‘‘मैं बार-बार टूटा। कई बार गिरा। बहुत बार असहाय हो गया। हर बार कला ने जोड़ा। उठाया। सहारा दिया। मूझे चूर-चूर होने से बचाया। आज जीवन में थोड़ा-सा स्थाईपन है। बित्ती भर सुकून है। यह कला और उससे मिले नजरिये की ही देन है। बहुत से दोस्त हैं, जो मेरे आस-पास मजबूती के साथ खड़े रहे। पेन्टिंग ही है जिसने मुझे पस्त नहीं होने दिया।’’


यह उद्गार कलाकार और सामाजिक सरोकारी रोशन मौर्य के हैं। जब वह ऐसा कहते हैं तो अच्छा लगता है। सुनते हुए ऐसा लगता है कि सब कुछ कितना आसान, सरल और सुन्दर है। धीरे-धीरे वह अतीत में झांकते हैं। परत-दर-परत उघाड़ते चलते जाते हैं। सांस रोककर मन करता है कि बस सुनते जाओ। महसूस करते जाओ। आशा, उम्मीद, उत्साह और हौसला कैसे सहेजा जाता है? समझते चले जाओ। जैसे-जैसे बात आगे बढ़ती है तो पाते हैं कि उनके जीवन का आधा हिस्सा स्याह भी है। दुनिया जितनी अच्छी लगती है, उतनी है भी नहीं। यह भी कि दुनिया को कोसना भी अच्छा नहीं है। जीवन को खू़ब-रुई बनाने वाले चुनिंदा दोस्त भी हैं। इन्हीं संगी-साथियों की वजह से जीवन जटिल नहीं रह जाता। जीवन में यह जो अच्छा लगने का भाव है इसका कोई मोल नहीं है। भूख लगना भी अच्छी बात है। लेकिन भूख महसूस होने के बाद जब रोटी का टुकड़ा मिलने की दूर-दूर तक संभावना न हो, तब भाव बदल जाते हैं। वह भूखे पेट घण्टों काम करने तक की बात नहीं बताते हैं। वह भूख के साथ रात भर जागते हुए आशावादी और इंकलाबी रंग-बिरंगे रंगों से नारे लिखने का भाव भी रेखांकित करते हैं।


आज किशोर वय अपना रोल मॉडल नेता-अभिनेता, खिलाड़ी, उद्योगपति, पूंजीपतियों में खोज सकते हैं। लेकिन अस्सी के दशक का किशोर किसे रोल मॉडल समझता होगा? बयालीस साल पहले उन किशोरों की आँखों में भविष्य के सपनों की आज कल्पना करना शायद संभव नहीं होगा। आज यदि कोई साधारण परिवार में जन्मा बच्चा यह कह दे कि वह ट्रक ड्राइवर बनेगा। दर्जी बनेगा। माली बनेगा। पेन्टर बनेगा। बच्ची यह कह दे कि फूल बेचने वाली बनेगी। मालिन बनेगी। अरे हाँ! याद आया। अस्सी के दशक में तो संभवतः सपने देखने का हक भी लड़कों को ही होता था। तब लड़कियों से शायद ही कोई पूछता होगा कि वह क्या बनना चाहती है? उस दौर की लड़कियों को बस घर संभालने की ही अमूमन नसीहतें दी जाती होंगी।


बहरहाल, रोशन मौर्य अस्सी के दशक में किशोरावस्था से गुजर रहे थे। दसवीं पास कर चुके थे। यह वह दौर था जब आम गाँव-मुहल्लों में दूर-दूर तक ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी तक न था। रेडियो भी पड़ोस में संभवतः न होता था। अखबार भी बड़े व्यवसायियों-दुकानदारों के पास मिलता था। टेलीफोन की घंटी सुन लेना ही बहुत बड़ी बात हो जाया करती थी। साइकिल की ट्रिन-ट्रिन सुनना कर्णप्रिय लगता था। पारले जी का बिस्किट यदि खाने को कभी मिल गया तो समझो दीवाली-ईद हो गई।
क्या आप ऐसे व्यक्तियों से मिले हैं, जिन्होंने कई काम शुरू किए होंगे? छोड़े होंगे। फिर शुरू किए, फिर छोड़े होंगे! उन्हें जीवन में बहुत से ऐसे लोग मिले हैं, जिन्होंने उन्हें सब्जबाग़ दिखाए। उनके लिए सफलता और कॅरियर की योजनाएं बनाई। कड़ी मेहनत से अर्जित किए उनके रुपए लगवाए। नुकसान करवाया। रोशन बार-बार छले गए। छलने वाले परिचितों-दोस्तों की तरह आए और रोशन मौर्य की उम्मीदों पर पानी फेरते गए। रोशन बार-बार अंधेरे से जूझ रहे थे। अलबत्ता उन्होंने कभी भी उम्मीद और आस का दामन नहीं छोड़ा।


जनवरी दो हजार तेईस का पहला शनिवार। मोहन चौहान जी ने रोशन मौर्य से बात की। मुलाकात की बात कही तो वे बोले,‘‘आ जाओ। घर पर ही हूँ। लेकिन आज अकेला हूँ।’’ बस फिर क्या था! हमें बातचीत के लिए अकेलापन ही तो चाहिए था। देहरादून से सेलाकुई-हरबर्टपुर के निकट फतेहपुर ग्रन्ट की ओर हम चल पड़े। लगभग पचास किलोमीटर की यात्रा करते हुए हम रोशन मौर्य जी के घर पर पहुँचे। हमें अस्त-व्यस्त यातायात व्यवस्था का सामना करना पड़ा। दो घण्टे की यात्रा के बाद धूप की जरूरत महसूस हुई। हम उनकी मधुमक्खियों की पेटियों के आस-पास बैठ गए। रोशन के हाथ से बना दाल-भात और पलाव ने हमारी भूख और थकान दूर कर दी। लहसून और अदरक का आचार था। बातचीत में जीवन के जो अनुभव आने थे, उसका आभास हमें ज़ायके में मिल गया था। पीने के लिए उन्होंने हमें गरम पानी दिया। कालान्तर में एक पाव भर खालिस दूध भरी काफी पीने को दी। लौटते समय मेहनत से जमा किया हुआ मौन पालन का शहद भी दिया। और हाँ! दाल चीनी के खूब सारे पत्ते भी।


