विद्यार्थियों ने स्वेच्छा से अपने लिए ले लिए हैं। वह आज घर जाकर किसी एक शब्द पर मौलिक और व्यक्तिगत कहानी लिखकर लाने पर सहमत होंगे।

मोहन चौहान जी काफी समय से विद्यालयी छात्रों के साथ रचनात्मक लेखन कार्यशाला पर बात कर रहे थे। हर बार किसी न किसी वजह से यह टल रही थी। आखिरकार 9 सितब्र से 11 सितम्बर 2022 तक यह कार्यशाला तय हो पाई है। इस बार कार्यशाला की थीम है-‘सुनना … देखना … सोचना … और लिखना साथ-साथ’ तय हुई है। अधिकांश बालक और बालिकाएं घर से अपने लिए भोजन लाए थे। उन्होंने साथियों के साथ भोजन भी साझा किया। एक कक्षा-कक्ष में यह आयोजन है। उसकी व्यवस्था विद्यालय के विद्यार्थी स्वयं कर रहे हैं। विद्यार्थी खरसाड़ा, कोठी, सकन्याणी,सौड़,लसेर,कांडी,उखेल,झांकड़ और भट्टगांव के हैं। तेज धूप और बहुत दूर के विद्यार्थियों को कार्यशाला में शामिल नहीं किया गया है। दोपहर दो बजे तक ठहराव और पैदल दो किलोमीटर से अधिक आने-जाने की परेशानी को भी ध्यान में रखना पड़ा है। कुल मिलाकर विद्यार्थियों की हाजिर-जवाबी और सहभागिता काबिल-ए-गौर है। अभी तो दो दिन शेष हैं।


‘सुनना … देखना … सोचना … और लिखना साथ-साथ’ विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला के दूसरे दिन आज रा॰इं॰कॉ॰खरसाड़ा,नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल में ‘डायरी लेखन’ मुख्य रहा। पढ़ते-लिखते शिक्षक जानते हैं कि डायरी लेखन हमारी भीतर संवेदना के भाव को मरने नहीं देता। हर्ष-विषाद, सुख-दुख, तनाव-बेचौनी, उलझन-उल्लास के क्षण में डायरी लेखन सखा-सहेली का काम तो करती ही है साथ में हम क्या थे, हम क्या हैं और हम क्या होंगे अभी के भाव पर लगातार नजर रखने का काम भी करती है। दिलचस्प बात यह है कि बुनियादी स्कूल सहित माध्यमिक कक्षाओं के सीखने के प्रतिफल जिन्हें हम लर्निंग आउटकम्स के तौर पर जानते हैं और बुनियादी मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता की दक्षता के लिए भी ‘डायरी लेखन’ खास औजार हो सकता है।

आज सुबह के सत्र में सबसे पहले बीते दिन का सार-संक्षेप तनिशा ने विस्तार से रखा। मयंक, स्नेहा, कनिका, पायल और शुभम ने छूटी हुई गतिविधियां जोड़ी। पहले दिन की संख्या छियालीस से बढ़कर विद्यार्थियों की आज संख्या छियासी हो गई। कुल मिलाकर 43 बालिकाएं और 43 बालक शामिल हुए। इस प्रकार अब कक्षा ग्यारह से पांच, कक्षा दस से दस, कक्षा आठ से बाईस, कक्षा सात में पैंतीस और कक्षा छह चौदह विद्यार्थियों ने शिरकत की। आकार में एक औसत कक्षा-कक्ष में छियासी विद्यार्थियों को लगभग पांच से छह घंटे बिठाए रखना स्वयं में चुनौतीपूर्ण रहा। यही कारण रहा कि आज विद्यालयी समय के उपरांत कार्यशाला का दूसरा दिन भी समाप्त कर दिया गया। चूंकि सुनना कौशल को हम हमेशा प्राथकिमता देते हैं। आज सुनना के साथ सोचना पर भी फोकस किया गया। बीते दिन लिखने के लिए दी गई कहानियां जमा की गईं। सरसरी तौर पर विद्यार्थियों ने अपने घर-गाँव, समाज, परिवार और सहपाठियों से संबंधित पात्रों को ध्यान में रखकर कहानियां लिखीं।

