कोरोना के कारण स्कूल बंद थे। आज जब स्कूल खुला तो बच्चे अपना स्कूल भी नहीं पहचान पा रहे थे। कोरोना के कारण घर में रहकर क्या-क्या परेशानियां हुईं। मोबाइल से उन्होंने क्या सीखा? घर पर रहकर क्या-क्या मस्ती की। इस पर बातें खूब बातें हुईं।
पहला दिन तो अपना-अपना अनुभव सुनाने में चला गया।
दूसरे दिन अनीश ने कहा,‘‘बच्चों। चाहरदीवारी के न होने से हमारे स्कूल के पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचता है। हम फिर से स्कूल की खाली जगह को हरा-भरा करेंगे। सर्दियां आ गई हैं। गुलाब की कलम लगाने का यह सही समय है।’’
साहिदा ने बायां हाथ खड़ा कर दिया। अनीश मुस्कराते हुए बोले,‘‘तुम! गुलाब की कलम कहां से लाओगी?’’
साहिदा ने जवाब दिया,‘‘घर में अम्मी ने गुलाब लगाए हुए हैं। सूर्ख लाल, चटख पीले और गुलाबी भी हैं। चाचू सहारनपुर में रहते हैं। उनकी तो नर्सरी ही है।’’ फिर सोनम, जसप्रीत और पिंकी ने भी गुलाब की कलमें लाने के लिए हाथ उठाए।
तीन दिन बाद साहिदा चहकते हुए स्कूल पहंुची। उसका चेहरा गुलाब की तरह खिला हुआ था। कक्षा में अनीश बोले,‘‘साहिदा एक-दो नहीं, अलग-अलग गुलाब की बीस कलमें ले आई है। आज हम इंटरवल के बाद इन्हें लगाएंगे।’’
इंटरवल हुआ। कई सारे बच्चों ने मिलकर गुलाब की कलमें रोप दीं।
स्कूल की छुट्टी हुई तो विनायक ने पूछा,‘‘साहिदा। आज तो बहुत इतरा रही है। तूझे क्या लगता है, कलमें बचेंगी?’’ साहिदा चैंकी,‘‘बचेंगी ! मतलब क्या है तेरा? देख, यदि तेरे भेजे में कोई शरारत सूझ रही है, तो समझ ले। मुझसे बुरा कोई न होगा। कहे देती हूँ।’’
विनायक ने बाएं हाथ की हथेली को थप्पड़ की शक्ल देते हुए कहा,‘‘कह देती हूँ। क्या कर लेगी? मुझे धमकी दे रही है?’’ साहिदा भला क्यों चुप रहती,‘‘चल तू घर चल। मैं आंटी से कहूँगी।’’ साहिदा को गुस्से में देख विनायक और नजदीक आते हुए बोला,‘‘क्या कहेगी? मैंने क्या किया? जरा बताना तो।’’
साहिदा ने जवाब दिया,‘‘मैं सब समझती हूँ। बस मुझे तूझसे कोई बात नहीं करनी है। समझे।’’ साहिदा ने कहा।
‘‘हां तो मत कर न। लेकिन सुन। ये गुलाब लगाने से अच्छे माक्र्स नहीं आने वाले हैं। समझी।’’ विनायक ने हंसते हुए कहा।
साहिदा ने जवाब दिया,‘‘चल-चल हवा आने दे। बड़ा आया मुझे सलाह देने वाला।’’ दोनों की नोंकझोंक खत्म होने से पहले ही उनके घर आ गए। दोनों एक दूसरे को चिढ़ाते हुए अपने-अपने घर में जा घुसे। बात आई-गई हो गई। रोज सुबह स्कूल की चहल-पहल सड़कों पर दिखाई देती। दोपहर बाद घर लौटते बच्चों के दलों से सड़के भर जातीं।
आज सुबह की प्रातःकालीन सभा में कुछ गड़बड़ था। बच्चे बार-बार लड़कियों की ओर देख रहे थे। सुबह की सभा हो गई। बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए। कक्षा में अपनी सीट पर बैठी साहिदा रो रही थी। तभी अनीश हाजिरी रजिस्टर लेकर आए। पीहू ने सारा किस्सा बताया। अनीश बोले,‘‘कल प्रातःकालीन सभा में बात होगी।’’
अगले दिन प्रातःकालीन सभा में हर कोई सिर झुकाए खड़ा था। सभा के आखिर में अनीश बोले,‘‘अच्छे काम में हमेशा से मुश्किलें आती हैं। दीवाली की छुट्टियों में भी हमारे पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचाया गया था। किसी को कुछ पता है? किसी ने कुछ देखा है?’’
सब चुप रहे। कोई कुछ नहीं बोला। अनीश ने कहा,‘‘साहिदा। रोना बंद करो। अपने काम पर जुटी रहो। हर रोज़ एक गुलाब की कलम और लेकर आओ। खुद उसे लगाओ।’’ साहिदा ने सिसकते हुए हां में सिर हिलाया। सभा समाप्त हुई और बच्चे अपनी-अपनी कक्षा में चले गए।
साहिदा अगले दिन गुलाब की और कलमें लेकर आई। सबने तालियों से उसका स्वागत किया। उसने पूरी लगन से उन कलमों को रोपा। लेकिन यह क्या!
