बाल पत्रिका बच्चों का देश का रजत जयंती समारोह


मासिक पत्रिका ‘बच्चों का देश’ की रजत जयंती के अवसर पर तीन दिवसीय बाल साहित्य समागम राजस्थान के राजसमन्द पर आयोजित हुआ। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी ने इस आयोजन में बच्चों का देश में अनवरत् लिखने वाले लगभग 400 रचनाकारों में से देश भर के एक सौ तीस साहित्यकारों को निमंत्रण भेजा था। भारत के ग्यारह राज्यों से पिच्चासी रचनाकारों ने समागम में शिरकत की। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, पंजाब, मध्य प्रदेश, हिमाचल, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तराखण्ड से अधिक रचनाकारों की उपस्थिति रही।

बाल साहित्य समागम में शिरकत कर रहे साहित्यकारों ने माना कि बच्चों के लिए लिखते समय अतिरिक्त श्रम, एकाग्रता, सतर्कता की महती आवश्यकता होती है। बाल साहित्य का अर्थ यह कदापि नहीं है कि जो मन में आए, कल्पना के नाम पर परोस दिया जाए। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य की दशा और दिशा, बाल साहित्य यात्रा में बाल पत्रिकाओं की भूमिका, बाल साहित्य रचनाधर्मिता: चुनौतियाँ और समाधान, बाल साहित्य: भावी स्वरूप, चुनौतियाँ और समाधान, बाल साहित्य का पठन-पाठन: समाज व परिवार का दायित्व, आदर्श व्यक्तित्व निर्माण में बाल साहित्य की भूमिका और एक सफल बाल साहित्य रचनाकार होने के मायने सहित कहानी, उपन्यास, कविता, बालगीत, नाटिका एवं एकांकी, संस्मरण व प्रेरक प्रसंग, पहेलियाँ और सामान्य ज्ञान, पारस्परिक भाषा अनुवाद, बाल साहित्य में चित्रांकन जैसे विषयों पर बोलते-सुनते-समझते हुए साहित्यकारों ने स्वीकारा कि साहित्य लेखन कर्म मात्र स्वान्तः सुखाय के ध्येय तक सीमित नहीं है। साहित्य आनन्द की प्राप्ति के साथ-साथ एक जीव से सार्थक मनुष्य बनाने की भूमिका का भी निर्वहन करता है।


इससे पूर्व बाल साहित्य समागम का उद्घाटन सत्र भी सार्थक रहा। अणुविभा के अध्यक्ष अविनाश नाहर ने अणुव्रत आचार संहिता का वाचन करते हुए दोहराया कि बतौर मनुष्य हमें सबसे पहले संवेदनशील होने की आवश्यकता है। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी के प्रमुख कार्यो की भी उन्होंने जानकारी दी। उन्होंने सोसायटी के जीवन विज्ञान, एक्सपीरियंस द रियल हाई, डिजिटल डिटॉक्स, अणुव्रत क्रिएटिव कॉन्टेस्ट, पर्यावरण जागरुकता अभियान सहित अणुविभा द्वारा संचालित कार्यक्रमों की जानकारी दी। उन्होंने साहित्यकारों से कहा कि समाज के लिए विविधतापूर्ण लेखन के लिए भी समाज के नवनिर्माण कार्यों में जुड़ना चाहिए। अविनाश नाहर ने सुझाया कि अणुविभा पर्यावरण, नशा उन्मूलन कार्यक्रमों के प्रति कृत संकल्प है। रचनाओं के माध्यम से भी समाज में पसरती जा रही बुराईयों के बारे में लिखने के लिए भी साहित्यकार अणुविभा से जुड़ सकते हैं।

‘बच्चों का देश’ पत्रिका के संपादक संचय जैन ने सभी उपस्थितों का स्वागत किया। उन्होंने विस्तार से बाल साहित्य समागम के उद्देश्यों और तीन दिनों के समारोह की रूपरेखा साझा की। इस अवसर पर उन्होंने बच्चों का देश के पच्चीस सालों का सफर भी साझा किया। इस अवसर पर पत्रिका के संस्थापक मोहनलाल जैन, प्रथम सम्पादक कल्पना जैन, प्रसिद्ध बाल साहित्यकार बाल शौरि रेड्डी सहित वरिष्ठ साहित्यकारों के योगादान को भी याद किया। प्रबंध संपादक पंचशील जैन ने कहा कि आज बच्चों का देश से लगभग चार सौ साहित्यकार जुड़े हुए हैं। अणुव्रत की पत्रिका और बच्चों का देश से इन पच्चीस सालों में हरिशंकर भाभड़ा, चंदनमल बैद, हीरालाल देवपुरा, गोविंदाचार्य जैसे राजनेता भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े रहे। कई बच्चों-लेखकों को पहली बार प्रकाशन का अवसर बच्चों का देश ने दिया।


सोसायटी के डॉ. महेंद्र कर्णावट ने बाल मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। जीवन शैली बदल रही है। ऐसे में सामाजिक जीवन और साहित्यिक कर्म भी खास हो चला हैं। साहित्कार पथ-पदर्शक का कार्य करते रहे हैं। वह अपनी दूरदर्शिता से सही मार्ग सुझाते रहते हैं। पूर्व न्यायाधीश डॉ. बसंतीलाल बाबेल ने भारतीय न्याय संहिता और अणुव्रत आचार संहिता में पर्याप्त समानता का उल्लेख किया। उन्होने कहा कि समाज में भाईचारा,बन्धुत्व बनाए रखने के लिए संयम बहुत जरूरी है। अणुव्रत स्वयं में एक उत्कृष्ट जीवनशैली है। अणुव्रत लेखक पुरस्कार से सम्मानित लेखक फारुख अफरीदी ने अणुव्रत के माध्यम से बच्चों मे संस्कारों का बीजारोपण करने की आवश्यकता जतायी। उन्होंने कहा कि सकारात्मकता के जरिए ही समाज आगे बढ़ सकता है। अणुविभा के प्रबंध न्यासी तेजकरण सुराणा ने बच्चों के भविष्य-निर्माण में बाल साहित्यकारों की भूमिका पर विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि आज के दौर में पढ़ना वैसे ही कम हो रहा है। लेकिन पढ़ना क्रिया की मांग हमेशा बनी रहेगी। उद्घाटन सत्र में राजसमंद के विद्यालय गांधी सेवा सदन के विद्यार्थियों ने अणुव्रत गीत भी प्रस्तुत किया।


अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी की बाल केंद्रित प्रवृत्तियों पर आधारित सत्र का संयोजन प्रकाश तातेड़ ने किया। अणुविभा के उपाध्यक्ष डॉ. विमल कावड़िया ने जीवन विज्ञान, डॉ. नीलम जैन ने पर्यावरण जागरुकता अभियान, डॉ. राकेश तैलंग ने स्कूल विद ए डिफरेंस, डॉ. सीमा कावड़िया ने बालोदय शिविर, अभिषेक कोठारी ने बालोदय एजुटूर, प्रकाश तातेड़ ने ‘बच्चों का देश’ पत्रिका तथा मोहन मंगलम ने ‘अणुव्रत’ पत्रिका के बारे में दर्शक दीर्घा में उपस्थितों को जानकारी दी। बच्चों का देश’ पत्रिका के सह संपादक प्रकाश तातेड़ ने भी साहित्यकारों को संबोधित किया। पहले ही दिन साहित्यकारों ने चिल्ड्रन’स पीस पैलेस में बाल मनोविज्ञान पर आधारित विभिन्न दीर्घाओं का अवलोकन किया। सभी सत्र एक घंटा पन्द्रह मिनट की अवधि के रहे।


राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य की दशा और दिशा विषय पर आयोजित संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश ने की। उन्होंने कहा कि बच्चों का साहित्य सिर्फ बच्चों के लिए नहीं लिखा होता। वह हर वय वर्ग का पाठक पढ़ सकता है। अलबत्ता वह इतना सरल हो कि बच्चे भी पढ़ सकें। ऐसा नहीं है कि उसे बेहद सरल ही लिखा जाए। नए शब्दों को भी बच्चे सन्दर्भ के साथ आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि उपदेशात्मक, और संदेशात्मक बातें पाठक पसंद नहीं करते। साहित्य की विधाओं में इतना रस हो कि उसमें छिपे भाव, अर्थ ग्रहण और संदेश पाठक स्वयं आत्मसात् करें। इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है जैसी प्रवृत्ति से बचने की नितांत आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि आज के युग में सार्थक, यथार्थ से भरा साहित्य भी लिखा जा रहा है। आज बाल साहित्य को अलग से रेखांकित किया जाने लगा है। यह हमारे लिए प्रसन्नता का विषय है। वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश ने कहा कि हम हर दिन अद्यतन होते हैं। बाल साहित्य में पहला पाठक अब बेहद सजग है। युवा रचनाकार भी अब सजग हैं। आज के दौर में खूब लिखा जा रहा है। यह बात अलग है कि कैसा लिखा जा रहा है, इस पर भी चिन्तन होना चाहिए। बाल साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध रचनाकारों ने भी अपनी कलम चलाई है। अब बाल साहित्य को अलग से रेखांकित किया जा रहा है। अब नए भाव-बोध पर बहुत अधिक लिखने की आवश्यकता भी है। आज के दौर में बच्चों के पास पढ़ने-लिखने के कई अवसर हैं। माध्यम भी है। ऐसे में आज के बाल साहित्य को भी स्वयं में नवीन होना चाहिए। बाल साहित्य कई मायनों मंे पाठक के समग्र विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। दिविक रमेश ने कहा कि बाल साहित्य को खासकर हिन्दी पढ़ने-लिखने वाले परिवारों में अब गंभीरता के साथ स्वीकार किया जा रहा है। हाँ ! यह बात भी उचित है कि पाठकों की संख्या के हिसाब से इसे अधिकाधिक तौर पर प्रकाशित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बच्चों की दुनिया को बेहद संकीर्ण, क्षेत्रीयता के आधार पर सीमित नहीं किया जाना चाहिए। भाषाई तौर पर भी विस्तार से लिखने की जरूरत है। हमें कई क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करना चाहिए। स्थानीयता से राष्ट्रीयता और फिर वैश्विक स्तर का नजरिया भी बाल साहित्य का हिस्सा होना चाहिए।

दिल्ली के सुप्रसिद्ध साहित्यकार सीताराम गुप्ता ने कहा कि आज का बाल साहित्य मात्र परियों और भूत-प्रेतों की कहानियों पर आधारित न होकर ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विषयों पर भी आधारित हो और इन विषयों के लेखन में अधिकाधिक विश्वसनीयता होनी चाहिए। मात्र अनुमान के आधार पर लेखन नहीं किया जाना चाहिए। विज्ञान जैसे विषयों पर पौराणिक कथाओं के आधार पर नहीं लिखना चाहिए। उसमें वस्तुनिष्ठता होनी चाहिए। आँकड़े भी त्रुटिपूर्ण नहीं होने चाहिए। उनकी अच्छी तरह से जाँच कर लेनी चाहिए। पारिभाषिक शब्दावली का सही-सही प्रयोग करना चाहिए। सिंह को कहीं शेर तो कहीं चीता अथवा तेंदुआ लिखने जैसी भूल नहीं करनी चाहिए। पेड़-पौधों अथवा फल-फूलों के भी मानक भाषा में सही-सही नाम लिखने चाहिए।

वरिष्ठ साहित्यकार एवं संपादक दीनदयाल शर्मा जी ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में बच्चों को बाल साहित्य की जरूरत है। बच्चों को बाल साहित्य पढ़ना चाहिए। आज खत्म हो रही संवेदना और बढ़ती संवाद‌हीनता के कारण भी बाल साहित्य की आवश्यकता और बढ़ जाती है। उन्होंने कहा कि ऐसा साहित्य जिसे बच्चे और बड़े सभी पढ़ें। भविष्य का बाल साहित्य यथार्थ के इर्द-गिर्द तो हो लेकिन उसमें फंतासी भरपूर मात्रा में होनी चाहिए। बच्चों की रचनाओं को सृजित करते समय ध्यान देने वाली बातों के लिए रचना में शब्दों की सरलता, सहजता, तरलता और तारतम्यता हो। गद्य में है तो छोटे-छोटे वाक्य और पद्य में हो तो लयबद्ध हो। शब्दों की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। रचना बोलचाल की भाषा में जिज्ञासा बढ़ाने वाली और बच्चों को नई बातें बताई जा सके, हम ऐसा सृजन करें। बच्चे तभी जुड़ पाएंगे। बच्चे सबसे पहले रचना पढ़ते हैं। रचनाकार का नाम नहीं पढ़ते।

इस सत्र में, दीनदयाल शर्मा, सत्र में रेखा लोढ़ा स्मित, डॉ. शुभदा पांडेय, इंजीनियर आशा शर्मा, योगीराज योगी, नीना सिंह सोलंकी ने भी अपने विचार व्यक्त किए। डॉ. शुभदा पाण्डेय ने कहा कि दिशा पर काम करने की जरूरत है। बेहतरीन रचनाएँ अभी लिखी जानी हैं ।  वक्ताओं ने बाल साहित्य की दिशा पर भी गंभीरता से विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि बाल पाठकों को कुछ भी परोसने की आदत से बचना होगा। हमें तथ्यात्मक, तार्किकता और वैज्ञानिकता के साथ बाल साहित्य लिखना चाहिए। यदि हम भारत के सन्दर्भ में लिख रहे हैं तो उन वन्य जीवों का भारत की भूमि में दिखाया जाना उचित नहीं है जो यहाँ पाए ही नहीं जाते। उन्होंने कहा कि आज सूचना तकनीक का युग है। बच्चे जानते हैं कि चन्दा कोई मामा नहीं है। वह मात्र एक आकाशीय पिण्ड है। पाठकों को सही जानकारी देने वाला साहित्य लिखा जाए।


वक्ताओं ने यह भी कहा कि बाल साहित्य को कई तरह की विधाओं से सराबोर होना चाहिए। केवल कविता कहानी से काम नहीं चलने वाला है। पाठकों को विविधता से भरी विधाओं से युक्त रोचक साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए। वर्तमान में कैसा बाल साहित्य लिखा जा रहा है?


वक्ताओं ने बाल साहित्य के कमजोर पक्षों को भी रेखांकित किया। जीवनी, संस्मरण, यात्रा वृतान्त, आत्मकथ्य, पत्र लेखन, नाटक, एकांकी जैसी विधाओं पर बाल साहित्य लिखने पर वक्ताओं ने जोर दिया। भविष्य के बाल साहित्य पर भी वक्ताओं ने अपनी बात रखी। इस सत्र में निम्नांकित बिन्दुओं पर सभी वक्ता सहमत रहे।
एक-बाल साहित्य सरल हो, वह सभी के पढ़ने के लिए सुलभ हो।
दो-बाल साहित्य अधिकाधिक विधाओं में समान रूप से लिखा जाना चाहिए।
तीन-बचकानी, बेसिर-पैर की कल्पना की अतिरंजना से बाल साहित्य को मुक्त होना चाहिए।
चार-बाल साहित्य को अत्याधुनिक माध्यमों में भी अपनी पैठ बनानी चाहिए।
पाँच-बाल साहित्य को सभी तरह के विषयों को शामिल करना चाहिए।
छःह-साहित्यकारों को चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों को, संवेदनशीलता को प्रमुखता से रचनाओं में शामिल करना चाहिए।
सात-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त साहित्य पाठकों के लिए लिखा जाना चाहिए।


पहले ही दिन सायंकालीन सत्र बाल साहित्य में बाल पत्रिकाओं की भूमिका पर केन्द्रित रहा।

लेखक, समीक्षक एवं आलोचक डॉ. सुरेंद्र विक्रम ने कहा कि पत्रिकाओं की भूमिका मनुष्यता की यात्रा में बच्चों के लिए टॉनिक का काम करती है। उन्होंने पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दी में अब तक ज्ञात पत्रिकाओं की संख्या लगभग 230 के आस-पास है। कुछ पत्रिकाएं समय के साथ बहुत जल्दी बंद हो गई। कुछ पत्रिकाओं ने कई सालों तक नई पौध के व्यक्तित्व के निर्माण में महती योगदान दिया। ‘बाल साहित्य यात्रा में बाल पत्रिकाओं की भूमिका’, विषयक की अध्यक्षता कर रहे डॉ॰ सुरेन्द्र विक्रम ने कहा कि आजाद भारत के बाद साहित्यकारों के समक्ष दूसरी स्थितियां-परिस्थितयां थीं। दासता से मुक्त होकर आजादी मिली थी तो जाहिर है कि रचनाओं में भी वह सब शामिल होना था। साहित्य ने अपने समय के वातावरण को रचनाओं में शामिल किया। आज इक्कीसवीं सदी है। आज लगातार पत्र-पत्रिकाओं से बाल साहित्य बढ़ने की बजाय लुप्त होता जा रहा है। आज का बच्चा सूचनाएं, ज्ञान, जानकारी को भी अल्प समय के लिए चाहता है। आज उसके पास मनोरंजन के कई साधन हैं। पहले ऐसा नहीं था। यही कारण है कि उस दौर में कोई पत्रिका स्वयं में बहुत बड़ा साधन होती थीं। उन्होंने कहा कि बाल पत्रिकाओं ने हमें पाठक बनाया है। संवेदनशील बनाया है। हमारे भीतर बहुत सारे गुणों में वृद्धि पत्रिकाओं की रचनाएं पढ़ने से हुई हैं। आज हमें बालमन के अनुरूप पत्रिकाएं प्रकाशित करनी होंगी। उन्होंने कहा कि बच्चों के लिए प्रकाशित पहली पत्रिका बालदर्पण ही थी। यह 1882 में प्रकाशित हुई थी। भ्रमवश बालाबोधिनी को बालबोधिनी पढ़-समझकर कई अध्येता उसे पहली पत्रिका मानते हैं। बालाबोधिनी महिला केन्द्रित पत्रिका थी। यह स्पष्ट है। बालाबोधिनी का मुखपृष्ठ मेहराब के आकार डिजायन में छपता था, संभव है ऐसी भूल हुई होगी। बालभारती 1948 से अभी तक प्रकाशित हो रही है। बच्चों का देश बाल पत्रिका प्रकाशन का रजत जयंती समारोह मना रही है। यह प्रसन्नता का विषय है।