तेरह गाँव घोरसाड़, खरसाड़ा, लसेर, जिमाण गाँव, सौड़, उखेल, झांकड़, मयाण गाँव, कांडी, कोलसारि, सकन्याणी, कोठि, भट्टगाँव के विद्यार्थियों को ग्रीन-बोर्ड पर दो अलग-अलग डायरी अंश के नमूने लिखकर पढ़े। सिर्फ लिखकर पढ़ना काफी नहीं था। उन दोनों डायरी अंश के काल्पनिक लेखकों की मनोदशा पर भी विस्तार से चर्चा हुई। क्या आप इन डायरी अंश को पढ़कर अनुमान और कल्पना का इस्तेमाल कर कुछ कह सकेंगे। हम हतप्रभ रहे कि विद्यार्थियों ने दोनों डायरी अंशों को पढ़कर-समझकर सटीक और तार्किक कयास लगाए।

बहरहाल, उसके बाद उन्हें भी कल्पना और स्मृति पर आधारित डायरी लिखने का अवसर दिया गया। डायरी में क्या-क्या जरूरी तत्व होते हैं? क्या-क्या नहीं लिखा जाना चाहिए? इस पर भी विस्तार से चर्चा की गई। हमें प्रसन्नता है कि अल्प समय में ही कई विद्यार्थियों ने एक नहीं दो-दो डायरी अंश के नमूने प्रस्तुत किए। मौटे तौर पर उनकी डायरी अंश भाई-बहिनों,रिश्तेदारों में प्रमुख बुआ, नानी,चाचा-चाची, दादा-दादी, सहेली, खेल, चोट, सांप,कुत्ते, बिल्ली, स्कूल, सहपाठी और अध्यापकों के आस-पास केन्द्रित रही।

अच्छी बात यह रही कि उन्होंने यह आसानी से और त्वरित जान लिया कि दिनचर्या और डायरी लेखन में फर्क होता है। चूंकि आज अगल-बगल कक्षाएं भी संचालित रहीं तो कार्यशाला कक्ष के भीतर मस्ती, उल्लास और आवाज आधारित गतिविधियां नहीं करा पाए। लेकिन समयबद्ध, सोचसहित और शब्दाधारित कई गतिविधियां कराई गई। विद्यार्थियों को स्वछंद से स्वस्थ दबावयुक्त मानसिक माथापच्ची गतिविधियां दी गईं। लग रहा था कि वे इन गतिविधियों में उलझन महसूस करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सोचयुक्त इन गतिविधियों में भी उन्होंने अपना बेहतर प्रदर्शन करने की ललक को मरने नहीं दिया। आज भी बहुत ही मजा आया। दूसरे दिन की समाप्ति से पहले विद्यार्थियों ने आश्वस्त किया है कि वह कल आभासी नहीं वास्तविक डायरी अंश लिखकर लाएंगे। आने वाला कल आज से भी बेहतर होगा। यह उम्मीद तो है ही।


रा॰इं॰कॉ॰खरसाड़ा,नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल में इस कार्यशाला में सहभागी बनकर मैं यात्रा से लौट आया हूँ। किसी ने कहा था-यात्रा कितनी भी अहम् क्यों न हो, एक दिन समाप्त हो जाती है। लगभग पैंसठ किलोमीटर की यात्रा कर अब मैं पौड़ी में हूँ। हाँ यह यात्रा तो खत्म हो चुकी है लेकिन जिन 180 आँखों में झांकते हुए मुझे जो ख़याल मिले, सोच मिली, संकल्प मिले और सबसे बड़ी बात अच्छे समाज में भागादीरी की जो भावनाएं मिलीं उन्हें क्यों कर मैं कहूंगा कि वे भी खत्म हो गईं। लगभग 18 घण्टे हमने साथ-साथ संवाद किए। कुछ सपने बुने। कुछ परेशानी-दिक्कतें साझा की। रचनात्मकता तो जो बनी सो बनी लेकिन इस बहाने बातों ही बातों में सहयोग, सामूहिकता, साझी विरासत, सामुदायिकता, आंचलिकता, मनुष्यता और संवैधानिक मूल्यों की बातें हुईं वह किसी भी उदास किताब और सपाट व्याख्यान से बढ़कर थीं।