मुझे नब्बे के दशक के रोशन याद आए। बैनर और बोर्ड बनाने वाला पेण्टर याद आया। रंग और कूचियों के साथ रंगों से आने वाली खुशबू उनके आस-पास महकती थी। सरल, चुपचाप अपने काम में तल्लीन पेण्टर। रात-रात काम करने वाला पेण्टर। नब्बे का दशक बैनर और पोस्टरों का युग था। सुबह कपड़ा दो और अगले दिन बैनर तैयार मिलता था। कई बार तो रोशन आयोजकों के स्थान पर बैनर लेकर पहुँचते थे। वे कहते थे,‘‘जल्दी की भी तो कोई समय सीमा होती है। रंग सूखने में समय लेते हैं। कपड़ा भी कुछ रंग पीता है। कुछ रंग कूची पर रहता है। बैनर-पोस्टर लिखना आलू-प्याज काटना थोड़े हुआ! कूची से बनाए अक्षर, शब्द और वाक्यों में जल्दीबाजी नहीं कर सकता।’’


उनकी यह बात कभी भी समझ में कहाँ आई। खैर…..। रोशन अपने आप में कहानियों का एक ज़खीरा हैं। ऐसा ज़खीरा जो शायद खत्म ही न हो। साठ वसंत देख चुके संघर्षों की कहानियों को जीने वाले रोशन उदार मन के हैं। सामने वाला उन्हें जंच गया तो सब कुछ लुटाने को आमादा हो जाएंगे। सामने वाला कितना ही ऊँचा क्यों न हो। सायास झुक जाएगा। सामने वाला कितना ही कैड़ा क्यों न हो, मक्खन की तासीर उसके स्वभाव में आ ही जाएगी। वह इतने सादगी से भरे हुए हैं कि सामने वाले से क्या नहीं कहना चाहिए। भूल जाते हैं। सामने वाला क्या सोचेगा? क्या धारणा बनाएगा? वह इस बात की परवाह नहीं करते हैं। उनके पास एक से बढ़कर एक कहानियां हैं। मौलिक, स्वाभाविक। कुछ भी बनावटी नहीं। कुछ भी यांत्रिक नहीं। कुछ भी छिपाने जैसा नहीं।


उनके जीवन में कई तरह के चालबाज़ और धोखेबाज़ आए। लेकिन वे उनका नाम नहीं लेना चाहते। वे जिन्होंने उनका रुपया भी बरबाद करवाया और उनका मूल्यवान समय भी नष्ट करवाया। इस बाबत जब पूछो तो वह आँखें बंद कर लेते हैं। शब्द गले में कहीं अटक जाते हैं। बमुश्किल कह पाते हैं,‘‘समय था। सीख रहे थे। मेरे साथ यह सब होना था।’’


साठ साल के रोशन अभी भी सीख रहे हैं। हर काम को चुनौती के तौर पर लेते हैं। मेहनत से जी नहीं चुराते। वह कहते हैं,‘‘हर काम में आशा दिखाई देती है। किसी भी काम को करने के लिए कमर कसने वाले सौ खड़े हो जाते हैं। लेकिन, सीधे खड़े होकर चलते रहने का हौसला तीन-चार ही जुटा पाते हैं।’’ उनके जीवन में झांका तो वे बताते चले गए। यादों के झरोखों में झांकते समय वह संयम नहीं खोते। धीरे से बताते हैं,‘‘विकासनगर के हरबर्टपुर में ही सरकारी प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई की। दसवीं हरबर्टपुर के राजकीय इंटर कॉलेज से की। विकासनगर-हरबर्टपुर आते-जाते एक पेंटर को नंबर प्लेट, बैनर, पोस्टर और होर्डिंग्स बनाते हुए देखता था। यह कला मुझे चमत्कृत करती थी। साइन बोर्ड मुझे हैरान करते थे। जब भी वक्त मिलता। खड़े होकर पेंटर की कला को निहारता था। एक दिन पूछा तो पेंटर ने बताया कि देहरादून जाकर सीखो। बस फिर क्या था। दसवीं पास करके मैं देहरादून चला आया। धारा चौकी के पास प्रिंस आर्ट स्टूडियो में जाकर सीखने लगा।’’


उन दिनों की खट्टी-मीठी, कड़वी-कसैली और भीतर तक हिला देने वाली यादों को याद करते हुए वह परेशान नहीं होते। रोशन कहते हैं,‘‘घर में, रिश्तेदारों में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। कोई ऐसा नहीं था जो रोजगार-करियर और पढ़ाई के प्रति हमें सजग रखता। हम ऐसे इलाके में रहते थे जहां पुश्तैनी काम और हाथ के कामों का बोलबाला था। वह दौर ऐसा ही था। बढ़ई, कारपेन्टर, दर्जी, लुहार, खेती-किसानी के लोग ही आस-पास थे। छोटे-मोटे कामों के छोटे से कारोबारी थे। यही कारण है कि कोई काम किसी खास जाति, धर्म या पारिवारिक खूबियों के भीतर नहीं देखा जाता था। मेरे मन में भी पेंटिंग को लेकर एक बीज अंकुरित बचपन में ही हो गया था। रंगों की खुशबू अच्छी लगती थी।’’