वरिष्ठ साहित्यकार अनिल जायसवाल ने कहा कि आज लगातार पत्र-पत्रिकाओं से बाल साहित्य बढ़ने की बजाय लुप्त होता जा रहा है। आज का बच्चा सूचनाएं, ज्ञान, जानकारी को भी अल्प समय के लिए चाहता है। आज उसके पास मनोरंजन के कई साधन हैं। पहले ऐसा नहीं था। यही कारण है कि उस दौर में कोई पत्रिका स्वयं में बहुत बड़ा साधन होती थीं। उन्होंने कहा कि बाल पत्रिकाओं ने हमें पाठक बनाया है। संवेदनशील बनाया है। हमारे भीतर बहुत सारे गुणों में वृद्धि पत्रिकाओं की रचनाएं पढ़ने से हुई हैं। आज हमें बालमन के अनुरूप पत्रिकाएं प्रकाशित करनी होंगी।


इस सत्र में अनिल जायसवाल, गोपाल माहेश्वरी, डॉ. इंदु गुप्ता, डॉ. सत्यनारायण सत्य, चक्रधर शुक्ल, हरदेव सिंह धीमान, निमला नगला, यशपाल सिंह यशस्वी, राधा पालीवाल ने भी अपने विचार व्यक्त किए। डॉ॰ इन्दु गुप्ता ने कहा कि बाल-साहित्य का एकमात्र उद्देश्य मात्र बच्चों का मनोरंजन करना और बिना उपदेशात्मक हुए उन्हें सीख दे जाना है। उन्हें दुनिया से रू-ब-रू करवाना है। अच्छे-बुरे में अंतर करना बताना है। प्रकृति से, दुनिया से और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील बनाता है। नैतिक मूल्यों को स्थापित करने हेतु बढ़ावा देना है। सकारात्मक सोच को विकसित करना भी मकसद है। पत्रिकाएं अब तक यह काम बखूबी करती रही हैं। चित्रात्मक कहानियां, नाटक, एकांकी, संस्मरण आदि रोचक होने के कारण मनोरंजन के साथ बौद्धिक विकास, मौलिकता, बच्चों में सृजनशीलता आदि संज्ञानात्मक कौशलों का विकास करता है। चित्रों को देखकर बालमन उनसे समाज को सम्बद्ध कर भावनात्मक संबंध को बढ़ाने की कोशिश करता है। साहित्य भावों, विचारों, घटनाओं, अनुभवों की भाव सहित प्रस्तुति है। विधा कोई भी हो, लेकिन यह बच्चों को कल्पनाशील और रचनात्मक बनाता है। इसमें मनोरंजन, रोचकता व नवीनता तीनों तत्वों का समावेश हो। भाषा सरल और समझने में आसान तथा स्पष्ट होनी चाहिए। बाल-साहित्य में मौलिकता नष्ट न हो। वह क्षेत्रीय जातीय भाषायी कुशलताओं का विकास करे।


सत्र का संयोजन रजनीकांत शुक्ल ने किया। रजनीकांत शुक्ल ने कहा कि यह तय है कि जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीक की रफ्तार बढेगी लोगों की एक-दूसरे से दिलों की दूरी बढती जाएगी। हम सभी जानते हैं मन में मानवीय संवेदनाओं की जडें जमने में बचपन की एक महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। बचपन को संस्कारित करने, उनकी रुचियों को परिष्कृत करने और उनके भविष्य को सही दिशा देने में बाल साहित्य के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि इक्कीसवीं सदी में बाल साहित्य बहुत ही आवश्यक है। वक्ताओं ने स्वीकार किया कि पत्र-पत्रिकाओं के बंद होने से पाठकों-लेखकों के बीच जो संवाद था वह टूट गया है। संपादक के काम, पत्रों की जिम्मेदारी, पत्रिकाओं की जिम्मेदारी और पुस्तकों के महत्त्व पर भी बातचीत हुई। वक्ताओं ने माना कि देश कोई भी हो, युग कोई भी हो, बाल मन के लिए सैकड़ों पत्रिकाएं चाहिए। दुख इस बात का है कि बाल पाठकों की संख्या के हिसाब से अभी हिन्दी में पत्रिकाएं बहुत कम हैं। इनकी संख्या बढ़नी चाहिए।


रात्रिकालीन सत्र डॉ॰परशुराम शुक्ल की अध्यक्षता में संचालित हुआ। सत्र का संचालन डॉ॰चेतना उपाध्याय ने किया। सत्र से पूर्व साहित्यकारों को सात अलग उप विषयों के साथ आधा घण्टा विमर्श के लिए दिया गया। साहित्यकारों ने अपने-अपने समूह में चर्चा की। डॉ॰दर्शन सिंह आशट के संयोजन में कहानी और उपन्यास पर चर्चा हुई। संतोषकुमार सिंह के संयोजन में कविता और बालगीत पर चर्चा हुई। गुडविन मसीह के संयोजन में नाटिका और एंकाकी पर चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि भविष्य का बाल साहित्य न सिर्फ सरल, सुलभ और सुगम होना चाहिए बल्कि रोचक, रोमांचक और मनोरंजक होने के साथ साथ पठनीय व सही दिशा देने वाला होना चाहिए। बाल साहित्य लिखते समय बच्चों की आयु वर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए। भाषा, शिल्प और शैली का भी ध्यान रखना चाहिए। कोरी कल्पना और असार्थकता, तंत्र मंत्र, जादू टोना, अपराध और मारधाड़ से अधिकांशतः बचना चाहिए। विषयवस्तु बालपयोगी, बाल्यावस्था अनुरूप होनी चाहिए। बाल मनोविज्ञान की कसौटी पर खरा होना चाहिए।


डॉ॰ लता अग्रवाल ‘तुलजा’ के संयोजन में संस्मरण और प्रेरक प्रसंग विधा पर चर्चा हुई। चाँद मोहम्मद घोसी के संयोजन में पहेलियाँ और सामान्य ज्ञान पर चर्चा हुई। पदमा चौंगांवकर के संयोजन में पारस्परिक भाषा अनुवाद पर चर्चा हुई।

पदमा चौंगांवकर ने कहा कि समूचे भारत में बच्चों के लिए क्षेत्रीय भाषा में बहुत कुछ साहित्य है। आज जरूरत इस बात की है कि हम उस साहित्य का विविध भाषाअें में अनुवाद करें। उन्होंने कहा कि आज चरित्र, अच्छा आचरण और सामाजिकता के मूल्य कम होते जा रहे हैं। हमें बाल साहित्य में इन्हें शामिल करना ही चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसा साहित्य समामग हमें ऊर्जा से भरेगा और हम चिढ़, क्रोध, बेवजह की प्रतिस्पर्धाओं को रेखांकित करते हुए बेहतरीन बाल साहित्य रचेंगे।

दिलीप शर्मा के संयोजन में बाल साहित्य में चित्रांकन पर चर्चा हुई। तत्पश्चात बड़े समूह में उप सत्रों के संयोजकों ने चर्चा के निष्कर्ष बिन्दु साझा किए। समेकन करते हुए डॉ॰ परशुराम शुक्ला ने कहा कि यह बड़े हर्ष का विषय है कि हर समूह में कई साहित्यकारों ने मिल-बैठकर विधावार कल, आज और कल को ध्यान में रखते हुए चर्चा की। उन्होंने कहा कि लेखन एक कौशल है। यह अभ्यास से और सधता जाता है। लेकिन पाठकों की संख्या के हिसाब से हर विधाओं में हजारों रचनाएँ लिखे जाने की जरूरत है। प्रकाशन की भी आवश्यकता है। पाठकों को ध्यान में रखते हुए भी लिखा जाना और छपने से पूर्व उसकी तटस्थ समीक्षा की जानी जरूरी है। अन्यथा बहुत अनुपयोगी और पाठकों में अरुचि पैदा करने वाली सामग्री भी बहुतायत में प्रकाश में आ रही है। इसे समझने की आवश्यकता है। पहेलियाँ और सामान्य ज्ञान को रोचक तथा नए भाव-बोध के साथ लिखे जाने की आवश्कयता पर बल दिया गया। प्रेरक प्रसंगों और चित्रांकन पर भी अत्यधिक परिश्रम किए जाने, अधिकाधिक नए कहन पर भी जोर दिया गया।


