कुछ ढील कहूँ या खुद में शऊर की कमी

राजकीय शिक्षक हुए उन्नीस साल हुए जाते हैं। राजकीय इसलिए जोड़ा कि खुद राजकीय विद्यालयों में पढ़ा। मुझे अच्छे शिक्षक नहीं मिले। लेकिन वे इतने बुरे नहीं थे। मैं दूसरों को बुरा कैसे कहूँ? अपनी तो कह सकता हूँ। मैं हमेशा उन विद्यालयों में रहा हूँ जहां दस से सोलह-सत्रह साल के विद्यार्थी पढ़ने आते हैं। माना कि मेरी ज़िम्मेदारी हिन्दी पढ़ाने मात्र की है। संस्कृत पढ़ाना एक तरह से थोपना ठैरा। प्रातःकालीन सभा से लेकर छुट्टी का घण्टा बजने तक मैं हिन्दी-हिन्दी नहीं चिल्लाता फिरता। तब?

मेरी और भी ज़िम्मेदारी है? यदि मैं उन सब विद्यार्थियों का औसत निकालूं जो हमारे विद्यालय से पढ़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं तो आज वे पच्चीस से पैंतीस साल के युवा हैं। वे सभी सड़क पर हैं! नहीं ऐसा नहीं है। लेकिन वे सभी रोजगार पा चुके हैं? ऐसा दावा नहीं कर सकता। जैसे-तैसे गुजारा करने लायक खा-कमाने वालों का औसत निकालता हूँ तो अस्सी फीसदी विद्यार्थी इस स्तर पर ही होंगे।

इन दो दशक की शिक्षण यात्रा पौड़ी गढ़वाल के कल्जीखाल-पौड़ी विकास खण्ड में ही सम्पन्न हुई समझ लें। तो, हासिल क्या ! मुझे तो बदस्तूर वेतन मिलता रहा। राजकीय शिक्षक होने के बाद शादी हुई। दो बच्चे हो गए। फिलहाल किराए पर रहता हूँ लेकिन पैतृक मकान हिस्से में है। एक अलग मकान बनाने के लिए देहरादून में जमीन भी खरीद ली। सब कुछ ठीक है। कह सकता हूँ। लेकिन मन नहीं मान रहा है। मन कह रहा है कि कहीं न कहीं विद्यार्थियों में जो वैज्ञानिक चेतना मैं जगा सकता था। जो संवैधानिक मूल्यों की बात मैं कर सकता था। जो संवेदनशीलता और इंसानियत मैं अपने विद्यार्थियों में पक्के से गुरुतर तौर पर दे सकता था, नहीं दे सका। कहाँ कमी रह गई? क्यों ऐसा हुआ? विद्यालय आते-जाते। बाज़ार में। आस-पास। समाज में मुझे पच्चीस से पैंतीस साल के जो भी युवा-युवती दिखाई देते हैं उनमें अस्सी फीसदी ज़िम्मेदार नागरिक से इतर दिखाई देते हैं।

बेपरवाह नहीं लापरवाह। कुपढ़े। अव्यवस्थित। अव्यावहारिक। असामाजिक। बेहद अवसरवादी। बात-बात पर हुड़दंग करते। बेबात पर लड़ने को आमादा। तोड़-फोड़ में माहिर। तकनीकी तौर पर चोरी-चकारी करने में आगे। उधारी में विशेषज्ञता हासिल किए हुए। प्रकृति, सार्वजनिक सम्पत्ति, पड़ोस और रिश्तों में उन्हें कोई सौन्दर्य नहीं दिखाई देता। सौन्दर्यबोध में नौसिखिए-से। नए-नए नशों के शौकीन। परिजनों, दोस्तों और अपरिचितों के साथ त्रिहरा चरित्र जीने में सिद्धहस्त।


काश ! मैं अपने विद्यार्थियों को भारतीयता का पाठ पढ़ा पाता। तार्किक होना बताता। मैं पाठ्य पुस्तकों, उत्तरपुस्तिकाओं, श्याम-श्वेत पट्टों, परीक्षा प्रदर्शन, चॉक-डस्टर के फेर में ही पड़ा रहा। इसे ही शिक्षा मानता रहा। मेरे शिक्षण के दौरान बोए गए बीज आज फल दे रहे हैं। ऐसे फल जो मीठे नहीं हैं। ऐसे फूल जिनमें विविधता नहीं है। खुशबू नहीं है। छद्म सीना चौड़ा कर नफरती हवा के साथ वह फैल रहे हैं। फल-फूल रहे हैं। अनजान युवाओं को देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि वह जानबूझकर ऐसे कृत्यों में शामिल होकर मुझे चिढ़ाना चाहते हों और यह जाहिर करना चाहते है कि देखो तुम्हारी दी गई शिक्षा का असर ही है कि हम बहक गए हैं और हम औरों को भी बहकाएंगे। हम वह सब करेंगे जो हमें नहीं करना था। हम वह तो क़तई नहीं करेंगे जो तुम्हारी शिक्षा की किताबें कहती हैं।


कहते हैं कि बच्चे अनुकरण से सीखते हैं। मैं नहीं मानता। मैं, मेरा कार्यव्यवहार और शिक्षकीय चरित्र अच्छा नहीं हो सकता। लेकिन मैंने, मेरे कार्य व्यहार से और मेरे विद्यालयी चरित्र ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया जिससे विद्यार्थियों को नफरत हुई हो। तो फिर उन्होंने मुझसे क्या लिया? क्या सीखा? मेरे जैसे नहीं बने तो मेरे उलट कैसे बन गए? वहीं दूसरी तरफ मैं मानता हूँ कि किसी भी बच्चे को अपने जैसा बनाना या भगत, सुखदेव, राजगुरु या गांधी नहीं बनाया जा सकता। वह अपने आप खुद का कुछ बनें। फिर वे अपना खुद का कुछ बन पाए हों। ऐसा मुझे क्यों नहीं लग रहा? याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी कोई साजिश रची हो! अक्सर कहता हूँ कि पुराने कपड़े पहनो और किताबें नई खरीदो। च्विंगम में एक रुपया मत खरचो, वक़्त-ज़रूरत के लिए बचत करो। काम आएंगे। लेकिन विद्याािर्थयों ने दिमाग खर्च करना भी नहीं चाहा। हाँ। घर के रुपए तक खर्च करना उन्हें ज़रूर आया। यकीनन, नहीं। कभी नहीं। फिर?

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By manohar

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