आज विद्यालय में अवकाश था। फिर भी विद्यार्थी दूर-दूर से पैदल चलकर कार्यशाला में आए। आज स्मृति को टटोलने, एकाग्रता को बचाए-बनाए रखने, प्रकृति में जीवों की खासियत, विद्यार्थियों और शिक्षकों के असल धर्म पर, मानवगत व्यवहार पर, जीवन के लक्ष्यों पर कई गतिविधियां भी की गई।

दो दिन के प्रतिफल का आकलन करने के बाद तय हुआ कि तीसरे दिन कहानी पर और काम किया जाए। बीते दिन हुई गतिविधियों का सार-संकलन पर चर्चा हुई। विद्यार्थियों ने स्मृति पर आधारित मौखिक बातें रखीं। सूरज, आरुषी, स्नेहा, पायल और कनिका ने दूसरे दिन के सत्रों को याद किया। तीसरे दिन विद्यार्थियों के न समूह बनाए गए। दस समूह बनाए गए।

आज तय हुआ कि विविधता से भरी चित्रात्मक किताबों से छोटी-छोटी कहानियां पढ़ी-सुनी जाए। यह चार कहानियों में सुशील शुक्ल की ’मकड़ी और मक्खी’, प्रियंका की ’रंग’, शीतल पॉल की ’पुथ्थु’ और मुकेश मालवीय की कहानी ’बड़ा या छोटा’ का वाचन किया गया। मजेदार बात यह रही कि विद्यार्थियों को यह कहानियां खूब पसंद आईं। कहानियों में आगे क्या होगा? अनुमान और कल्पना के सहारे विद्यार्थी तार्किक ढंग से अपनी बात रख रहे थे। कहानियां जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थीं विद्यार्थियों के चेहरे पर उत्सुकता देखते ही बनती थीं। किताबों के चित्रों, पात्रों, कहानी के शिल्प और कहानी के कहन पर विस्तार से बात हुई।

सूक्ष्म जलपान के बाद विद्यार्थियों को समूह में मिलकर एक-एक कहानी लिखने की गतिविधि दी गई। आधा घण्टे का समय दिया गया था। सबसे बड़ी बात यह रही कि उनसे निवेदन किया गया कि समूह में हर सदस्य की राय, सुझाव और सहभागिता को शामिल किया जाए। इस समय में समूह में विद्यार्थियों ने चर्चा की, बहस की, तर्क-वितर्क किए। कुछ लिखा। कुछ हटाया। कुछ जोड़ा। कुछ कम किया। फिर उसे चार्ट पेपर पर लिखा भी। दस कहानियों को फिर से समूहवार सभी सहभागियों को पढ़कर सुनाया। कहानियों के कहन, पात्र, पात्रों के माध्यम से आ रही बातों, समस्याओं, काल्पनिकता, बेतुकेपन को रेखांकित किया।

