दून क्षेत्र को स्कंद पुराण के अनुसार केदार खंड भी कहा गया है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आखिर में यह अशोक के राज्य का हिस्सा भी रहा है।

समुद्रतल से देहरादून की औसतन ऊँचाई लगभग छह सौ चालीस मीटर है। लीची और आम के साथ धान की खेती के लिए मशहूर दून घाटी का इतिहास भी विचित्र है। आजादी के रणबांकुरों का इतिहास, टिहरी के राजा का शासनकाल, अंग्रेजी दासता का इतिहास अपनी जगह तो है ही है। इन सबसे इतर गोरखा शासन के बारे में अधिकाधिक जानकारी कम ही मिलती है। यदि मिलती है तो यही कि गोरखों के अत्याचार से तंग आकर गढ़वाल के राजा ने अंग्रेजी सरकार से मदद मांगी थी। आदि-आदि।


दून क्षेत्र को स्कंद पुराण के अनुसार केदार खंड भी कहा गया है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आखिर में यह अशोक के राज्य का हिस्सा भी रहा है। बहरहाल, आज देहरादून के इतिहास से एक बानगी गोरखों के अदम्य साहस की है। ऐसा अदम्य साहस कि अंग्रेजों ने कालान्तर में स्वयं एक यादगार स्मारक बनवाया।


बलभद्र खलंगा जिन्हें कैप्टेन पाछी जनरल बलभद्र कुँवर के नाम से जाना है। वह किसी वीर जवान थापा के नाती बताये जाते हैं। बलभद्र नेपाली साम्राज्य के हीरो हैं। नेपाल में वह राष्ट्रीय नायकों में गिने जाते हैं। देहरादून में नालापानी किला था। तब वह नालागढ़ के नाम से जाना जाता है। मुख्य रूप से उन्हें देहरादून के किलों की रक्षा के लिए तैनात किया गया था। वह उस दौर में नेपाली शासन में कमांडर थे। सन् 1814 से लेकर 1816 के समय में वह बेहद लोकप्रिय हुए। बलभद्र के नेतृत्व में नेपाल-ब्रिटिश युद्ध के दौरान नालापानी में युद्ध का उल्लेख किया जाता है।


बताया जाता है कि बलभद्र के पास 600 गोरखाली समाज की एक टुकड़ी थी। इस टुकड़ी में लगभग 100 महिलाएं थीं। कुछ बच्चे भी थे। उस दौर में उनके पास खुखरी, तीर-तलवार, गुलेल, गदा, भरवा बंदूक होती थीं। नालापानी किला पर कब्जा करने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सेना के गिलेस्पी को मिली। नालापानी किले की घेराबंदी के दौरान नेपाली सेना ने तीन हजार ब्रिटिश सेना के दांत खटटे कर दिए। इस युद्ध में जनरल गिलेस्पी सहित सैकड़ों अंग्रेजी सैनिक मारे गए। यह संख्या लगभग आठ सौ बताई जाती है। हताश होकर अंग्रेज सेना को पीछे हटना पड़ा।


बौखलाई अंग्रेज़ी हुकूमत ने कुछ दिनों बाद फिर हमला किया। इस बार जनरल माबिका ने नालापानी किले की ओर जाने वाले जल स्रोत पर कब्जा कर लिया। जब रसद और पानी से गोरखाली टुकड़ी को पूरी तरह से काट दिया गया तो मुश्किलें होनी ही थीं। यह युद्ध बताया जाता है कि पैंतीस दिन चला। बिना भोजन पानी के नेपाली सेना ने नालापानी किला छोड़ दिया और टीले पर जाकर शरण ली। टीला इतनी ऊँचाई पर है कि बताते हैं कि वहीं से महिलाओं ने अंग्रेजी टुकड़ियों पर पत्थरों की बरसात की। नेपाली टुकड़ी में साठ-सत्तर गोरखे जीवित बचे। वह इस टीले में ही रहे, बताए जाते हैं। यह टीला लगभग 900 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस टीले से डोईवाला, सहस्त्रधारा, नालापानी क्षेत्र साल के जंगलों के नीचे दिखाई देता है। बताते हैं कि कालांतर में संधि हुई और रिस्पना के दूसरी छोर तक अंग्रेजी शासन का राज्य रहा और दूसरी ओर गोरखाली शासन रहा।