बाल साहित्य के भावी स्वरूप, चुनौतियाँ और समाधान पर भी व्यापक चर्चा हुई।

इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार समीर गांगुली ने की। उन्होंने कहा कि साहित्य से अधिक फिल्म इंडस्ट्री समृद्ध है। प्रयोगवादी है और नित नए साधनों-तरीकों को इस्तेमाल करती है। साहित्य को भी अब नए कलेवर में आना होगा। अनुवाद का काम भी बड़े स्तर पर होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दी का लेखन और सिनेमा भी बहुत पीछे है। हालांकि हिन्दी सिनेमा अन्य भाषाओं, विदेशी सिनेमाओं से प्रेरित होता है और वहाँ से सीखता है लेकिन हिन्दी साहित्य को अभी खुद को इस दिशा में अपडेट करना होगा। 

इस सत्र का संयोजन कर रहे साहित्यकार अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ ने कहा कि साहित्य हमें एक जीव से मनुष्य बनाने में सहायता करता है। एक सामाजिक जीव के भीतर मनुष्यता के बीज बोने का काम साहित्य करता है। उन्होंने कहा कि तकनीकी विकास कल कहाँ तक जाएगी? कोई नहीं जानता। यह स्क्रीन युग है। आज समय से पूर्व सब कुछ सार्वजनिक हो रहा है। ऐसे में साहित्य की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्होंने कहा कि परिपक्व बाँस को मोड़ा नहीं जा सकता। यही बात बच्चों के संदर्भ में है। आज हिंसा, अपराध, कुण्ठा, हताशा, निराशा, आत्मघाती निर्णय तक बच्चे ले रहे हैं। ऐसे में साहित्य एक सखा की भूमिका निभा सकता है। आज के बच्चे तथ्यात्मक तौर पर और सूचनात्मक तौर पर बहुत कुछ जानते हैं। परम्परागत साहित्य से काम नहीं चलने वाला है। चुप रहने और संवादहीनता से भी काम नहीं चलने वाला है। हमें नई पीढ़ी से संवाद करने होंगे। उनके मन की थाह लेनी होगी।


मुंबई क सुप्रसिद्ध साहित्यकार ताराचंद मकसाने ने कहा कि आज ज़रूरत है कि साहित्य पाठक के समक्ष सत्य को लाए। आज भी दशकों पूर्व लेखकों के उद्धरण-कथन हम बार-बार पढ़ते हैं। सुनते हैं और सुनाते हैं। लेखन आने वाले कल के पार देखता है। साहित्य में यथार्थवाद आज पहली जरूरत है। जीवन की समस्याएं भी शामिल हों और समाधान भी साहित्य में हो। उन्होंने कहा कि नई तकनीक आज की जरूरत हैं। उन्हें कोसने से कुछ नहीं होने वाला है।


साहित्यकार कविता मुकेश ने कहा कि यह बात सही है कि साहित्य मनोरंजन और आनंद की प्राप्ति के लिए है। लेकिन यह पाठक की जिज्ञासा बढ़ाए भी और शांत भी करे। आज डिजिटल माध्यमों के प्रभाव से हम बच नहीं सकते। पाठक का उस जाना स्वाभाविक है लेकिन लेखन भी उन माध्यमों में खुद को परिवर्तित करे। लेखकों को चाहिए कि आज के बच्चों की रुचियों के अनुसार लेखन करे। आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त साहित्य समय की मांग है। एक ओर बच्चों पर पढ़ाई का दबाव है वहीं रोजगार का संकट का भय भी है। बच्चे बहुत जल्दी वयस्क हो रहे हैं। उसी तीव्रता के साथ हमारा साहित्य भी परम्परागत साहित्य से आगे बढ़े। बाल साहित्य रचते समय कुछ प्रश्न एक साहित्यकार के समक्ष हमेशा होने चाहिए। यह जानना जरूरी है कि बच्चों की उम्र और रुचि क्या है। वे क्या पढ़ना चाहते हैं? उन्हें भविष्य में किस प्रकार की चुनौतियों से दो-चार होना पड़ सकता है। इसके लिए बाल- साहित्य में शिक्षा और मनोरंजन के साथ विविध विषय भी समाहित होने चाहिए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता, साहित्य और कला का संयोजन, कल्पना शक्ति को विकसित करना,अनुवाद कार्य द्वारा विश्व भर का बाल-साहित्य बच्चों को उचित दर पर उपलब्ध करवाना। इसके अलावा विभिन्न संस्कृतियों और भाषायों का भी उनके साहित्य में समावेश होना चाहिए। इस तरह आकर्षक, ज्ञानवर्धक, सुरुचिपूर्ण और उद्वेश्यपूर्ण बाल साहित्य द्वारा बच्चों का समग्र विकास संभव है।

डॉ॰ राजवन्त कौर ने पूर्वी पंजाब और पश्चिमी पंजाब के बाल साहित्य पर चर्चा की। उन्होंने गुरुमुखी और शाहमुखी भाषाओं में बाल साहित्य को अभी आरंम्भिक दौर माना। उन्होंने कहा कि भारत की कई भाषाओं का अनुवाद पंजाबी में हो। यह आज की जरूरत है। स्थानीय भाषाओं का और स्थानीय भाषाओं में बाल साहित्य कम ही मिलता है। पाकिस्तान और पूर्वी पंजाब में अभी बच्चों के लिए लेखन आरम्भिक दौर में है।


डॉ॰ उमेशचन्द्र सिरसवारी ने कहा कि अब बच्चों को सीख, नसीहतों और उपदेशों से अटे पड़े साहित्य से कुछ नहीं होने वाला है। साहित्य के नाम पर सूचना, ज्ञान और सामान्य ज्ञान ठूंसने से भी काम नहीं चलने वाला है। बच्चों की पसंद को समझने की आवश्यकता है। सुनील कुमार माथुर ने कहा कि बच्चों के लिए समाचार पत्रों में अब कोई जगह नहीं रही। पत्रिकाएं नाम मात्र की हैं। जो हैं वह डाक से पहुँचती नहीं। दुकानों में अब पत्रिकाएं नहीं मिलतीं। यदि है तो अंग्रेज़ी का बोलबाला है। हिन्दी की स्थिति बेहद खराब है।


कुसुमरानी नैथानी ने कहा कि पुस्तकालय खोले जाने चाहिए। किताबों की महत्ता पर स्कूलों को भी जिम्मेदार बनाना चाहिए। किताबें पढ़ना और कोर्स की किताब पढ़ना में जो बड़ा अंतर है उसे अभियान के तहत सामने लाने की आवश्यकता है।
मंगलकुमार जैन ने कहा कि किताबों का पत्रिकाओं का महत्व कभी कम नहीं हो सकता। लेकिन आज पढ़ने के माध्यम बदल गए है। स्क्रीन पर भी बाल साहित्य लाया जा सके। इस दिशा में भी काम होना चाहिए। उषा सोमानी ने कहा कि खरीदकर पढ़ने की आदत घर से और स्कूल से आ सकती है। यह आज बड़ी चुनौती है।
विकास खन्ना ने कहा कि विविधता से भरी सामग्री आज भी चुनौती है। बच्चों का साहित्य अभी परम्परा से बाहर नहीं निकल पा रहा है। चीज़ों को सिंपल रखना और रोचक बनाना भी बड़ी चुनौती है। फिल्मों की ओर झुकाव ज्यादा है। बच्चों के लिए प्रिंट मीडिया कुछ खास नहीं कर रहा है। भारतीय भाषाओं का साहित्य तो दूर अपनी-अपनी भाषाओं में भी सार्थक लेखन बच्चों के लिए नहीं हो रहा है।

बाल साहित्य का पठन-पाठन: समाज व परिवार का दायित्व विषयक सत्र की अध्यक्षता कर रहीं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ॰ विमला भण्डारी ने कहा कि परिवार समाज की इकाई है। परिवारों से ही समाज बनता है। आज तीन मंजिला मकान हैं लेकिन उन मकानों में किताबों का एक कोना तक नहीं है। घर के बजट में सब कुछ है लेकिन पुस्तकों की खरीद का कोई बजट नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दी समृद्ध है। हिन्दी में देखा और सुना जा रहा है लेकिन हिन्दी में बस पढ़ा नहीं जा रहा है। उन्होंने कहा कि आज के दौर में क्लब हैं। किटी पार्टी हैं। उत्सवों का माहौल है बस बच्चों के क्लब नहीं हैं। बच्चों की दुनिया आज मशीनीकृत हो चुकी हैं आज बच्चों को साहित्य से और सामाजिक गतिविधियों में इनवॉल्व करना होगा।

