बाल साहित्य और स्कूल में शिक्षण

बाल साहित्य से शिक्षण कार्य हो सकता है। यह भाषा का शिक्षक तो जानता भी है और अक्सर वह अपने वादन में पाठ्य पुस्तक से इतर के बाल साहित्य की चर्चा करता भी है। कक्षा सात और आठ के बच्चों को कुछ बाल कविताएँ पढ़ने को दीं। वह भी तब जब वह फुरसत में नज़र आए। यह ध्यान रखा कि एक बार में केवल एक ही कविता पढ़ने को दी जाए। बच्चों ने मन लगाकर उन कविताओं को पढ़ा ही नहीं गुनगुनाया भी। कुछ कविताओं को पढ़कर वे मुस्कराए भी। बच्चों ने कुछ कविताओं को पढ़कर दिलचस्प बातें साथ साझा की। यहां बच्चों के नज़रिए को ही प्रस्तुत किया जा रहा है। कविता की प्रासंगिकता और भाव अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। पाठक इन कविताओं पर बच्चों द्वारा की गई टिप्पणियों पर विचार करेंगे। इस आलेख का आशय यहां दी गई कविताओं की समीक्षा नहीं है।


हुआ सवेरा जागो भैया
खड़ी पुकारे प्यारी मैया
हुआ उजाला छिप गए तारे
उठो मेरे नयनों के तारे
झटपट उठकर मुँह धुलवा लो
आँखों में काजल डलवा लो
। (आंशिक)


बच्चों ने पूरी कविता एक दूसरे से बार-बार लेकर पढ़ ली। फिर मेरी ओर देखने लगे। मैंने कहा-‘‘अब इस कविता के बारे में बात करते हैं। जिसके मन में जो आ रहा है,बोल सकता है।’’
कहने की देर थी कि एक बालिका ने कहा-‘‘भैया लोग ही देर में उठते हैं। हम लड़किया तो जल्दी उठ जाती हैं। सही बात है। लेकिन पापा खुद भी देर से उठते हैं और भैया को कुछ नहीं कहते। हमें दिन छिपने से पहले घर में आ जाना होता है लेकिन भैया लोग अंधेरा होने के बाद भी यहां-वहां खेलते रहते हैं।’’


मैं हैरान! सोच रहा था कि बच्चे कविता की व्याख्या करेंगे। ये बताएंगे कि इसमें यह कहा गया है वो कहा गया है। एक बालक ने धीरे से कहा-‘‘घर में मां को ही ज्यादा काम करना पड़ता है। पिताजी जिस दिन घर में भी रहते उस दिन भी कुछ नहीं करते। कभी कहीं चले जाते हैं तो कभी कहीं। कभी उनसे मिलने कोई आ जाता है तो कभी वे कहीं बैठने चले जाते हैं। खाना खाने के लिए हमें बार-बार उन्हें खोजना पड़ता है।’’


मैं बमुश्किल अपनी हंसी रोक पाया। कहा-‘‘और कोई! कुछ नहीं कहेगा?’’
एक बालिका उठकर कहने लगी-‘‘हम तो अपने आप ही अपना मुँह धो लेते हैं। मेरी मां तो कहती है कि काजल नहीं लगाना चाहिए। आंखों में दवाई भी सोच-समझ कर लगानी चाहिए।’’
एक लड़का तपाक से बोला-‘‘लड़कियों को काजल लगाना चाहिए।’’
एक बालिका ने कविता को घूरा और फिर पूछा-‘‘नयन का तारा मतलब?’’
मैं चुप रहा और मैंने सभी बच्चों को देखा। एक बालक बोला-‘‘यानि घर के बच्चे उठ जाओ।’’
मैंने पूछा-‘‘घर बच्चे मतलब सभी न?’’
एक बालिका ने कहा-‘‘नहीं। मतलब ये लड़कों के लिए कहा गया है।’’
‘‘क्यों? नयन के तारे लड़के ही होते हैं। लड़कियां नहीं?’’ मैंने पूछा।
कक्षा की बालिकाओं ने सिर झुका लिया और लड़के तनकर खड़े हो गए। मैंने बात बदल दी। अच्छा अब इस कविता को पढ़कर कुछ सवाल बनाओ।