कालान्तर में देहरादून के सहस्त्रधारा मार्ग पर स्मारक बनवाया गया। यह अंग्रेज़ों के द्वारा संयुक्त रूप से अपने और अपने प्रतिद्वंदी का एक अकेला स्मारक होगा। गोरखा सेनापति बलभद्र थापा और अंग्रेज़ जनरल गिलेस्पी का यह स्मारक पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। कलिंगा या खलंगा की याद में गोरखा समाज ने अपने पुरखों की याद में बलभद्र खलंगा विकास समिति का गठन किया है। वह टीले में एक और युद्ध स्मारक बना चुकी है। बलभद्र के बारे में समिति मानती है कि नालापानी कभी नालागढ़ किला था। तीन-चार हजार अंग्रेज सैनिक, सैकड़ों घुड़सवार बन्दूक, गोला-बारूद तोप आदि लेकर भी मुट्ठी भर गोरखा सैनिको के सामने टिक नहीं पाए।

ननूरखेड़ा, मंगलूवाल, बझेता, अस्थल और किरसाली गाँव के आस-पास साल के घने जंगल के बीच यह टीला आज भी उस किलेबंदी का अहसास तो कराती ही है। खलंगा का मतलब सैनिकों के अस्थाई तम्बू या शिविर से है। जानकार बताते हैं कि गोरखा शासन का अत्याचार मुगल और अंग्रेज़ी हुकूमत से बहुत अधिक रहा है। यही कारण है कि कालान्तर में टिहरी के राजा ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया। जून के महीने में देहरादून के भीतर रहते हुए यदि आपको तीन-चार सौ मीटर का फासला मिल जाए तो घाटी-पहाड़ी का अनुभव भी हो जाएगा। हालांकि बहुतायत में साल का भरा-पूरा जंगल है। इस वक़्त साल बौराया हुआ है। भौरों, कीटों और वन्य पक्षियों का कलरव और ठंडी बयार आनंदित कर देती है।

पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक सहस्त्रधारा मार्ग पर ही है। यदि आप देहरादून र्के आइ.एस.बी.टी. से यहां आना चाहते हैं तो आपको मात्र तेरह किलोमीटर की दूरी तय करनी होगी। लगभग पैंतीस-चालीस मिनट में आप यहां पहुंच जाएंगे। यदि आप समिति द्वारा निर्मित युद्ध स्मारक देखना चाहते हैं तो आपको तपोवन-एस.सी.ई.आर.टी., राजीव गांधी नवोदय विद्यालय मार्ग से दांयी ओर लगभग साढ़े चार किलोमीटर की दूरी तय करनी होगी। आपको साल और कुछ सागवान का घना जंगल मिलेगा।


यदि आप देहरादून के केन्द्र पलटन बाजार स्थित घण्टाघर से खलंगा जाना चाहते हैं तो यह मात्र छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सर्वे चौक से नालापानी मार्ग होते हुए आप शिक्षा निदेशालय मार्ग से भी पन्द्रह से बीस मिनट में आप दुपहिया वाहन से यहां पहुंच सकते हैं। साइकिल से भी जा सकते हैं। चौपहिया वाहन से भी जा सकते हैं। यदि आप देहरादून के रेलवे स्टेशन से यहां आना चाहते हैं तो आपको मात्र दस-बारह किलोमीटर की दूरी तय करनी होगी। यदि एयरपोर्ट से वाया थानों होते हुए आएंगे तो चालीस मिनट लगेंगे। यहां से यह अट्ठाईस-तीस किलोमीटर की दूरी तय करनी होगी।


प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
विशेष
: बाएं से अपन, राजेन्द्र सिंह रौथाण, मोहन चौहान एवं पुरातत्व अधिकारी दिनेश शर्मा

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By manohar

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