संयोजन कर रहे बाल प्रहरी के संपादक उदय किरौला ने कहा कि हम सभी सूचना तकनीक को, बच्चों को कसूरवार ठहरा रहे हैं लेकिन हमें विचार करना होगा कि हम बच्चों के लिए क्या प्रयास कर रहे हैं। क्या हमने उन्हें पढ़ने के मौके दिए? क्या हमने बच्चों के साथ बैठकर उनकी इच्छाएं पूछीं? उन्होंने कहा कि आज भी बच्चे पढ़ना चाहते हैं। उन्हें मौके देने होंगे। उन्हें पढ़ने के विकल्प देने होंगे।


साहित्यकार संगीता सेठी ने कहा कि समाज का दायित्व है कि वह नई पीढ़ी को देखे। उन्हें अपने कार्यों से प्रोत्साहित करे। वैसे देखें तो हम साहित्यकारों को हमारे परिवार में और हमारे मुहल्ले में कितना जानते हैं? क्या हमने बतौर साहित्यकार आस-पास पढ़ने के मौके जुटाए? हमने बच्चों के साथ समय बिताने के कितने अवसर जुटाए? हमें बच्चों से संवाद करना ही होगा। घर में बैठकर हवा में बाल साहित्य लिखने से बात नहीं बनने वाली है। किशोर श्रीवास्तव ने कहा कि अब अतीत को बार-बार कोसने से कुछ नहीं होगा। परिवारों में बच्चों को चुप कराने के तरीकों को देखिए। माँ अपनी बेटी की बेटी को लोरी सुनाएगी। बात करेगी। संवाद अभिनय करेगी। वहीं बेटी अपनी बेटी को मोबाइल पकड़ा देगी। यह अन्तर भी साहित्य से मोह भंग का बड़ा कारण है। साहित्य का प्रचार-प्रसार बढ़ना चाहिए। समाज में कई गतिविधियां जोर-शोर से होती हैं। लेकिन बाल साहित्य के इवेंट क्या होते हैं? गुणवत्ता भी एक बड़ा कारण है। बाल साहित्य बच्चों में ललक जगाए। हर काल अपने समय में उस दौर की पीढ़ी के लिए बेहतर होता है। समय बदलता है तो रंग-ढंग भी बदलता है। यह कहना कि आज के बच्चे पढ़ नहीं रहे हैं, उचित नहीं होगा। समाज में पढ़ने की कितनी गतिविधियां हो रही हैं? कई अभिभावक स्कूली किताब से इतर पढ़ना को वाहियात काम समझते हैं। साहित्य को समाज से जोड़ा जाना जरूरी है।


डॉ॰ सतीशचन्द्र भगत ने कहा कि पढ़ने की आदत समाज में बड़ों से ही आती है। आज पढ़ना कम हो गया है और दृश्य माध्यम बढ़ गए है। लेकिन यह तो तय है कि परिवार-परिवार से जुड़कर पढ़ने की संस्कृति का विकास होना चाहिए। गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’ ने कहा कि समय के साथ-साथ हमें अपने लेखन में ध्यान देना होगा। घर-परिवार में बच्चों के साथ समय बिताना होगा। उन्हें श्रृव्य,दृश्य के साथ छपी सामग्री भी देनी होगी। खुद भी पढ़ना होगा और पढ़ते-पढ़ते सुनाने की परंपरा भी बढ़ानी होगी। किताब से पढ़ना और स्क्रीन पर पढ़ना में काफी अंतर है। असर में भी अंतर है।
सुशीला शर्मा ने कहा कि घर-परिवार में लोक कथाओं को सुनाने की परंपरा लुप्त होती जा रही है। पहले हर घर में ग्रन्थ थे। पारम्परिक कवियों-लेखकों की रचनाएं कंठस्थ थी। आज ऐसा नहीं है। टीवी ने बहुत सारा समय ले लिया है।
प्रभा पारीक ने समाज की भूमिका को बालकेन्द्रित न होने पर अफसोस जताया। भागमभाग जीवन शैली को बड़ा कारण बताया। उन्होंने कहा कि बालकों को स्कूली शिक्षा से इतर व्यावहारिक ज्ञान देने में बाल साहित्य सदा उपयोगी रहा है। पारिवारिक ढांचे में बदलाव, बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह जिम्मेदारी दादा-दादी, नाना-नानी से अब माता-पिता पर आ गई है। समयाभाव के कारण वह इसे नहीं निभा पा रहें हैं। यह चिन्ता का विषय है और बाल साहित्य इस भूमिका को बेहतर ढंग से निभा रहा है। उन्होंने कहा कि बाल साहित्य बालकों को मनोरंजन के साथ जानकारी, व्यावहारिक, नैतिक समझ देने के लिए आवश्यक है। भविष्य का बाल साहित्य ऐसा हो जो बालकों के मन को गुदगुदाने में सक्षम हो, समय और आयु वर्ग के अनुरूप हो। आज के बदलते परिवेश में बालकों के मस्तिष्क पर भौतिकतावादी सोच हावी हो रही है। वे सुविधा-संपन्नता के अभ्यस्त हो रहे हैं। अतिमहत्वकांक्षी होते जा रहे हैं। कुंठा, आक्रोश, क्रोध और समाज में बाल हिंसा के उदाहरण बढ़ रहे हैं। आज का बाल साहित्य ऐसा हो जो उन्हें लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास के लिए प्रेरित करे। सादगी का महत्व समझाए। मनोरंजन करके उनकी मानसिक सोच को सही दिशा देने में मददगार साबित हो।
शिल्पी पाण्डे ने कहा कि बच्चों से ही कैसे उम्मीद करें जब घर में किताबों के लिए कोई जगह नहीं है। किताब पढ़ने की आदत बड़ों में ही नहीं हैं बच्चे भी पढ़ें ऐसा दायित्व निभाने में परिवारों को आगे आना होगा। समशेर कोसलिया ने कहा कि बाल साहित्य अब बच्चों के लिए अभिभावक लगाना चाहते हैं। लेकिन पत्रिकाओं की नियमितता और डाक व्यवस्था बड़ी लचर है। किताबें बांटने और उपहार में देने की बात होनी चाहिए। एक से बढ़कर एक उपहार दिए जा रहे हैं किताबें क्यों नहीं? समाज परिवारों से बनता है। परिवारों में पढ़ना-लिखना केवल कोर्स तक सीमित है।
पाखी जैन ने कहा कि स्कूल में बच्चों को पढ़ने के लिए किताबें मिलनी चाहिए। लक्ष्य मिलना चाहिए। टीचर बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।


आदर्श व्यक्तित्व निर्माण में बाल साहित्य की भूमिका विषयक सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द शर्मा ने की। उन्होंने कहा कि इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि बाल साहित्य हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में सहायतन नहीं करता। करता है। बहुत हद तक हमारा बोलना, सुनना, देखना, अवलोकन करना और संवेदनशीलता साहित्य से बहुत गुणा बढ़ जाती है। हमारी पीढ़ी के साथ-साथ नब्बे के दशक तक भी साहित्य ने हमें गढ़ा। यह सत्य है। पत्रिकाओं को पढ़ने की ललक किस हद तक थी। यह किसी से छिपा नहीं है। वह दौर बहुत सारी पत्र-पत्रिकाओं का था। अखबार दो-तीन दिन बाद मिलता था तब भी पढ़ने की ललक थी। जिज्ञासा थी। आज तौर-तरीके बदल गए हैं। लेकिन छपी हुई सामग्री का पढ़ना आज भी जारी है। इसे बढ़ाने की आवश्यकता है। समाज के साथ-साथ संपादक, अखबार-पत्र-पत्रिकाएं और लेखक के साथ-साथ पाठकों में एक समन्वय था। आज यह सम्बन्ध क्षीण हो गया है। अब बाल साहित्यकार मेला लगने चाहिए। बाल साहित्य पाठक भी बनाता है और धीरे-धीरे मनुष्यता की ओर ले जाता है। समझदारी बढ़ाता है।


वरिष्ठ साहित्यकार राकेश चक्र ने कहा कि जमीन पर जाने की जरूरत है। समय का दान करने की जरूरत है। बच्चों को समय नहीं दे रहे हैं तो कैसे चलेगा? समय होने पर भी बच्चों के लिए माता-पिता के पास समय नहीं है। समय है तो वह टीवी-मोबाइल पर जा रहा है। सारे शौक में पढ़ने के लिए समय निकालना ही होगा। रोचक साहित्य भी रचना होगा।