रोशन उस दौर में किशोर हुए जब समय की कीमत दिन, महीने और सालों में नहीं देखी जाती थी। शायद किसी काम को सीखने में लगने वाले समय की बकत भी दूसरे ढंग से देखी जाती थी। सीखाने की आड़ में शोषण होता ही था। दर्जी हो या डलाईबरी या कारपेन्टरी या बढ़ईगीरी। हर किसी के यहां लड़कों की ज़रूरत होती थी। लड़के सालों-साल एक टांग पर खड़े उस्तादी की जी-हजूरी में लगे रहते थे। उस्तादों का निजी काम करना सीखना ही माना जाता था। चार-पांच साल बीत जाते थे तब पता चलता था कि चेला अभी गाड़ी ही धो रहा है। चेला अभी काज-बटन पर ही अटका हुआ है। चेला अभी रंग ही घोल रहा है। रोशन भी यही सब करते रहे। लेकिन, उनकी सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि और सीखने की ललक बनी रही। यह कहा जाए कि बची रही। परिणाम यह रहा कि वह अवैतनिक मजदूर ही नहीं बने रहे। उस दौर के सभी प्रशिक्षुओं की तरह वह भी तीन-चार साल की बेगारी करते-करते छोटा-मोटा अपना काम भी पकड़ने लगे। स्कूटर-गाड़ियों की नेम प्लेट हों या छोटे-मोटे दुकानों के साइन-बोर्ड उनमें वे पारंगत होने की दिशा में आगे बढ़ने लगे।


विकासनगर से देहरादून की यात्रा में बढ़ते चले गए। देहरादून के प्रिंस आर्ट स्टूडियोे के बाद कलर आर्ट में भी काम सीखा। ऊँट के मुँह में जीरा भी ज़्यादा होता है। जब बात कुछ बनी नहीं तब वे पुरोला में किसी ठेकेदार के कहने पर इसी काम को शुरु करने चल पड़े। काम चल पड़ा। लेकिन इन्दिरा गांधी हत्याकांड के बाद कुछ उथल-पुथल हुई। काम में धीमापन आया तो वे लौट आए। फिर किसी परिचित के कहने पर रुद्रप्रयाग चले गए। प्रिंस आर्ट के बैनर तले काम किया। वहाँ चार-पांच महीने काम किया। किशोर रोशन अब तेईस साल के युवा में तब्दील हो गए थे। अभाव हो या समभाव। सपने तो हर आँख में आते हैं। रोशन के सामने भविष्य अनिश्चित था। क्या किया जाए? कहाँ जाया जाए? अभी भी कोई ठौर न था। बात कुछ जंची नहीं तो रोशन फिर देहरादून लौट आए।


युवा रोशन छात्र जीवन को याद करते हैं। बताते हैं,‘‘अनंत पैन्यूली सहित वेदिका वेद और कई जनवादी मित्र बन चुके थे। वह दौर छात्र आंदोलन, किसान आंदोलन, महिला आंदोलन का था। रैली, धरना-प्रदर्शन के लिए हाथ में रंगा-पुता बैनर प्रचलन में था। कई दलों के बैनर-झण्डे बनाए। लेकिन मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के आंदोलनकर्मियों के संपर्क में आने के बाद एक नया नजरिया मिला। वहां मान-सम्मान मिला। हमारे जैसे कम पढ़े-लिखे, मजदूर-किसानों का वहां जमघट लगा रहता था। फिर सीपीआईएम के आस-पास रहने, सीखने-समझने का मौका मिला। आगे बढ़े हुए लोगों ने मेरा डीएवी कॉलेज में एडमिशन करवाया। 1990 तक आते-आते में कमिर्शियल आर्ट में स्नातक और फिर परास्नातक हो गया। कॉलेज के समय में छात्र आंदोलन में खूब जोश था। खूब काम किया। रात-रात काम किया। चुनाव हों या रैली या धरना प्रदर्शन। उस दौर में दीवार लेखन, पोस्टर, बैनर, साइन बोर्ड बनाने का नशा सिर चढ़कर बोल रहा था। कामगारों के हक में सोचते-सुनते, समझते हुए पूंजीवाद का असली खेल समझ में आने लगा। यह सब रोजमर्रा का जीवन जी लेने के लिए पर्याप्त था। किन्तु कई बार बाज़ारवादी व्यवस्था और बढ़ती मँहगाई के कारण दबाव न झेले जाने की स्थिति आ ही जाती है। दूर तलक कोई भविष्य दिखाई नहीं देता था। कभी ऐसा ठोस सोचा भी नहीं। स्थाईत्व की ओर ध्यान नहीं दिया। कोई ठोस योजना भी नहीं बनाई।’’


रोशन के शांत चेहरे को देखकर उनके कठिन संघर्षों का पता नहीं चलता। उनकी आंखों में झांकों तो दिखाई देता है एक एतबारी इंसान। महत्वाकांक्षी लेकिन सहज और सरल इंसान। वह हर किसी पर भरोसा कर लेते हैं। वह जैसे सरल हैं उन्हें दुनिया भी उतनी ही सरल लगती है। सात साल संघर्ष के हो गए। जब कोई स्थाईत्व नजर नहीं आया तो एक बार फिर से नया ठिया खोज लिया। यह नया ठिया था। देहरादून का पुराना बस अड्डा। जिसे लोकल बस स्टैण्ड कहते थे। तिब्बती बाज़ार से लगा हुआ। वह याद करते हुए बताते हैं,‘‘छात्र आंदोलन के संगठन कई थे। मैं एसएफआई के युवाओं के सम्पर्क में आया। याद करता हूँ तो लगता है कि यदि उनके सम्पर्क में नहीं आता तो कब का खत्म हो चुका होता। खतम की श्रेणी में तो होता ही। कॉलेज के चुनाव, विधायकी चुनाव, सांसद चुनाव में खूब नारा लेखन किया। पोस्टर लगाए। बैनर लिखे। सोलह-अठारह घंटे काम किया। लेकिन लगातार काम नहीं मिला। एक बार फिर शहर बदला। अब मैं उत्तरकाशी चला गया। वहां भी पेन्टिंग का काम किया। फिर भूकम्प आ गया। बहुत बुरा हुआ। हम भी जनवादी सोच के चलते राहत कार्य में जुट गए। जब सब कुछ सामान्य सा होने लगा तो मैं वहाँ से लौट आया। फिर देहरादून में काम पकड़ा।’’