बच्चे सोच में पड़ गए और कॉपियों पर कुछ लिखने लगे। दूसरे दिन मैंने उनके सवालों को देखा। कुछ सवाल मुझे महत्वपूर्ण थे। जो ये थे-
ऽ हम सोते ही क्यों हैं?
ऽ मां ही बच्चों का ध्यान क्यों रखती है पिता क्यों नहीं?
ऽ बच्चों को ही जल्दी उठने की सलाह क्यों दी जाती है?
दो दिन के उपरांत बच्चों को मैंने दूसरी कविता पढ़ने को दी।


यदि होता किन्नर नरेष मैं,राजमहल में रहता
सोने का सिंहासन होता,सिर पर मुकुट चमकता
बंदी जन गुण गाते रहते,दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती,संध्या और सवेरे
मेरे वन में सिंह घूमते, मोर नाचते आंगन
मेरे बागों में कोयलिया बरसाती मधु रस-कण।
(आंशिक)

बच्चों ने उसे बड़े उल्लास और आनंद के साथ पढ़ा। उनकी आंखों में अजीब सी चमक दिखाई दी। लगा कि यह कविता बच्चों को बेहद पसंद आई है। कहा-‘‘इस कविता के बारे में सोचो। खूब सोचो। सोचकर बताओ। अब मैं यह नहीं कहूंगा कि क्या बताना है।’’
बहुत देर कक्षा में सन्नाटा छाया रहा। बच्चों ने बारी-बारी से फिर कविता को देखा। एक बालक बोला-‘‘सोना तो बहुत मंहगा है।’’
दूसरा बोला-‘‘चुप! ये पुराने जमाने की कविता है। तब सोने के मकान होते थे। राजा अब कहां हैं?’’
एक बालिका ने कहा-‘‘अब तो बाघ हमारे घरों में घुस रहे हैं। हमारे जानवरों को खा रहे हैं।’’
एक बालक ने मुझसे कहा-‘‘आपने तो कहा था कि कोयल नहीं गाती। नर कोयल गाता है।’’
मैंने हां में सिर हिलाया। फिर कहा कि अब इस कविता से कुछ सवाल बनाओ। मध्यांतर के बाद मैंने बच्चों के बनाये सवाल देखे। कुछ सवाल ये थे।
ऽ राजा ही सिर पर मुकुट क्यों पहनते थे?
ऽ बंदी से चक्की पिसाना क्या सही है?
ऽ राजा-रानी यदि न्याय करते थे तो वे आज भी जिंदा क्यों नहीं रहे?


बाबा आज देल छे आए,
चिज्जी-पिज्जी कुछ ना लाए।
बाबा, क्यों नहीं चिज्जी लाए,
इतनी देली छे क्यों आए?
काँ है मेला बला खिलौना,
कलांकद लड्डू का दोना।


यह कविता बच्चों ने बार-बार पढ़ी। कक्षा सात के बच्चों को यह कविता अधिक पसंद आई। मैंने फिर वही चर्चा की। पूछा-‘‘चलिए। अब इस कविता पर बातचीत करते हैं।’’ एक बालिका ने कहा-‘‘ये कौन से वाले बाबा हैं?’’ एक बालक ने कहा-‘‘मतलब?’’ वही बालिका बोली-‘‘’मतलब ये कि साधू बाबा या भोले बाबा।’ कक्षा के और बच्चे हंसने लगे। एक बालिका मेरी ओर देखते हुए बोली-‘‘अरे बाबा। ये बाबा यानि पापा हैं। कोई छोटा बच्चा अपने पापा से पूछ रहा है।’’ मैंने कहा-‘‘ये कोई बालिका भी तो हो सकती है।’’ सबने सिर हिलाया।


मैंने फिर कहा-‘‘अब बारी है इस कविता से सवाल बनाने की। चलो हो जाओ षुरू।’’ यह कह कर मैंने उन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया। कक्षा सात के बच्चों ने सामान्य से प्रष्न बनाये। लेकिन कक्षा आठ के बच्चों के कुछ प्रष्न चौंकाने वाले थे।

ऽ घर के बड़े देर से ही क्यों आते हैं?
ऽ खिलौनों से अधिक बच्चों को पढ़ाई के लिए ही क्यों कहा जाता है?
ऽ हम बच्चों के खेलने का सही समय क्या है?
ऽ बच्चों को जबरदस्ती दूध पीने के लिए क्यों कहा जाता है?