प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ ने कहा कि अवसर और चुनौतियां बाल साहित्य इन दोनों के लिए पाठकों को गढ़त है। आत्मबल बढ़ाता है। बालपाठक ही आगे चलकर साहित्य के पाठक बनते हैं। फिर कमोबेश उन्हीं में से वह लेखक बनते हैं। राजकीय पुस्तकालयों की संख्या बढ़नी चाहिए। पढ़ने की संस्कृति आधारित गतिविधियां बढ़नी चाहिए। उन्होंने कहा कि लेखन में सीख, प्रवचन एवं उपदेश से बचना जरूरी है। संदेश दूध में मक्खन और गन्ने में मिठास की तरह घुला हो, पाठक स्वविवेक से उचित संदेश ग्रहण कर लेंगे। नकारात्मकता, निराशा, पलायन, कुंठा से बचते हुए सकारात्मक, आशा एवं विश्वास, चुनौतियों से जूझने एवं स्वयं की क्षमताओं से पहचान कराने वाला लेखन हो। वैश्विक चुनौतियों के समाधान, नित नये अनुसंधान एवं मानवजाति पर इसके अच्छे-बुरे प्रभाव पर लेखन हो।


वरिष्ठ साहित्यकार डॉ॰ आर॰पी॰ सारस्वत ने कहा कि आज जरूरत इस बात की है कि बच्चों की जरूरतों को ध्यान में रखकर नया साहित्य रचने की जरूरत है। उनकी जिज्ञासाओं को समझना भी जरूरी हैं विषयों की विविधता भी हो। सरलता, बोधगम्यता के साथ नवीनता आज के साहित्य में चाहिए। आज की चुनौतियों और उनसे पार पाने संबंधी रचनाएं ही नई पीढ़ी का आत्मबल बढ़ाएगी। गोविन्द भारद्वाज ने कहा कि कहानियों में ही निर्माण हैं सकारात्मकता है। साहित्य में श्रृवण, कहन और लेखन होता है। यह हमारे समग्र विकास में सहायक है। कभी व्यावसायिक-मिशनरी पत्रिकाएं थीं। अब धीरे-धीरे सब बन्द हो रही हैं। बुक स्टॉल ही खत्म हो रहे हैं। हमें भी अपने तरीके बदलने होंगे। पढ़ना चाहते हैं बच्चे लेकिन बच्चों तक पत्रिकाओं की पहुँच नहीं है।


देशबन्धु शाहजहाँपुरी ने कहा कि यकीनन साहित्य हमें समृद्ध करता है। साहित्य पढ़कर कई पाठकों का मन बदल जाता है। हाँ ! बच्चों तक साहित्य कैसे पहुँचे? वह कैसे साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालें? इनके जवाब खोजने होंगे। किताबें जन्मदिन पर उपहार के तौर पर दी जा सकती है। साहित्य हमें उदार बनाता है।


डॉ॰ विभा शुक्ला ने कहा कि पत्रिकाएं अनवरत् चलनी चाहिए। नई पत्रिकाओं का उदय होना चाहिए। सकरात्मकता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। बाल विमर्श होना चाहिए। बच्चों के लिए विविधता से भरा नायाब लेखन लगातार होना चाहिए। छपी हुई बातें मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ती है। बच्चों तक बाल साहित्य पहुँचे इसके लिए साहित्यकारों, प्रकाशकों, शिक्षकों को भी प्रयास करने होंगे। डॉ॰विभा शुक्ला ने कहा कि कई तरह के विमर्श समाज में चलते रहते हैं। बाल विमर्श को भी निरन्तर किए जाने की आवश्यकता है।


साहित्यकार आशा पांडे ओझा ने कहा कि चरित्र निर्माण कोरे आदेशों से नहीं आता। मानव व्यवहार, परिवार और समाज से आता है। मानव व्यवहार को गढ़ने में साहित्य की बड़ी भूमिका है। माँ को बच्चों से संवाद जारी रखने होंगे। अभिभावक बच्चों की जरूरतों को पूरा करते हैं लेकिन किताब एक जरूरत बने। शिक्षकों को पढ़ने के लिए अवसर मुहैया कराने होंगें डॉँ राज गोपाल ने कहा कि बच्चों की संख्या लगातार कम हो रही है। ऐसा कहा जा रहा है। अच्छा रचनाकर्म हो और पहुँच हो तो बच्चे पढ़ना चाहते हैं। मोबाइल-टीवी अपनी जगह है। हमें रोचकता के साथ आगे बढ़ना होगा।
नमिता वैश्य ने कहा कि अभिभावक, शिक्षक, विशेषकर माँ साहित्य को फिर से समाज में लोकप्रिय बना सकती हैं। बच्चों को किताबें दें। उनकी रिकॉर्डिंग की जाए। नए माध्यमों की ओर जाना होगा।


एक सफल बाल साहित्य रचनाकार होने के मायने विषयक सत्र की अध्यक्षता करते हुए मराठी साहित्यकार राजीव ताम्बे ने कहा कि सिर्फ पुरस्कार-सम्मान और पुस्तकों की संख्या के मायने नहीं हैं। यह सफलताएं हो सकती हैं लेकिन सफलताओं की कोई सीमा नहीं है। कुछ नया करूँ। यह रचनाकार का चिन्तन होना चाहिए। सोचना-समझना और बच्चों के लिए नया क्या लिखा लिखूँ? यह चलते रहना चाहिए। बतौर रचनाकार हमारा तो दायरा है। हमारा जो शिल्प है उसे तोड़ने की ज़रूरत है। स्वयं नया सीखने की ललक होनी चाहिए। टैगोर ने बांग्ला में लिखा। टैगोर का लिखा कई भाषाओं में कैसे पहुँचा। रचनाकार को अपनी भाषा, राज्यों की भाषाएं, भारत की भाषाओं में क्या नया लिखा जा रहा है? इस सवाल का जवाब खोजना चाहिए। बच्चों के बारे में लगातार सोचना चाहिए। सरस पाठ कैसे लिखा जाए? इस पर लगातार काम करना होगा। बतौर रचनाकार मैं स्वस्थ हूँ। प्रसन्न हूँ। अच्छी बात है। लेकिन यह काफी नहीं। हमारे आस-पास का समाज भी स्वस्थ और प्रसन्न रहे। उन्हें ऐसा साहित्य दें जो सकारात्मक हो। मनोरंजन से परिपूर्ण हो। सीखने के अवसर लें और दें। हमारे साहित्य से तात्पर्य निकले। तात्पर्य के लिए साहित्य नहीं लिखें। हम बच्चों पर अन्याय न होने दें। अनजान बच्चों से बात करें। उनके नजदीक जाएं। बच्चों के लिए लिखता हूँ लेकिन बच्चों के बीच नहीं जाता। इससे काम नहीं चलने वाला है। बाल केन्द्रित साहित्य भी हो और हम भी हों।