यह बात समझने में देर नहीं लगती कि इंसान बुरा नहीं होता। उसके हालात बुरे होते हैं। यह भी अनुभव बताता है कि भरा पेट अभावग्रस्तों के बारे में उतनी शिद्दत से नहीं सोचता जितना भूखा पेट। कहीं न कहीं भूख की पीड़ा समझने वाले भूखे से हमदर्दी अधिक रखते हैं। सम्मान देना और दूसरों को हेय दृष्टि से न देखना भी प्रभाव डालता है। आज कल्पना करते हुए भी बदन सिहर उठता है। पांच रुपए डाइट। एक दिन में एक बार भोजन करने के लिए पेट भर रोटी के लिए पांच रुपए डाइट का खाना जुटाना भी चुनौतीपूर्ण होता था। बैनर बनाते-बनाते उन्हीं बैनर के कपड़े बिछाकर सो जाना कितना तकलीफदेह हो सकता है!


रोशन बताते हैं कि देहरादून में रहते हुए छात्र आंदोलनांे में कई तरह के विचार सामने आते हैं। जो विचार हमारे जीवन से जुड़े हुए सुनने को मिलते हैं उनके साथ अपनत्व का रिश्ता बनने लगता है। कालान्तर में वह मुंबई चले गए। वह टटोलती आंखों के सहारे बहुत कुछ बताते हुए कहते हैं,‘‘मेरा काम कुछ हलका पड़ा तो बगैर सोचे-समझे मैं मुंबई चला गया। यह बात नब्बे के दशक की है। मैं मुंबई एक साल रहा। दोस्त ने जनवादी लोगों से मिलवाया। जनवादी सोच के लोगों ने बहुत सहयोग किया। वह दौर बहुत ही सुनहरा था। कहीं भी चले जाओ। जनवादी सोच के लोगों में एक-दूसरे की मदद करना सबसे बड़ा काम था। कोई भी हो। धर्म क्या, जाति क्या, राज्य क्या। सब अपने लगते थे। कामरेड शब्द भरोसा दिलाता रहा। अपनापन बहुत था। मुंबई जैसे महानगर में काम चल रहा था। लेकिन मन नहीं लगा। मैं लौट आया।’’


रोशन बताते रहे और हम उन्हें सुनते रहे। वे बोले,‘‘देहरादून लौटा तो घर-गाँव मंे कुछ परिस्थितियां अनुकूल नहीं रही। पुश्तैनी जमीन का सौदा हुआ तो बल्लीवाला चौक में गढ़वाल पेन्टिंग के नाम से काम शुरु किया। यहां जमकर मन का काम किया। चार-एक साल काम किया। पहले किराए पर दुकान ली। फिर खरीदी। काम चला। धीमा हुआ। फिर बना, बिगड़ा। कुछ स्थितियां फिर बिगड़ी और दुकान बेचनी पड़ी। एनजीओ के कुछ साथियों के सम्पर्क से काम चलता रहा। फिर धीमा हो जाता। फिर चल पड़ता। फिर थम जाता। फिर दोस्तों के सुझाव पर वीडियो कैमरा खरीदा। जिस मक़सद के लिए यह सब किया। बात नहीं बनी। फिर साथियों के साथ मिलकर और साथियों के सहयोग से शादियों का भी काम किया। शादियों में फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी का काम भी किया। यह एक नया तजुर्बा था। यहां भी कुछ फायदा नहीं हुआ। नुकसान हुआ। समय खराब हुआ।’’


बचपन से किशोर और फिर युवा हो चुके रोशन का विवाह उन्नीस सौ अट्ठानवे में विवाह हो गया। कांधों पर एक नई जिम्मेदारी बढ़ी-सी महसूस हुई। अनुभव और तजुर्बे के आधार पर दोस्तों ने सलाह दी कि एक भव्य पेन्टिंग स्कूल खोला जाना चाहिए। रोशन याद करते हैं,‘‘यहां संभावनाएं दिखाई दी। यह भी किया। निवेश किया। बात चल पड़ने से ही बिगड़ गई। कुछ स्वार्थी लोगों का ध्येय देर से समझ में आया। वहां से हटना पड़ा। फिर डिस्पेन्सरी रोड में दुकान खरीदी। हाथ के हुनर का काम चलता तो रहा लेकिन खर्च तो विचार आया कि कम्प्यूटर सेन्टर खोला जाए। ऐसा काम जिसकी एबीसीडी नहीं जानता था। कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट के नाम पर भी मेरे रुपये लगे। आमदनी से अधिक खर्चा हुआ। विशेषज्ञ के नाम पर भी जुड़े परिचितों-अपरिचितों ने पूंजी बरबाद ही की। कुछ दर्जियों के कहने पर बटन-सुई-धागा का काम भी शुरु किया। वह बड़े पैमाने पर सोचा गया। लेकिन कुछ दिनों में ही वह लड़खड़ाकर उधड़ गया। विवाह हो ही गया था। धर्मपत्नी ने घर संभाला। कुछ काम में मदद भी की। दो पुत्र परिवार में आने के बाद तो जिम्मेदारी और बढ़ गई। लेकिन स्थाईत्व नहीं आया। किराए पर दुकानें लीं। पगड़ी पर दुकानें लीं। खरीदी। बेची। साज-सामान जोड़ा। हटाया। फिर कम दरों में बेचा। यह सब चलता रहा। रोजी-रोटी किसी तरह से चलती रही। नुकसान हुआ। निराशा हुई। फिर संकल्प लिया। फिर कूची उठाई। यही होना था।’’