उठो लाल अब आंखें खोलो,
पानी लाई हूं मुंह धो लो।
बीती रात कमल-दल फूले
उनके ऊपर भौंरे झूले।
चिडि़या चहक उठीं पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुंदर।


यह कविता बच्चों ने लय के साथ पढ़ी। बार-बार पढ़ी। कविता पढ़ने के बाद बच्चों की बातचीत बड़ी दिलचस्प थीं। एक बालक ने कहा-‘‘ये बच्चों को ही बार-बार जगाया क्यों जाता है। जिसे देखों वह यही कहता है कि उठो। जागो। देर तलक मत सोओ।’’ एक बालिका ने कहा-‘‘वैसे फूल तोड़ना अच्छी बात नहीं है। अब तो चिडि़या दाना खाने भी नहीं आतीं।’’ दूसरे बालक ने कहा-‘‘हमारे घरों में रंग-बिरंगे फूल तो हैं लेकिन तितलियां फिर भी नहीं आतीं। पता है मेढक तो कब से नहीं देखे मैंने।’’ मैंने उनकी बातचीत में कोई बाधा नहीं डाली और कक्षा से दूसरी कक्षा में चला गया। कक्षा आठ के बच्चों ने कविता तो पढ़ी लेकिन कोई विशेष बातचीत नहीं की। कविता से सवाल कुछ हट कर आए। कुछ सवाल दिये जा रहे हैं।

ऽ कविता में लड़की ज्यादा क्यों नहीं होतीं? लड़के ही क्यों?
ऽ घर में बच्चों की देख-रेख मर्द क्यों नहीं कर सकते?
ऽ वृक्षारोपण में अच्छे पौधों को उखाड़कर नई जगह क्यों लगाया जाता है जबकि वे सूख जाते हैंं?
ऽ भौंरा तितली की तरह सुन्दर क्यों नहीं होता?

विनती सुन लो हे भगवान,
हम सब बालक हैं नादान
विद्या बुद्धि नहीं कुछ पास,
हमें बना लो अपना दास।
बुरे काम से हमें बचाना
खूब पढ़ाना खूब लिखाना
हमें सहारा देते रहना,
खबर हमारी लेते रहना
तुमको शीश नवाते हैं हम
विद्या पढ़ने जाते हैं हम।


यह कविता जब मैंने बच्चों को पढ़ने को दी तो मुझे लगा कि बच्चे इसे पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेंगे। लेकिन बच्चों ने इसे बार-बार पढ़ा। लय और सुर के साथ भी पढ़ा। कुल मिलाकर इस कविता में संगीतात्मकता का पुट ज्यादा था। यह बच्चों को कंठस्थ याद भी हो गई। अगले दिन मैंने कहा-‘‘विनती सुन लो हे भगवान वाली कविता पर बात करते हैं।’’
एक बालिका ने कहा-‘‘सब कुछ अच्छा है लेकिन दास बनाने वाली बात ठीक नहीं लगी मुझे।’’
थोड़ी देर कक्षा में षांति छा गई। दूसरी बालिका बोली-‘‘लेकिन यह जरूरी नहीं कि बड़े नादान न हों। और नादानी सिर्फ बच्चे ही नहीं करते।’’
एक बालक जो अक्सर चुप रहता है। वह बोला-‘‘पढ़ना-लिखना मन से होता है। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए।’’
मैंने कहा-‘‘चलिए। एक बार फिर से इस कविता को पढि़ए और कुछ हट कर सवाल बनाइए।’’


दो दिन बाद मैंने उन सवालों पर गौर किया। कुछ सवाल ये थे-
ऽ बच्चों की विनती कोई क्यों नहीं सुनता?
ऽ भगवान हमें अपना दास क्यों बनाना चाहेंगे?
ऽ यदि विद्या भगवान देता है तो स्कूल ही क्यों खोले गए हैं?

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सन्दर्भ-
ऽ हुआ सवेरा जागो भैया-श्रीधर पाठक
ऽ यदि होता किन्नर नरेष मैं-द्वारिका प्रसाद माहेष्वरी
ऽ देल छे आए- श्रीधर पाठक
ऽ उठो लाल अब आंखें खोलो-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
ऽ विनती सुन लो हे भगवान-मन्नन द्विवेदी ‘गजपुरी’
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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