इन्द्रजीत कौशिक ने कहा कि हम जीवन में भी सारगर्भित हों। हम भी उपयोगी हों। हमारी रचना उपयोगी हो। सारगर्भित हो और हमारी जीवन शैली जोड़ने वाली न हो तो कैसे चलेगा। हम रचनाकर्म करते समय पाठकों की छवि को भी ध्यान में रखें। मोबाइल को कोसने से काम नहीं चलेगा। साहित्य मोबाइल के जरिए पढ़ा जाए तो कैसा हो? हमारे रचने की सार्थकता तभी है जब समाज सकारात्मक हो। सब खुशहाल हों। उन्होंने कहा कि इक्कीसवीं सदी में इसकी आवश्यकता और अधिक हो चली है। सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के युग में नई पीढ़ी के दिग्भ्रमित होने का खतरा बढ़ गया है। बच्चों का मार्गदर्शन भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। ऐसे में अच्छा बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध करवाना अत्यंत आवश्यक है। बचपन में उचित मार्गदर्शन एवं मूल्यों से परिचित करवाने की भूमिका को अच्छा बाल साहित्य बखूबी निभा पाने में सक्षम हो सकता है।
बाल साहित्यकारों को भी समस्त पूर्वाग्रहों से दूर रहकर बच्चों को तार्किक और मनोरंजन से भरपूर नई सदी के अनुरूप रचनाओं का निर्माण करना चाहिए।
रावेन्द्र रवि ने आंचलिकता और स्थानीय संवादों को प्रमुख माना। उन्होंने कहा कि भाषा बनावटी न हो। प्रचलन की भाषा को शामिल करना होगा। बच्चों की भाषा में लिखना होगा। छपास रोगी से इतर हम बालमन के निकट हों। जीवन से संबंधित अनुभव दर्ज करें। सूक्ष्म अवलोकन करें। हम स्वयं भी संवेदनशील हों और साहित्य भी संवेदना से भरने वाला हो।
डॉ॰शील कौशिक ने कहा कि हमारी अभिव्यक्ति भी मायने रखती है। परिवेश, वातावरण और जुड़ाव हमारे साहित्य को रोचक बनाता है। हम बेसिर-पैर की न लिखे। सूफियाना फितरत, विचित्र, बच्चों को भा जाने वाला साहित्य, विविध विधाओं में लिखा जाए। नए, अलबेले, अलमस्त, विचित्र और नई दृष्टि देने वाले पात्र गढ़ें। उन्होंने कहा कि आज के तकनीक और वैज्ञानिक युग में बालक मोबाइल और सोशल मीडिया के सुपुर्द होकर समय से पहले परिपक्व और जागरूक हो रहा है। हम नए गैजैट्स पर रोक नहीं लगा सकते। लेकिन उनका सदुपयोग करना तो हमारे वश में है। आज गला काट प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अभिभावक बच्चों की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। संयुक्त परिवार वाली दादी-दादी, नाना- नानी, बुआ- फूफा, मौसी- मौसा वाली संस्कारशाला खत्म हो चली है। ऐसे में बाल साहित्यकारों की जिम्मेदारी अधिक बढ़ गई है। हमें बदलते परिवेश के साथ बच्चों की रुचि, भावना, भाषा और मनोवृतियों को समझ कर बाल साहित्य लिखना चाहिए। इसके लिए बच्चों के क्रियाकलापों में रुचि रखनी होगी, क्योंकि बालकों की औत्सुक्य और जादुई दुनिया से कटकर हम बाल साहित्य की रचना नहीं कर सकते। हमें नए जमाने के साथ कदमताल करते हुए उनसे आगे की सोच रखनी होगी और विषय संबंधी सार्वभौमिक ज्ञान रखना होगा। हमारी रचनाओं का स्वर उपदेशात्मक न होकर रोचकता से भरपूर और सहज परिचयात्मक होना चाहिए। अपनी रचनाओं में हम अलबेले, अनूठे पात्र लेकर आएँ जो अलमस्त हो और बालकों के मन पर जादू जैसा कुछ कर दें। उनमें नई दृष्टि नई कल्पना की उड़ान हो।


ओमप्रकाश क्षत्रिय ने कहा कि बाल साहित्य एक खिड़की है। पाठक इससे बाहर झांकता है। सोचने-समझने और सवाल करने की आदत बाल साहित्य से बनती है। कहानी विधा को ही लें तो पात्रों के जरिए पाठक गुण-दोष, अच्छा-खराब की परख करता है। अपने अनुभव के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है। कल्पना शक्ति बढ़ती है। बच्चों को जानने में रचनाकार समय दें। उनके बात करे। उन्हें बोलने का अवसर दें।


अर्चना त्यागी ने कहा कि बचपन से ही यदि पढ़ने की आदत विकसित हो जाए तो वह आगे चलकर गंभीर अध्येता भी बनते हैं। सोचने-समझने का नजरिया अलग हो जाता है। सामाजिक सरोकार में अलग तरह की पहचान-भागीदारी बनती है। मिट्टी तो लगभग एक ही है लेकिन खाद-पानी-हवा और प्रकाश जैसा वातावरण हष्ट-पुष्ट वृक्ष बनाता है। साहित्य भी एक खुराक है। बाल मनोविज्ञान के साथ-साथ बदलते वातावरण की परख भी जरूरी है।
कैलाश त्रिपाठी ने कहा कि बालमनोविज्ञान और मनोविज्ञान की समझ का होना आवश्यक है। बालकों का क्या हमारा भी तो साहित्य सर्वांगीण विकास करता है। हमारे मनोविकारों को दूर करता है। सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामुदायिक स्तर पर साहित्य हमें चिन्तनशील प्राणी बनाता है। इसके लिए बतौर रचनाकार हमें और भी जागृत होना पड़ता है।


नयन कुमार राठी ने कहा कि बच्चों की भाषा, स्वभाव, गुण, आदतें पकड़ना जरूरी है। अपने समय को ध्यान में रखने की बजाय वर्तमान समय को ध्यान में रखकर सृजन किया जाना चाहिए। बच्चों को सुनना जरूरी है। उन्हें स्पेस देना जरूरी है। मौके देना जरूरी है। उनकी चिंता करना जरूरी है।


इस सत्र का संचालन कर रही बाल साहित्य की अध्येता एवं रचनाकार नीलम राकेश ने कहा कि मेरी दृष्टि में सच्चा बाल साहित्यकार वही है जो अनुग्रहीत महसूस करे कि देश, समाज, दुनिया की भावी पीढ़ी के चरित्र निर्माण में, उनके जीवन में कुछ योगदान देने का यह महत्वपूर्ण अवसर उसे मिला है या इसके लिए वह चुना गया है! साथ ही साथ उसके अंदर एक लेखक के रूप में यह पाँच गुण भी होने चाहिए। निरंतरता, विषय की नवीनता, बालमन की समझ, बच्चों से सीधा संपर्क और सरल, संप्रेषणीय भाषा। नीलम राकेश ने सुझाया कि एक अच्छा बाल साहित्यकार बनने के लिए एक अच्छा पाठक होना, परकाया प्रवेश, ज्ञान बघारने से बचना, बालक की उम्र के दायरे में रहना और नए-अनछूए विषयों पर लिखना कार्य करते रहना चाहिए।


तीन दिवसीय संगोष्ठी में सत्रों के मध्य रोचका गतिविधियाँ भी रहीं। साहित्यकारों ने चिल्ड्रन’स पीस पैलेस में बाल मनोविज्ञान पर आधारित विभिन्न दीर्घाओं का अवलोकन किया। इस परिसर में शानदार संग्रहालय भी है। मानव समाज को समझने की कई दीर्घाएं हैं। स्वस्थ समाज की परिकल्पना के साथ बाल संसद का नमूना भी है। जहां अभिनय के साथ संसद का अनुभव लिया जा सकता है।


संगोष्ठी के दूसरे दिन सभी साहित्यकारों को टीम के तौर पर राजसमन्द के इकतीस विद्यालयों में भेजा गया। इसे बाल साहित्य संवाद नाम दिया गया। साहित्यकारों ने कक्षा पाँच से लेकर कक्षा 10 तक के विद्यार्थियों के समक्ष अपनी लोकप्रिय विधा में प्रस्तुति दी। इसके साथ-साथ साहित्य में विधाओं की रचना प्रक्रिया साझा की। विद्यार्थियों से संवाद भी किया। विद्यालयों में एक से डेढ़ घण्टा बिताना यादगार रहा। विद्यार्थियों के साथ विद्यालयी शिक्षक-संस्थाध्यक्ष भी आनन्दमयी हो गए। एक साथ एक क्षेत्र में लगभग एक हज़ार विद्यार्थियों के साथ बाल साहित्य संवाद अभिनव प्रयोग रहा। बाल साहित्य संवाद में आदर्श विद्या मन्दिर, हाउसिंग बॉर्ड, कांकरोली, अपेक्स सीनियर सेकण्डरी स्कूल, धोइन्दा सिविलाइजेशन सीनियर सेकेंडरी स्कूल, पीपरड़ा, क्रियेटिव ब्रेन अकेडमी, गुंजोल, गांधी सेवा सदन, राजसमन्द, इन्द्रप्रस्थ पब्लिक स्कूल, एमड़ी, गायत्री पब्लिक स्कूल, धोइन्दा, जवाहर नवोदय विद्यालय, राजसमन्द, जीवन ज्योति पब्लिक स्कूल, पीपरड़ा, लक्ष्मीपत सिंघानिया स्कूल, राजसमन्द, मातेश्वरी विद्या मन्दिर, हाउसिंग बोर्ड, कांकरोली, नवप्रभात उच्च माध्यमिक विद्यालय, एमड़ी, नोबल पब्लिक स्कूल, भावा, आरेन्ज काउण्टी स्कूल, राजसमन्द, प्रगति पब्लिक स्कूल, एमड़ी, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, एमड़ी, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, धोइन्दा, राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, लवाणा, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, पीपरड़ा, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बोरज, राजकीय बालिका उ. मा. विद्यालय, कांकरोली, राजकीय बालिका उ. मा. विद्यालय, राजनगर, राजकीय विवेकानन्द उ.प्रा. विद्यालय, सूरजपोल, राजकीय बाल कृष्ण उ. मा. विद्यालय, कांकरोली, राजकीय महात्मा गांधी स्कूल, राजनगर, सविता इन्टरनेशनल सेकेंडरी स्कूल, नान्दोली, सविता इन्टरनेशनल स्कूल, राज्यावास, स्मार्ट स्टडी इंटरनेशनल स्कूल, गुंजोल तथा सोफिया पब्लिक स्कूल, भावा, सुभाष पब्लिक स्कूल तथा कांकरोली सनराइज पब्लिक स्कूल, राजनगर शामिल रहे। एक शाम बाल कविता गोष्ठी भी संचालित हुई। इस काव्य गोष्ठी का संयोजन साहित्यकार भगवती प्रसाद और कुसुम अग्रवाल ने किया। देर रात तक बतौर श्रोता उपस्थितों ने एक से बढ़कर एक बालमन की कविताओं का आनन्द लिया।