सूचना-तकनीक अपने साथ नए साधन और स्रोत लाती है। लेकिन रोशन जैसे अपनी धुन में मगन कलाकार और संवेदनशील मन जल्दी से नए साधनों में रम नहीं पाते। वह पुराने तरीके से इतने व्यस्त रहते हैं कि नया जानने के लिए निवेश कैसे करें। कैसे अतिरिक्त समय निकालें। जूझे। नई चीजों को अपनाएं। वह अपनी लय नहीं खोना चाहते। लेकिन समय के साथ न चलो तो पिछड़ने का खतरा होता ही है। सन् दो हजार की आहट से पूर्व ही फ्लैक्सी का आगमन हो चुका था। रोशन जैसे हजारों हाथ के हुनर वाले इस खतरे को भांप नहीं पाए। भांप भी पाते तो नई तकनीक में निवेश कैसे करें। कहां से करें। बैनर-दीवार लेखन और पोस्टर बनाने वाले कलाकार स्क्रीन प्रिन्टिंग की ओर बढ़ रहे थे। उसका समूचा ताम-झाम जोड़ रहे थे। रोशन दिल्ली चले गए। चार-पांच महीने दिल्ली रहकर स्क्रीन पेन्टिंग को सीखा। समझा। सीखते हुए दिल्ली में अपनी गुजर-बसर के लिए अपना पूर्व का काम करते रहे। दिल्ली सूचना तकनीक के नए जेवर पहन चुकी थी। आखिरकार फिर देहरादून लौट आए।


देहरादून लौटे और फिर लोकल बस स्टैण्ड में किराए पर दुकान लेकर परम्परागत काम के साथ स्क्रीन पेन्टिंग का काम शुरू किया। काम चल पड़ा। साल दो हजार आते-आते स्वयं सेवी संस्थाओं,ट्रस्टों और संगठनों के काम मिलने लगे। दुकान मालिक ने दुकान बेचनी चाही। रोशन फिर परेशान हो गए। जमा-जमाया काम फिर सड़क पर ला देगा। जन संगठनों के साथियों की मदद से आखिरकार किराए की दुकान को खरीदना पड़ा। भारत ज्ञान विज्ञान समिति, गढ़वाल सभा, महिला समाख्या, एसएफआई, डीवाईएफआई, सीपीआईएम सहित कई जन संगठनों का छिटपुट काम मिलता रहा।

रोशन बताते हैं,‘‘सब कुछ पटरी पर आ रहा है। ऐसा लगने लगा। तभी फ्लैक्सी का काम तेजी से जोर पकड़ने लगा। अब कपड़े पर बनने वाले बैनर बनने कम हो गए। हाथ से दीवार लेखन हो या होर्डिंग्स। यहां तक कि साइन बोर्ड भी। यह सब काम फ्लैक्सी पर होने लगा। मशीनीकरण किस तरह हाथ के कामों को लील जाता है। यह मैं काफी समय से खुद पर होते हुए देख रहा था। मेरे पास पूंजी नहीं थी कि फ्लैक्सी की मशीनों के साथ इतना बड़ा ताम-झाम जोड़ सकूँ। हाथ का काम मिलता रहे साथ ही दूसरा स्रोत देखना ज़रूरी था। समय तेजी से भाग रहा था। मै पीछे छूट रहा था।’’

रोशन भोजनालय की ओर बढ़े। धर्मपुर में एक रेस्टोरेंट खोला। सब कुछ जोड़ा। लेकिन जिस उम्मीद के साथ और जिस भरोसे से वह खोला। बात नहीं बनी। फिर इसी काम को लोकल बस स्टैण्ड में आकर भी खोला। वहां भी निराशा ही हाथ लगी। रोशन बताते हैं,‘‘जिस काम में जरा-सी उम्मीद दिखाई देती। मैं उस ओर चल पड़ता। कब तक सोचता-विचारता। एक-एक दिन कई बार एक साल के बराबर बीतता। पेंटिंग का काम वह भी हाथ से किया जाने वाला काम शहर के आस-पास लुप्त होने लगा था। मैं बुरी तरह परेशान हो गया। डाकपत्थर स्थित डिग्री कॉलेज में लगभग पाँच महीने माली का काम भी किया। इस बीच जो बैनर, होर्डिंग्स का काम मिलता। ले लेता। एक स्वयं सेवी संस्था खोली। वहां भी बात नहीं बनी। मैं गाँव छोड़कर कुछ सपने लेकर देहरादून या अन्य शहरों के भरोसे गया था। इन शहरों ने मुझे बार-बार परेशान किया। निराश किया। बार-बार जाता। बार-बार लौटता। नई ऊर्जा के साथ काम करता।’’