अगली सुबह लगाई गई गुलाब की कलमें फिर किसी ने उखाड़ कर फेंक दी थी। सभी को बुरा लगा। लेकिन इस बार साहिदा रोई नहीं। सिसकी भी नहीं। वह हर रोज़ एक-दो कलमें लेकर आतीं। सहपाठियों की मदद से उन्हें रोपती। लेकिन सुबह वह कलमें उखड़ी हुई मिलतीं।
फिर एक दिन की बात है। साहिदा को परेशान देख दीपाली ने कहा,‘‘साहिदा। तू मास्साब को सब कुछ बता क्यों नहीं देती? अगर तू नहीं बता सकती तो मैं ही बता देती हूँ।’’ दीपाली की आँखें भर आईं। वह बोली,‘‘नहीं दीपाली। मैं विनायक का नाम नहीं ले सकती। हमने या किसी ने भी कौन सा उसे गुलाब की कलमें उखाड़ते हुए देखा है।’’
दीपाली ने सिर झटकते हुए कहा,‘‘विनायक को कौन नहीं जानता। वह कई बार गुलाब की कलम वाली बात बार-बार क्यों दोहराता है। क्या तूझे पता नहीं है?’’
दीपाली की बात सुनकर साहिदा चुप ही रही।
साहिदा हर रोज़ कुछ गुलाब की कलमें लाती। खुद रोपती। लेकिन दूसरे दिन वह कलमें उखड़ी हुई मिलती। वह फिर नई कलमें घर से लाती। कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। हर दिन लगाई गई कलमें दूसरी सुबह उखड़ी हुई मिलती।
फिर एक दिन यह सब यकायक बंद हो गया। अब रोज़ स्कूल में गुलाब की दो-दो कलमें रोपी जाने लगीं। एक कलम साहिदा लगाती। और दूसरी कलम! दूसरी कलम कौन लगा रहा है! यह रहस्य बना हुआ था।
फिर एक दिन दूसरी कलम लगाने का रहस्य भी खुल गया। दरअसल हुआ यूँ था कि एक रविवार की बात थी। सुबह से ही बारिश हो रही थी। बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। साहिदा के एक हाथ में छतरी और दूसरे हाथ में गुलाब की कलमें थीं। वह स्कूल पहुंची। बड़ी मुश्किल से वह गुलाब की कलमें रोप पाई।
सुबह से शाम हो गई। बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। अंधेरा होने को आया तो अनीश ने पुकारा,‘‘विनायक। मैं तो सोच रहा था कि तुम आज नहीं आओगे! लेकिन तुम तो लगन के पक्के निकले। शाबास।’’
विनायक डर गया। अनीश को मुस्कराते देख वह हैरान था। धीरे से बोला,‘‘सर, आप मुझे डांटने के बजाय शाबासी दे रहे हैं!’’
अनीश ने हौले से विनायक के कांधे पर हाथ रख दिया। फिर बोले,‘‘विनायक। आज की तरह मैं उस रात भी स्कूल में ही रुक गया था, जिस दिन हम सबने मिलकर कलमें रोपी थीं। आखिर कौन हमारे स्कूल के आंगन को खराब करता है। यह बात मुझे परेशान कर रही थी। शाम को तुम्हें स्कूल के अंदर आता देख मैं सब कुछ समझ गया था।’’
विनायक के पैर कांपने लगे। वह हिचकते हुए बोला,‘‘तो फिर आपने उसी दिन मुझे क्यों नहीं समझाया?’’
अनीश ने जवाब दिया,‘‘अगर उस दिन समझा देता तो तुम्हारी लगन का कैसे पता चलता! इतनी बारिश में भी तुम अपने काम को निपटाने के लिए यहां आए हो। यह क्या कम है!’’
विनायक ने पूछा,‘‘इसे लगन कहते हैं? यह तो बुरा काम है।’’
अनीश ने जवाब दिया,‘‘हां। यह लगन ही है। ये ओर बात है कि लगन अच्छे काम की भी हो सकती है और खराब काम की भी। ये तो हम पर निर्भर है कि हमें अपनी लगन को क्या दिशा देनी है। जब तुम्हें यह पता है कि कुछ काम बुरे भी होते हैं तो अब कुछ भी कहने की क्या ज़रूरत है। ज़रूरत है?’’
यह सुनकर विनायक चुप हो गया।
अनीश बोले,‘‘यदि उस पहले दिन से ही हम सब साहिदा की मदद करते तो आज शायद बात कुछ ओर ही होती। आज की इस बारिश में गुलाब की कलमों में कोंपलें आ जातीं। है न?’’
विनायक चुप रहा। बस उसने हां में सिर हिलाया।
अनीश ने विनायक से कहा,‘‘अंधेरा होने वाला है। अब घर जाओ।’’
विनायक ने धीरे से कहा,‘‘नहीं सर।’’
अनीश ने पूछा,‘‘नहीं ! घर नहीं जाओगे तो कहां जाओगे?’’
‘‘साहिदा के घर। उसे यह बताने के लिए कि कल से मैं भी गुलाब की कलमें लाऊंगा। उन्हें रोपूंगा भी। सर्दियां बीत जाने के बाद उन्हें खाद-पानी भी दूंगा।’’
‘‘अकेले क्यों जाओगे? मैं भी चलता हूँ।’’
अनीश ने विनायक की आंखों में झांकते हुए कहा। बस! उसी दिन से स्कूल की खाली पड़ी भूमि में दो-दो कलमें लग रही थीं।
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