तीसरी सुबह साहित्यकारों को राजसमन्द से लगभग चार किलोमीटर की दूर पर स्थित नौ चौकी पाल पर ले जाया गया। यहाँ झील किनारे अणुविभा के साथियों डॉ॰नीलम जैन और देवेन्द्र के नेतृत्व में ध्यान और योग शिविर लगाया गया। बाद में स्थल पर ही लौकी-जीरा-कालीमिर्च युक्त पेय पदार्थ ने समां बाँध दिया।


समापन सत्र भी बालकेन्द्रित रहा। साध्वीश्री डॉ. परमप्रभा जी ने तीनों दिन की समूची प्रक्रिया को विस्तार से जाना। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि धर्मगुरुओं और साहित्यकारों का प्रयास होता है कि बालकों में भारतीयता के संस्कारों का बीजारोपण हों एक स्वस्थ समाज, शांति का समाज बने। इंटरनेट की वजह से आज बच्चों का बचपन खत्म होता जा रहा है। ऐसे में साहित्यकारों का दायित्व बनता है कि वे बच्चों के लिए स्वस्थ, सुसंस्कारित और बहुपयोगी साहित्य रचे। साध्वीश्री लब्धियशा जी ने कहा कि संत, साहित्यकार और सैनिक की त्रिवेणी देश के योगदान में महती भूमिका निभाते हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि यदि आपके पास दो डॉलर हैं तो आप एक डॉलर से रोटी खरीदें और दूसरे डॉलर से पुस्तक खरीदें। रोटी आपका जीवन बचाएगी और किताब आपको जीने की कला सिखाएगी। उन्होंने कहा कि ‘बच्चों का देश’ पत्रिका में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिए महत्वपूर्ण सामग्री होती है।


अणुविभा के अध्यक्ष अविनाश नाहर ने कहा कि अणुव्रत आंदोलन के तहत अणुविभा की ओर से चौवन प्रकल्प संचालित हैं। उन्होंने साहित्यकारों से साहित्य सृजन के साथ ही अणुविभा के किसी प्रकल्प से जुड़कर अणुव्रत आंदोलन के प्रसार में सहभागी बनने का भी आह्वान किया। तेरापंथ विकास परिषद् के सदस्य पदम् चंद पटावरी ने अणुविभा के संस्थापक व बच्चों का देश के जनक मोहनभाई को याद किया। पच्च्ीस वर्षों पूर्व जिस बीज को बोया गया था वह आज वृक्ष बन गया है। इस पत्रिका के आगे बढ़ने की प्रचुर सम्भावना है। अणुविभा के प्रबंध न्यासी तेजकरण सुराणा ने अपने तीन दिन के अनुभव भी साझा किये। कार्यक्रम का संयोजन बच्चों का देश के संपादक संचय जैन ने किया और आभार ज्ञापन सह संपादक प्रकाश तातेड़ एवं अणुव्रत समिति राजसमंद के अध्यक्ष अचल धर्मावत ने किया। इस अवसर पर साहित्यकार आर॰ पी॰ सारस्वत सहित संभागियों के दल ने अणुव्रत गीत प्रस्तुत किया।

संपादक संचय जैन ने बताया कि बच्चों का देश रजत जंयती आयोजन का मकसद यही था कि इस बहाने बाल साहित्य विमर्श बढ़ाया जाए। एक मंच पर पत्रिका से जुड़े और आमंत्रित साहित्यकार साहित्य के प्रति समन्वय स्थापित करें और अपने अनुभव को साझा करें।

कार्यक्रम में अणुव्रत लेखक पुरस्कार से सम्मानित फारुख अफरीदी, बच्चों का देश के प्रबंध संपादक पंचशील जैन, भिक्षु बोधि स्थल के अध्यक्ष हर्ष नवलखा, कांकरोली सभ के अध्यक्ष लाभ जी बोहरा, आर के मार्बल के आर बी मेहता, अणुविभा के उपाध्यक्ष डॉ विमल कावड़िया. सहमंत्री जगजीवन चोरडिया, डॉ सीमा कावड़िया सहित बड़ी संख्या में राजसमंद के गणमान्यजन उपस्थित रहे। इस अवसर पर ‘बच्चों का देश’ पत्रिका के संपादक संचय जैन और सह संपादक प्रकाश तातेड़ ने अणुविभा अध्यक्ष अविनाश नाहर को पत्रिका के रजत जयन्ती विशेषांक की प्रति भेंट की। समारोह में अणुविभा अध्यक्ष अविनाश नाहर ने मुख्यालय से जुड़े कार्यकर्ताओं को स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया। समापन अवसर पर भी प्रतिनिधित्व के तौर पर दिल्ली के दिविक रमेश, भोपाल के परशुराम शुक्ल और लखनऊ के सुरेंद्र विक्रम ने तीन दिवसीय आयोजन को बेहतरीन बताया। सभी ने माना कि जिस सकारात्मक माहौल में यह आयोजन हुआ है। गंभीर और जनोपयोगी चर्चाएं हुई हैं। सार रूप में बीकानेर की संगीता सेठी, भोपाल की लता अग्रवाल, गाजियाबाद के रजनीकांत शुक्ल, उदयपुर की आशा पांडेय और उत्तराखण्ड के मनोहर चमोली ‘मनु’ ने अपने अनुभव साझा किए। समापन सत्र के प्रारम्भ में गायत्री पब्लिक स्कूल धोइंदा के बच्चों ने ‘मैं हूँ बच्चों का देश’ लघु नाटिका का मंचन किया। सब रंगों का समावेश, भारत देश हमारा देश को चरितार्थ करता यह बाल साहित्य समागम हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई। सब धर्म समभाव की झलक भी दिखा गया। कुछ साहित्यकार 15 अगस्त की अल्ल-सुबह आ गए तो आयोजन स्थल पर ही भारतीय ध्वज फहराया भी फहराया गया।

तीन दिवसीय बाल साहित्य समागम समाप्त हो चुका है। आमंत्रित साहित्यकार अपने-अपने घर पहुँच चुके हैं। आयोजक, सोसायटी, प्रबन्धन, साहित्यकार और उनके परिजनों को जोड़ लें तो लगभग 150 की संख्या रही है जिनके आवास, भोजन और आवागमन की व्यवस्था की गई थी। अव्वल तो बच्चों का देश से जुड़े उन लेखकों को आमत्रिंत किया गया था जो लम्बे समय से जुड़े हुए हैं। लेकिन पति या पत्नी या बच्चे तक भी साथ में लाए हुए थे। ऐसे में आवासीय व्यवस्था में व्यवधान अवश्य हुआ होगा। आयोजन 16 से 18 अगस्त का था। कई आरक्षण की दिक्कतों के चलते 14 या 15 को आ गए। उनकी व्यवस्था भी करनी ठैरी। उदयपुर तो कुछ मावली रेलवे स्टेशन पहुँचे। उन्हें लाया-ले जाया गया। यह आयोजकों को करना पड़ा। जबकि पाठकों को जागरुक करने वाले यहाँ विदेशी टाइप के लगे। जैसे आयोजकों पर वहां जाकर एहसान कर दिया हो। नाश्ता, दोपहर एवं रात्रि भोजन में थाली में छूटा भोज्य पदार्थ बता रहा था कि कईयों की नीयत से नैथ बड़ी है। सब पहले से तय था। साहित्यकारों को कब, कहां और कितना बोलना हैं तब भी विषयकेन्द्रित होना अभी भी सीखना है। 31 विद्यालयों में जाकर साहित्यकारों ने समय का पालन कितना किया? विद्यार्थियों के इंटरवल का कितना ध्यान रखा? उनके सुनने की सीमा का ख़याल रखा। अपनी कथा-व्यथा ज़्यादा सुनाई या कम? समझा जा सकता है। आत्मकथ्य की कै से भरे साहित्यकार भी जुटे होंगे? जवाब नहीं मे ंतो कम से कम नहीं है। अलबत्ता आत्मश्लाघा से भरी जमात में साहित्यकार भी होते हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा।

(अभी है . . . )

प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क: 7579111144
मेल: chamoli123456789@gmail.com

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By manohar

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