ऐसा भी नहीं है कि रोशन को चालाक परिचित, झांसेबाज़ और स्वार्थी ही बार-बार मिलते रहे। जब ज़िंदगी चौराहे पर ला खड़ी करती है तो कहीं एक संकरी पगडण्डी स्वागत करती दिखाई देती है। गढ़वाल मण्डल विकास निगम के जगह-जगह खुले अतिथि गृहों के साइन बोर्ड और होर्डिंग्स का काम रोशन को मिला। कुछ सामाजिक संगठनों और स्वयं सेवी संस्थाओं का काम मिला। मिलता रहा। वैचारिकी से भरे कई साथियों ने साथ नहीं छोड़ा। पेंटिंग के काम को बार-बार छोड़ना चाहा, लेकिन इसी कला ने छिटपुट मदद भी की। रोशन उसी में रम गए। ग्राम्य विकास विभाग की आजीविका परियोजना के लिए गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार सामग्री लिखने का काम मिला। टिहरी और उत्तरकाशी की ओर रोशन चल पड़े। रोशन साल दो हजार आठ से बारह तक पांच साल गांव दर गांव दीवार-नारा लेखन, साइन बोर्ड आदि बनाने के लिए जाने लगे। वे बताते हैं,‘‘आजीविका परियोजना से ग्रामीणों का स्तर बढ़ा या नहीं बढ़ा। कह नहीं सकता। वह हाशिए से उठे या नहीं। नामालूम। लेकिन आजीविका परियोजना ने मुझ औंधे पड़े इंसान को खड़ा तो किया ही है।’’

रोशन स्वीकारते हैं,‘‘शहरों ने बार-बार मेरे सामने चुनौतियां रखीं तो गाँवों ने मुझे हिम्मत दी। मुझे शहर छोड़कर अपने गांव आना पड़ा। अब मैं अपने गांव से ही संचालित होने लगा। गढ़वाल सहित कुमाऊँ में भी मुझे पानी की टंकियों, इमारतों, कार्यालयों, भवनों में स्लोगन, प्रचार, अपील, सूचना आदि लिखने का काम मिला। हाथ का काम। एक-एक अक्षर हाथ से बनाने का काम। सुदूर क्षेत्रों में यह काम इंसान ही कर सकता था। मानवकृत यांत्रिक मशीनें नहीं।’’ रोशन आजीविका के लिए जूझते रहे। कमर तोड़ मेहनत करते रहे। सर्दी-गर्मी और बरसात झेलते रहे। उधर उनकी पत्नी ने कायदे से घर संभाला। बच्चों की अच्छी परवरिश की। हौसला बढ़ाती रहीं। एक बेटा जवाहर नवोदय विद्यालय में प्रवेश पा गया। इस बीच फतेहपुर ग्रन्ट में घर भी बनाया। रोशन पूरी निष्ठा और ईमानदारी से काम करते रहे। यह उनकी लगन और काम की गुणवत्ता का असर था कि साल दो हजार चौदह-पन्द्रह में आजीविका के दूसरे फेस में उन्हें उत्तराखण्ड के लगभग आठ जिलों में स्लोगन लिखने का काम मिला।

वह बताते हैं,‘‘राज्य के प्रति मेरा लगाव बढ़ने लगा। आजीविका आच्छादित क्षेत्रों में जाने से ग्रामीण जीवन को नज़दीक से देखा। लोगों के आमदनी के स्रोत, जन-जीवन, कर्मठता को करीब से देखा। खुद में साहस आया। अभाव का प्रभाव भी दिखाई दिया। नई ऊर्जा मेरे भीतर आती रही। कोरोना काल के दौरान सम्पूर्ण लॉक डाउन के अलावा मैं कभी खाली नहीं रहा। मुझे काम मिलता रहा। इसी पेंटिंग के सहारे मेरी कुछ न कुछ आमदनी होती रही। आर्थिक तौर पर बीज रूप में ही सही मुझे मेरी इस कला ने बेरोजगार नहीं रहने दिया। घर से काम पर जाना और फिर घर लौटना अब अच्छा लगने लगा था।’’

लगातार काम के तरीकों में आ रहे बदलाव और उनमें लग रही पूंजी से रोशन भी परेशान रहे। यह सब कुछ चलता रहा। अनिश्चितता के साये में दौड़-धूप न थमी और न ही रुकी। लेकिन रोशन हमेशा यही सोचते रहे कि आखिरकार जीवन में आमदनी के स्रोत में कोई स्थाईत्व तो आए! वह इससे पूर्व गाय भी पाल चुके थे। चारा-पानी के साथ गाय का लालन-पालन करना वह जानते थे। लेकिन जल्दी ही समझ गए कि उनकी फितरत में डेयरी का कार्य तालमेल नहीं बिठा पाएगा। मशरुम उत्पादन भी किया। वह भी चला। लेकिन, उसमें भी बारह महीने काम और मुनाफे की अल्प राशि ने निराश किया। स्थाई वितरण की समस्या ने परेशान किया। सब्जी उत्पादन भी करते रहे। लेकिन उससे भी उन्हें यह बात जल्दी समझ में आ गई कि बारह महीने आमदनी का यह स्रोत नहीं है। मानवीय ऊर्जा और वितरण के साथ उधार का मामला रास नहीं आया। छात्र आंदोलन से ही रोशन के मन के किसी कोने में मौन पालन करने का सपना भी रहा। इन सब झंझावतों-मुश्किलों-संघर्षों में जीवन के छप्पन वसंत बीत गए।

साल दो हजार अठारह के आखिर में विपरीत परिस्थितियों के साथ रोशन मौन पालन की ओर बढ़ गए। स्वयं भी प्रशिक्षण लिया। पत्नी को भी प्रशिक्षण दिलवाया। साथ ही अपने दोनों बच्चों को भी मौन पालन का प्रशिक्षण दिलवाया। इसके साथ खादी ग्रामोद्योग से भी जुड़े। मौन पालन के लिए पांच लाख का कर्ज भी लिया। एक समय में एक सौ अड़सठ मौन पालन के बॉक्स के साथ काम चल पड़ा। पिछली बारिश में नुकसान हुआ। सैकड़ों मधुमक्खियां मर गईं। आज उनके पास पचास बॉक्स ही बचे हैं। पिछले तीन सालों में एक नए काम का तजुर्बा हासिल किया। वह इसे बेमिसाल बताते हैं। उन्हें लगता है कि इस काम से अब स्थिरता आ गई है। आमदनी में भी बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं झेलना पड़ रहा है। एक स्थाईत्व उन्हें इस काम में दिखाई देता है।