हमने महसूस किया कि विद्यार्थी मान रहे हैं और जान रहे हैं कि कहानी का मतलब बेसिर-पैर की बात को लिखना नहीं होता। घसियारी समूह की कहानी ’भूत का वहम’, ढोल-दमौ समूह की कहानी ’चींटी और मेढक’, मसेटू समूह की कहानी ’अच्छा या बुरा’ लालटेन समूह की कहानी ’फ्युँली’, जुगनू समूह की कहानी ’किसान और परी’ बुराँश समूह की कहानी ’आलसी लड़का’, गुड़हल का फूल समूह की कहानी ’टीचर और बच्चे’, पहाड़ी ग्रुप समूह की कहानी ’कंजूस आदमी’ तिमलु दाणी समूह की ’चींटी और बिल्ली’ और पहाड़ की शान समूह की कहानी ’मोनू का खरगोश’ में कहानीपन अच्छे से शामिल हो सका।

इन तीन दिनों में बच्चों के साथ सुनने, बोलने, देखने, सोचने और लिखने से जुड़ी बहुत सी गतिविधियों के साथ गाहे-बगाहे बहुत से मुद्दो पर हल्की-फुल्की बातचीत की जाती रही। समय के सदुपयोग पर, सार्थक-निरर्थक चीजों,बातों और समाज में आ रही सामाजिक उदासीनता पर भी बार-बार बातचीत होती रही।

समापन अवसर पर विद्यार्थियों ने भी अपनी बात रखी। निकिता, कनिका, शुभम, शशांक, प्रियांशी, प्रीति और साक्षी ने पिछले तीन दिनों के अपने अनुभवों को साझा किया। सभी इस बात पर सहमत दिखाई दिए कि इस तरह की कार्यशालाएं जल्दी-जल्दी होनी चाहिए।

कार्यशाला में अंकुर एक सृजनात्मक पहल के साथियों में प्राथमिक स्कूल नौगा के शिक्षक दिनेश भी उपास्थित रहे। उन्होने भी अपने अनुभव साझा किए। शिक्षक साथी दीपक दो दिन बदस्तूर कार्यशाला में पूर्ण सहयोग करते रहे। उन्होंने अपने स्कूली जीवन को याद किया और बताया कि इस तरह की कार्यशालाओं को कोई मोल नहीं चुकाया जा सकता। पीटीए अध्यक्ष लक्ष्मण सिंह रावत ने बच्चों को सामाजिक योगदान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पहले दिन भी और आज भी विद्यार्थियों के लिए जलपान की व्यवस्था की। अंतिम सत्र में विद्यार्थियों ने फीड बैक लिखित में दिया। उन्होंने सब कुछ अच्छा ही बताया। पूछा तो यह था कि क्या-क्या अच्छा नहीं लगा। लेकिन इस सवाल का सकारात्मक जवाब ही आया। विद्यार्थी कविता लेखन पर एक दिन चाहते थे। वह चाहते हैं कि ऐसी कार्यशालाएं बार-बार हों। जल्दी-जल्दी हों और कम दिन की न हों।

इन तीन दिनों की सहभागिता की बात करें तो हम वयस्कों में छह साथियों का सहयोग सहभागियों को मिला। सहभागियों की बात करें तो पहले और तीसरे दिन संख्या कम रहीं। दूसरे दिन छियासी विद्यार्थियों ने हिस्सेदारी की। हम कह सकते हैं कि कुल नब्बे दिलों-दिमागों की भावनाएं और सोच एक छत के नीचे तीन दिन तालमेल बिठाने के प्रयास में जुटी रहीं। कहा जा सकता है कि यह प्रयास किसी सालाना परीक्षा की अंक तालिका के अंक जैसे दिखाई नहीं देंगे। अलबत्ता किसी वसंत की बयार की मानिंद इसे सालों-साल महसूस किया जा सकता है।

मैं आभार प्रकट करता हूँ कि मोहन जी बार-बार मुझे इस तरह का अवसर देते हैं जिसकी वजह से मैं फिर से बच्चे, बाल जीवन और अपने बालपन में लौटता हूँ। समझने-जानने का प्रयास करता हूँ कि बचपन की भावनाओं को समझ सकूँ। उनका सम्मान कर सकूँ। ‘सुनना … देखना … सोचना … और लिखना साथ-साथ’ विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला समाप्त हो गई।
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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