मौन पालन के बारे में विस्तार से बताते हैं। अब उनके चेहरे में अलग तरह का आत्मविश्वास है। वह बेहद उत्साही हैं। वह बताते हैं,‘‘मौन पालन की मधुमक्खियों का जीवन तीन चीज़ों पर निर्भर करता है। पहला है मीठा रस। दूसरा है फूलों का पराग और तीसरा है पानी। जब फूलों का मौसम नहीं होता तो हम पालक उन्हें चीनी का मीठा पानी पिलाते हैं। ताकि वे जिन्दा रह सकें। चीनी का घोल। सबसे बड़ी बात है कि उनका इस धरती पर मनुष्यों को बचाए रखने में मदद करना।’’

हैरानी पर वे बताते हैं,‘‘मधुमक्खियाँ परागकण करना। मधुमक्खी है तो हम हैं। हम जो कुछ भी खाते हैं उसमें हर तीसरा हिस्सा मधुमक्खियों की वजह से ही हम तक पहुँच रहा है। मधुमक्खियाँ पौधों को परागित करती हैं। फल,सब्जी और सूखे मेवे तक भी। हमें मधु यानि शहद ही याद रहता है। लेकिन मधुमक्खी जीवन भर फूलों का रस इकट्ठा करते समय हजारों फूलों में बैठती है और अपने पैरों में चिपके परागकरण को नर पुष्प से मादा पुष्प तक पहुँचाती है। तभी निषेचन हो पाता है। फूल से फल और फल से बीज बनना संभव हो पाता है। यानि पौधे अगली पीढ़ी बनाने के लिए तभी बीज बना पाते हैं। मजेदार बात यह है कि मधुमक्खियों के छत्ते आसानी से दूर-दूर तक ले जाए जा सकते हैं इसलिए किसान भी मधुमक्खियों की महत्ता समझते हैं।’’रोशन ने बहुत कम समय में ही मधुमक्खियों के बारे में बहुत सारी जानकारियां जुटा ली हैं। वे बताते हैं कि यदि मधुमक्खियों के आस-पास खूब फूल हैं तो पन्द्रह दिन में ही एक पेटी में तीन से चार किलो शहद इकट्ठा हो जाता है। एक पेटी से साल भर में बीस से तीस किलो शहद इकट्ठा हो जाता है।’’ इस बाबत पिछले साल रोशन अपने मौन पालन से हासिल शहद की बात बताते हुए कहते हैं,‘‘पिछले साल मेरी मधुमक्खियों ने खुद बीस कुन्टल शहद दिया है।’’

वह गंभीर हो जाते हैं। बताते हैं,‘‘सबसे अधिक दिक्कत तब आती है जब आस-पास फूल नहीं होते। फूल हमेशा तो नहीं होते। तब हमें इनका माइग्रेशन करना पड़ता है। यानि मधुमक्खियों को रात के अंधेरे में पेटियों सहित फूलों के पास ले जाना पड़ता है। पिछली बार बहुत अधिक बरसात के कारण मेरी सैकड़ों मधुमक्खियाँ मर गईं। मेरे पास एक सौ अड़सठ पेटियाँ थीं। अब मात्र पचास पेटियाँ हैं। मधुमक्खियाँ बची रहें। यह भी चिन्ता रहती ही है।’’


रोशन सिर्फ कलाविद् नहीं हैं। वह एक भले इंसान हैं। उनके भीतर मनुष्यता है। दया है। सहयोग की भावना है। वह चाहते हैं कि सब खुशहाल रहें। हर किसी को रोटी मिलती रहे। वह गर्व से कहते हैं,‘‘हम इस धरती को बचाए और बनाए रखने के काम में एक हिस्सा बन गए है। अच्छा लगता है। हमें पता है कि लगभग बीस हजार प्रजातियों में हम तीन-चार प्रजातियों की मधुमक्खियों से अपना काम चला रहे हैं। मोटे तौर पर एपिस सेराना इंडिका, डोर्साटा एफ, मेलिफेरा एपिस और लेबोरियोसा आम है। इटेलियन मधुमक्खी भी है जिसे बहुत पहले शहद का उत्पादन बढ़ाने के लिए भारत के अनुकूल माना गया। सेराना इंडिका बहुतायत में पाली जाती है। रोशन इस मौन पालन में रम गए हैं। वह अपनी मधुमक्खियों को हरियाणा, राजस्थान तक ले जाते हैं। उन्होंने बताया,‘‘साल में तीन से चार बार हमें ज़्यादा ध्यान देना पड़ता है। फरवरी के दिनों में यूकेलिप्टिस एवं अन्य पेड़ों के फूलों के समय, मार्च-अप्रैल में लीची के समय, अप्रैल-मई जंगली फूलों में, मई-जून में जामुन प्रमुख है। अजवाइन,जीरा और सौंप के लिए हम राजस्थान अपनी मधुमक्खियों को माइग्रेट कराते हैं। सरसों की खेती के दौरान भी हमें खूब शहद मिल जाता है।’’

बाएं अपन और दाएं रोशन मौर्य जी


वह जिस तरह से बताते हैं लगता है कि बरसों से यही मौन पालन का काम कर रहे हैं। शाम ढलने लगी है। वह अपनी मधुमक्खियों की पेटियों की ओर देख रहे हैं। बातें बहुत हैं और समय हमें लौटने के लिए बाध्य कर रहा है। बड़े जतन से मौन पालन के दौरान इकट्ठा किया हुआ शहद वह हमें बड़ी शीशी में देते हैं। हम उनसे मिलकर लौट रहे हैं। जीवन के साठ दशक जी चुके मीठे से आदमी रोशन मौर्य से लौटकर हमारा वापसी का सफर भी मीठा हुआ जाता है। अब जब बातचीत को समेट रहा हूँ तो सोच रहा हूँ कि कहीं रोशन फिर से इस काम को छोड़कर नई संभावनाओं का कोई ओर द्वार न खटखटाने लग जाएं। यह बात इसलिए भी लिखी जा रही है कि रोशन जी एक जगह टिककर ठहरने वाले इंसान नहीं हैं। पहाड़ी पेन्टिंग शैली में प्रतीकों का योगदान विषयक वह अपनी पीएचडी पूरी नहीं कर पाए। कारण जो भी रहे होंगे लेकिन दूसरा होता तो इतने महत्वपूर्ण विषय पर पीएचडी जैसे-तैसे पूरी कर ही लेता। खैर….यह सब तो समय पर निर्भर करता है। उम्मीद है कि रोशन मौर्य के बारे में पढ़कर एक मिठास आपके मन-मस्तिष्क में भी ज़रूर बनी रहेगी। यदि हाँ तो बताइएगा ज़रूर।

॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’

दाएं : मोहन चौहान हैं , जिन्हें इस बातचीत का श्रेय जाता है ! बाएं रोशन मौर्य , मध्य में अपन

7579111144

Loading

By manohar

9 thoughts on “बारा बानी व्यक्ति जो मुर्तसिम उकेरक चितेरा चित्रकार आर्टिस्ट पेन्टर भी है”
  1. बहुत खूब मनु जी,
    शायद अधिकतर कलाकार के जीवन में ऐसी कशमकश होती है,
    अपने साथ भी बहुत कुछ ऐसा ,,,,,,,,
    खैर ,
    रोशन जी का व्यक्तित्व प्रभावित करता है और आपकी कलम तो सोने की कलम है ही ।

  2. वाह, इसे ही कहते हैं संघर्ष। ये ही हुई असली प्रगतिशीलता। सलाम रोशन मौर्य जी को।
    मनु, आपको और मोहन जी को भी इस बेमिसाल शख्शियत को हमसे परिचित कराने के लिए साधुवाद

  3. सलाम श्री रोशन मौर्य जी को उनके सतत संघर्ष को और उनकी जिजीविषा को ।मौर्य जी के बारे में पहली बार श्री विजय भट्ट साहब की फ़ेसबुक पोस्ट से पता चला था ।कालान्तर में शहद ख़रीदने की आवश्यकता हुई तो पोस्ट में बताये गये पते ऐश्ले हाल और उसके आसपास मौर्य जी की दुकान ढ़ूँढ़ने की कोशिश की पर असफल रहा ।लिहाज़ा गाँधी आश्रम के शहद से ही काम चल रहा है । हमेशा की तरह एक बेहतरीन और सार्थक पोस्ट के लिए साधुवाद!

  4. सचमुच सुंदर और सटीक लिखा रोशन के विषय में वाक़ई कमाल का आदमी है रोशन मौर्य । मैंने कई रूप में देखा है उसे । उम्मीद और संघर्ष का प्रतीक ।

  5. बहुत उम्दा लेख है मनु भाई । आपकी जादुई कलम शब्दों को चित्र रूप में दिखाते हैं।
    रोशन भाई का व्यक्तित्व अत्यंत संवेधनशील , शांत और निश्चल है और आपने इसे बड़ी ख़ूबी से उभारा है। मेरे जीवन में उनका बहुत योगदान रहा है, और मैं उनके जीवन के कुछ पड़ावों का हिस्सा भी रहा हूँ। वो चाहे गंगोत्री से दिल्ली की पदयात्रा हो या फिर गोरखपुर से मिलों अंदर कसिया, पढ़रोना के ग्रामीण क्षेत्रों में “बी जी वी एस” के लिए फ़िल्मांकन करना हो, हम दोनों ने साथ साथ बहुत कदम चले हैं। बढ़ने की लगातार कोशिश करते रहना, किसी भी परिस्थिति में हार न मानना, संयम बनाये रखना, धेर्य, शांति, मौन और न जाने जीवन के कितने ही ऐसे पहलू हैं जिनका प्रभाव मेरे व्यक्तित्व में उनकी देन है। मैं देहरादून में लगभग चार वर्षों तक रहा, इन चार वर्षों के शुरुआती दिनों में रोशन भाई की बल्लीवाला चौक में साइन बोर्ड की दुकान में काम करने का मौक़ा भी मिला, सम्भवतया मेरे चित्रों में शब्दों के आकारों का कौशल विकास यहीं से हुआ हो। हमारे जीवन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में आगे बढ़ाने में बहुत से व्यक्ति होते है और इन्हीं व्यक्तित्वों में मेरे पास एक नाम रोशन भाई है।

  6. रोशन मौर्य जी के जीवन संघर्ष और कला के प्रति जुनून की जानकारी हेतु आपका और मोहन चौहान जी का बहुत आभार।उनकी लगन युवाओं के लिए तो बहुत अनुकरणीय है ही किसी के लिए भी प्रेरणा है।छोटे छोटे कामों को भी उन्होंने जिस लगन और मेहनत से वर्षों किया तथा केवल पैसे के लिए नही सोचा, ऐसा केवल जुनूनी व्यक्ति ही कर सकता है।रोशन जी को सलाम पहुंचे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *